एक ग़ज़ल
एक ग़ज़ल
घर से बाहर घर जैसा आराम कहाँ
घर के अंदर घर जैसा ये नाम कहाँ
आया हूं वापिस चला जाऊंगा मैं
ये तो कह दे कि मेरा इल्जाम कहाँ
पीने का तो शौक नहीं पी लेता हूं
तुम्हारी आँखों जैसा ये जाम कहाँ
किताबें पढ़ने से क्या पा सकते हो
खुद खुद में ढूंढो की मेरी अस्काम कहाँ
चैन नहीं होता तुम्हे देखे बिना
बस प्यार यही है दूजा नाम कहाँ
जन्नत सा लगता है तेरी बाहों में
तुम्हारी बाहें बिना आराम कहाँ !!