दिया और बाती
दिया और बाती
अपना दुखड़ा किसी को अगर
ना हो पसंद फिर क्यों गाए रोना
अपने अपने किस्मतके भोग को
कांटों भरी या फूल भरी राह पर चलना।
जीवन है यह जीवन भर का मेला
यहां सब रास्ते हैं उबड़ खाबड़
संभल संभलकर पार करोगे
भर जाएगी फिर अपनी कावड़।
डगर दर डगर भटककर अपनी
मंजिलें तय करना अपने हाथ है
रास्तों से घबराकर चलना छोड़ दिया
तो वहीं पर शाम होनी है।
श्रीरामचंद्र प्रभु को भी मिला था
चौदह वर्ष का वनवास
रास्तों से हटाई सब आपत्तियां
रचा सुवर्णमय इतिहास।
बैठे-बैठे नहीं होता है मंगल
पल-पल जल कर तेल और बाती
जलती रहती है साथ साथ
तभी वो घर-घर में वर्चस्व जगाती।