कलियुग
कलियुग
कौन जाने आखिर कैसा
यह कलियुग है आया ?
जहाँ छत नहीं अब
मजदूर की खातिर
न है छाया कृषक को ।
'अन्नदाता' है वह कहलाता
जो उपज धान्य विश्व की खातिर
पर अपना पेट ही भरने को
एक रोटी को वह तरस जाए।
'मजदूर ' वह कहलाए
जो दूसरों के घर चुनवाए
पर खुद के सिर पर छत नहीं
इसलिए करे बसेरा
एक छोटी कुटिया में ही ।
जरूरत सबको है इनकी
परंतु स्थिति देख सिर्फ कहे 'बिचारे'
फर्क इतना है कि यह यंत्रवत मानव
हार कर भी जीत गए और
हम मनुष्य जीत कर भी हारे ।
क्योंकि
न जाने हम किस बात का
कर रहे हैं आज गुरूर
बिन मेहनत के ही ,
महान तो ये लोग हैं जो
खून - पसीने का कतरा-कतरा देकर भी
अपना नाम बड़ा नहीं करना चाहे ।