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Alka Deshmukh

Romance

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Alka Deshmukh

Romance

तुम

तुम

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मैं जब भी देखता हूँ

तुम्हे युं मुसकुराते

अपनी धून मे खो जाता हूँ कही

अकेले में


नई नवेलीसी दिखती हो

तुम मैं बोलता हूँ

तुमसे जब भी

अकेले में

हर शय जगाती है नई 

आशा जैसें


एक जीती जागती 

प्रतिमा

नई जिंदगी की हो तुम


तुम्हारी आँखें

बोलने लगती हैं

अचानक

तुम्हारें गुलाबी'

गालों से खेलती काली जुल्फें


गालों परउतरते ही अचानक

कुछ कहती हैं

उभरती लाली

सुलगते होंठ 

गुलाब जैसें


पंखुडी नाजुक सी

मानो अब भी बड़बड़ा रही हैं

बुदबुदाहट सुनाई दे रहीं हैं

कानों मे मेरे


बुत बना खड़ा रहता हूँ

देखतां रहता हूँ

अपने अंतर मे सूनने के लिये तुम्हे

जब खेलती हो तुम नजरे झुकाये


अपने ही दुपट्टे से

चुपकें सें हसतीलजाती

झुकी आंखों से 

यूँ देखना तुम्हारा

इतनी सुंदरता ?


निहारता रहता हूँ

तुम्हें से संगमरमरी

 ताजमहल

क्यूँ हो तुम ऐसी


क्यूँ हो तुम इतनी मासूम

क्यूँ हो तुम इतनी सुंदर

मेरी आंखों में बसी

प्रतिमा सी तुम


बोल उठेगी

एक मूरत जैसे अचानक।


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