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किश्वर अंजुम

Drama

5.0  

किश्वर अंजुम

Drama

पैरोल ऑनलाइन

पैरोल ऑनलाइन

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उसका गुनाह बस यही था कि वो एक पढ़ी-लिखी घरेलू महिला थी। घरेलू बनना उसकी मजबूरी थी, क्योंकि सरकारी नौकरी में इंजीनियर, वो भी मलाईदार विभाग में, मलाईदार सीट पर बैठे लड़के की यही शर्त थी। मलाईदार कहने का मतलब समझ रहे हैं न आप? मतलब, तनख्वाह के दूध पर ऊपरी कमाई की मोटी परत, इस मोटी परत को ही मलाई कहा जाता है। हां, तो फिर यूं हुआ कि उस पढ़ी लिखी लड़की के घरवालों को वो रिश्ता जम गया। लड़के की यही शर्त थी कि उसकी पत्नी नौकरी न करे। आज से पच्चीस साल पहले, जब आज जैसे कुकुरमुत्ते के समान उगे इंजीनियरिंग कॉलेज नहीं थे, उस समय इंजीनियर बन पाना बहुत बड़ी बात थी, और उससे भी बड़ी बात थी इंजीनियर दामाद पाना, और फिर पक्की सरकारी नौकरी वाला, फिर तो वो दामाद नहीं, ख़ुदा ही हो गया। फिर वही हुआ जो होने की उम्मीद थी। लड़के की शर्त मानते हुए लड़की को बामशक्कत उम्रकैद की सज़ा सुना दी गई, जिस सज़ा में ये छुपी हुई शर्त थी कि लड़की, जब औरत बन जाएगी तो उसे घर से बाहर क़दम रखने की भी इजाज़त नहीं होगी।

अगर भूले भटके कोई रिश्तेदार, कैदी से मिलने आ जाए तो फिर तो कैदी का ऊपरवाला ही मालिक। जो सज़ा मिले वो कम। जेलर रूपी पति अपनी कैदी रूपी पत्नी को इस गलती के लिए माफी दे दे, ये तो हो ही नहीं सकता था। पत्नी को अपनी गलती या कहें गुनाह, समझ में नहीं आता था। बाहर जाके नौकरी न करना तो ठीक था, पर किसी रिश्तेदार से न मिलना, किसी रिश्तेदार को घर न बुलाना, मायके जाओ तो पति के साथ जाके, उसी के साथ वापस आना। अपनी पसंद का कोई काम न करना। कभी कुछ नया सीखने की कोशिश न करना। बाज़ार जाओ तो पति के साथ जाके, उसी की पसंद का सामान खरीदना। अपनी कोई ख्वाहिश ज़ाहिर न करना, ऐसी ढेरों अघोषित शर्तें इस जेलर की जेल में लागू होती थीं।

बेचारी लड़की, माफ करिए अब तो वो औरत बन गई थी, तो हम अब उसे औरत ही कहेंगे, भले उसकी उम्र उस वक़्त बाईस की ही क्यों न हो। हां तो बेचारी औरत निभा रही थी, निभाना तो उसने बचपन से ही सीखा था। अपने आस पास यही तो देखती आ रही थी। उसके लिए निभाना कोई बड़ी बात नहीं थी, वो निभा जाती, पर यहां पाला एक ऐसे आदमी से पड़ा था जो अपनी शिक्षा के घमंड में फूला हुआ था, उपर से सरकारी नौकरी और तुर्रा ये कि वो एक पुरुष था। एक आदमी होना, शक्ल सूरत का अच्छा होना, उच्च शिक्षा और बढ़िया नौकरी होना, बाप और भाइयों का भी सरकारी अधिकारी होना, कहने का मतलब ये कि हर तरह से नवाज़ा़ गया इंसान। इतना सब कुछ मिलने के बाद होना तो ये चाहिए था कि वो ऊपरवाले का हजारों शुक्र अदा करे, इसकी जगह वो खुदपसंदी के नशे में चूर हो गया था। शराब का नशा एक बार उतर जाता है, तो इंसान दो अच्छे बोल भी बोल लेता है, पर पद, धन और प्रतिष्ठा का नशा जिस पर सवार हो, वो जब मुंह खोलेगा तो नशे में ही बोलेगा, क्योंकि ये नशा एक बार सवार होता है तो नाश होने पर ही उतरता है। निभाना, अपने आप में ही एक ऐसा शब्द है जिसका मतलब कभी कभी समझौता भी हो जाता है, तो वो कैदी रूपी औरत समझौता किए जा रही थी शादी की पहली रात से ही। प्यार, सम्मान और सुरक्षा किस चिड़िया के नाम हैं, शादी के बाद वो ये भूल गई थी, इसकी जगह बेइज्ज़ती, ज़लालत और बदसलूकी ने ली थी।

लड़की की ख़ूबसूरती उसकी दुश्मन बन गई थी। उसकी ख़ूबसूरती ही तो थी, जिसने उसे ऐसी जगह ला दिया था, अगर आम शक्ल सूरत की होती, तो इंजीनियर साहब को पसंद ही नहीं आती। खानदान वाले उसकी किस्मत पर रश्क करते थे, कि उसे इतना अच्छा घर वर मिला है। सबको लगता था कि वह बहुत सुखी है। अगर सुख का मतलब खाना, कपड़ा और सर पे छत है, तो हां, लड़की सुखी थी, पर अगर सुख का मतलब पति का प्यार, सम्मान और थोड़ी सी आज़ादी है तो ये सुख उसे हासिल नहीं था। उसकी ज़रूरतें तो पूरी की जाती थीं, पर ये एहसास दिलाकर कि तुम्हें ज़रूरत से ज़्यादा मिल गया है। कपड़ों के ढेर लगाकर उसे कहा जाता कि इनमें से छांट लो, जो चाहिए। बाज़ार जाने की इजाज़त नहीं थी। कभी ज़रूरी ही हुआ और बाहर ले जाना पड़ा तो जेलर साहब अपनी क़ैदी को ऐसे ऐसे इल्ज़ाम देते कि बस तौबा। तू फ़लां को घूर रही थी, फ़लां तुझे देख रहा था। बेसिरपैर के सवालों का जवाब देते देते बेचारी औरत रो देती थी। धीरे धीरे ऐसी स्थिति से बचने उसने बाहर जाना ही छोड़ दिया। न तो वो मायके जाती, न बाज़ार, न रिश्तेदारी में, न पड़ोस में, न अस्पताल। बीमार तो अव्वल उसे माना ही नहीं जाता, अगर ज़्यादा ही तकलीफ दिखे तो जेलर के डॉक्टर भाई से पूछकर दवा दे दी जाती।

जेलर एक बार अपनी कैदी को अस्पताल ले गया था, डॉक्टर ने नब्ज़ देखने कलाई क्या पकड़ ली, जेलर बेचारे का तो डॉक्टर से भरोसा ही उठ गया। अब कोई भी बीमारी को डॉक्टर से मिलने का बहाना माना जाता, और हाल बताकर लाई गई दवा से ही काम चलाना पड़ता। ऐसे ही दिन बीतते गए और कैदी तीन बच्चों की मां बन गई। दो लड़की और एक लड़का। कैदी को राहत मिली। अपने बच्चों की परवरिश में उसने खुदको झोंक दिया। जेलर की बदज़ुबानी से घायल दिल पर बच्चों की भोली भाली बातें मरहम रख देतीं । कैदी की किस्मत भी अजीब थी, इतना पढ़ा लिखा परिवार और इतना क़ाबिल पति मिलने के बाद भी उसकी योग्यता की कोई कद्र नहीं थी। शिक्षा भी इस परिवार की संकुचित मानसिकता का कुछ बिगाड़ नहीं पाई थी। ऐसे ही समय कटता गया। बच्चे बड़े हो गए और अपने अपने काम धंधे में लग गए। अब कैदी अकेली हो गई, जेलर पहले ही खुद को इतना लायक़ समझता था कि उसे कैदी के कोई गुण नजर ही नहीं आते थे, कैदी तो उसकी नज़र में बिल्कुल नालायक थी, इसलिए एक ज़रूरत से ज़्यादा लायक़ भला एक नालायक़ से क्यों बात करता। कैदी का काम था बच्चे पैदा करना और परिवार की देखभाल करना, इसके अलावा उसकी कोई और अहमियत जेलर की निगाहों में नहीं थी।

पिंजरा क्या होता है और कैद किसे कहते हैं, ये वही जानता है, जो इसे भुगतता है, बाकी ज़्यादातर सुनने और देखने वाले इस दर्द को महसूस नहीं कर सकते। वैसे भी "जाके पैर न फटी बिवाई, वो क्या जाने पीर पराई"। जवानी की उम्र गृहस्थी के कामकाज और बच्चों की परवरिश में कट गई, अब ढलती उम्र, न तो बूढ़ों में और न ही जवानों में शामिल, कैदी को परेशान कर रही थी। गृहस्थी का काम ज़्यादा बचा नहीं, और किसी से मिलना जुलना है नहीं, करें तो क्या करें? खाना बनाने और दूसरे कामों के लिए नौकरों की फ़ौज। बागवानी का शौक है तो उसके लिए माली है ही, भला इतने बड़े इंजीनियर की पत्नी बागीचे में काम करती अच्छी लगेगी, जेलर रूपी इंजीनियर साहब की इजाज़त नहीं थी। कैदी रूपी पत्नी के लिए, जवानी में अलग बंधन थे, और ४५ साल की उमर में अलग बंधन हैं। बंदी के लिए नियम बदलते रहते हैं, पर नियम रहते ज़रूर हैं, उनमें कोई ढील नहीं दी जाती।

कैदी यूं तो जेलर की हर बात मानती थी, पर एक बात जो जेलर नहीं जानते थे, वो थी, कैदी का डायरी लिखना। सालों से वो डायरी लिख रही थी, जेलर की नजरों से बचाकर। एक यही बात, उस औरत को अपनी ज़िन्दगी की बंदिशों से निजात दिलाती थी। अपने सारे दर्द को, कहानियों और शायरियों की कश्तियों की शक्ल में ढाल के, वो डायरी रूपी समुंदर में बहा देती थी। इस से उसके दिल का दर्द कुछ कम हो जाता था।

एक दिन बड़े बेटे ने अपनी मां की डायरी का राज़ जान लिया। उसने देखा कि मां ने कितनी अच्छी तरह ज़िंदगी के अनुभवों को अक्षरों की माला में पिरोया है। बच्चों को वैसे भी मां से सहानुभूति थी, पर पिता को कुछ कहना उनके संस्कारों में नहीं था, उन्हीं संस्कारों में, जो उनकी मां ने उन्हें दिए थे। अब, जब बेटे ने देखा कि मां अपने अकेलेपन को लेखनी के जरिए भरती है, तो उसे एक उपाय सूझा। कुछ ऑनलाइन पत्रिकाओं में उसने मां का खाता खोल दिया, और अपनी मां को अपनी रचनाओं को प्रकाशित करने राज़ी कर लिया, कहने की ज़रूरत नहीं है, इस काम के लिए उसे, अपनी मां का एक छद्म नाम रखना पड़ा, छद्म नाम इसलिए,

जिससे उसके पिता को इस बात का इल्म न हो पाए। क्योंकि पिता इस बात पर कभी राज़ी नहीं होते कि उसकी मां अपनी कृतियां प्रकाशित करवाए। पिता से बेटे ने इस बात की हामी भरवा ली थी, कि मां को एक स्मार्टफोन दिला दिया जाए, जिससे वो कुछ सिलाई कढ़ाई और खाना पकाने के नए तरीके सीख सके। असलियत बताने पर इजाज़त नहीं मिलती। जेलर को इस बात पर ज़्यादा आपत्ति नहीं हुई। थोड़ी ना नुकुर के बाद इजाज़त दे दी, क्यूंकि बेटा कह रहा था।

इस तरह बेटे ने अपनी मां को सालों की मानसिक गुलामी से आज़ादी दिलवा कर उसके लिए एक नया आसमान खोल दिया, जिसमें वो अपनी इच्छा से उड़ सकती थी, बिना किसी बंधन के।

सालों की कैद के बाद मिली इस ऑनलाइन पैरोल ने कैदी को उसकी ज़िन्दगी का पता दे दिया। उसकी लिखी रचनाओं ने साहित्य जगत में अपना विशिष्ट स्थान निश्चित किया, और इस तरह एक उदास और जीवन से निराश ज़िंदगी में आशा और खुशियों के रंग खिलखिला उठे।


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