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Priya Bahrath

Abstract

5.0  

Priya Bahrath

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मैं बेहया !

मैं बेहया !

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मैं बेहया, सड़कों पर चलती हूँ ,

और दुपट्टा गिराती हूँ जान-बुझकर।

मैं उठती हूँ सारे घर में तूफ़ान जैसी

मुझसे चंचल है, आँचल माँ का

मैं बेवक़ूफ़, बाबा की बाबा

जैसी सभा में जा बैठी हूँ

और कुछ सवाल उठाती हूँ जान-बूझकर।


मैं चाहती हूँ उसको पूरे होश-ओ-हवास में

मेरा चाहने वाला उतना ही है वो,

पूरे होश-ओ-हवास में

पर मैं बेशरम, उनकी भूली- बिसरी ग़लती हूँ

और नाक कटाती हूँ जान- बूझकर।


अलसाई सी, शरमाई सी,

जोड़े में बैठी हूँ उसके साथ

मुझे देखकर, देखता रह गया,

वो आज की पूरी रात

पर सुने, मैं बेमिसाल

की आँखें मूँद कर ज़ुल्म सहती हूँ

और आँसू बहाती हूँ जान -बूझकर।


मेरा और मेरे इनका अंश आता है

हंसता- खेलता, मुझे माँ और इन्हें बाबा बुलाता है

बाबा की सभा में बैठा है

और मेरे आँचल में आकर कहता है की माँ देख।

वो बेहया सड़कों पर चलती है

और दुपट्टा गिराती है जान-बूझकर।


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