समझ सकू
समझ सकू
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नहीं रही ताकत उतनी की
उसके दिल का हर्ज़ समझ सकूँ
इतनी सी मोहलत देना ख़ुदाया
मैं खुद ही खुद का दर्द समझ सकूँ।
क्या होता है सोना निकाल कर
हीरा चढ़ाने से
खुशियों की बारिश दे ,
तो साँस लेने और जीने में फर्क समझ सकूँ।
शोहरत के नशे में धुत्त
न जाने कितनी रातें कटी है
भूख से बेहाली दे ,
तो माँ की रोटी का कर्ज़ समझ सकूँ।
यूँ तो ख्वाबों ने ख्यालों को
कई दफा खत लिखे है
कभी बेखयाली दे ,
तो दिल की आरज़ू को हर्फ़ ब हर्फ़ समझ सकूँ।
महलों की दीवारे क्या जाने ,
जंगल की आग को
सिर से छत गिरा दे ,
तो बाबा के बटुवे का फ़र्ज़ समझ सकूँ।
जिस्म से जिस्म मिलने पर
हर दफा मुस्कुराता रहा
दिल भी कभी जोड़ दे ,
तो मोहब्बत का मर्ज समझ सकूँ।
और कुछ नहीं बस मौत दे
जब कोई मेरी जीने की दुआ करे,
तो मैं 'अश्वथामा' ,
खुद को खुदगर्ज़ समझ सकूँ।
