कुछ सपने
कुछ सपने
कुछ सपने देख लिए है आँखें बंद करके
पर नहीं जनता की अब अंजाम क्या होगा।
आँख खुली तो जान पड़ा की
मुफ्त के सपनों का दाम क्या होगा।
रात की तन्हाई में जगती आँखें अक्सर कहा करती है;
नींद से भी बढ़कर कुछ नीलाम क्या होगा।
फिरता रहा नाम की तलाश में शहर दर शहर
पता नहीं अब ठहरने का मुकाम क्या होगा।
सपनों के लिए अपनों से, जो मोहलत न मांग पायी
कोड़ियों में बिकती इस ज़ुबान का ईमान क्या होगा।
यहाँ गरीबी का कुआँ था तो थी वहाँ समझौते की खाई
कहो इससे बढ़िया मौत का इंतज़ाम क्या होगा।
24 घंटे घूमती घड़ी भी जब, सुकून के दो पल न दे सकी
मजबूरी के आँगन में कैद है जो इंसान क्या होगा !
लिखने वाले हाथ जब नोट गिनना सीख गए
इससे ज़्यादा कलम का अपमान क्या होगा।
हमारी तुम्हें ज़रूरत नहीं बेटा, अब तू बड़ा जो हो गया है
बेटे के ज़मीर पर बूढ़े बाप का इससे बड़ा इल्ज़ाम क्या होगा।