वर्मा जी की आपबीती
वर्मा जी की आपबीती
सूरज निकल आया था। वर्मा जी ने अपना बैंत उठाया ,वाकिंग शूज पहने और चल दिए रोज़ की तरह सुबह की सैर को। 60 बरस के वर्मा जी अपनी जिंदगी चैन से जी रहे थे ।अपनी जिम्मेदारियों से वह मुक्त हो चुके थे। बस खुश रहते थे और सबको खुश रखना चाहते थे। बस वह अपनी एक ही आदत से परेशान थे; ज्यादा बोलने की। उनकी इस आदत की वजह से उन्हें अक्सर ही कोई ना कोई मुसीबत का सामना करना पड़ता था ।पर क्या करें वह बाज नहीं आते थे, हमेशा सोचते थे कि मैं कम बोला करूंगा।
पर नहीं "आ बैल मुझे मार "की कहावत उन पर पूरी तरह चरितार्थ होती थी।
अभी पार्क में घुसे ही थे सब ने उनका जोरदार स्वागत किया "आइए वर्मा जी और कहिए क्या हाल चाल है?
"बढ़िया हमेशा की तरह।"
"वर्मा जी हम इन बच्चों से बहुत परेशान हैं पार्क में आकर रोज क्रिकेट खेलते हैं और पेड़-पौधों को इतना नुकसान पहुंचता है। पर क्या बोलें हमें कुछ समझ नहीं आता, क्रिकेट तो खाली मैदानों में खेलने की चीज है हम भी बचपन में ऐसे ही खेलते थे पर यह बच्चे आजकल के कहां सुनते हैं।"
"अरे !इसमें कौन सी बड़ी बात है ?यह काम आप मेरे ऊपर छोड़ दो ।आप देखना बच्चे सुनेंगे भी और जल्दी से जल्दी पार्क से चले भी जाएंगे।"
"पर बच्चे तो शाम को खेलने आते हैं ।"
"कोई नहीं, मैं शाम को उनके समय पर आ जाऊंगा, आप सब निश्चिंत हो जाएं। "
वर्मा जी की घर में एक नहीं चलती थी। कोई उनकी बात की इज्जत नहीं रखता था इसीलिए उन्हें लगता था कि बाहर तो कम से कम उनकी बात सुन ली जाएगी ।वह बुद्धिजीवी हो ना हो अपने आपको दुनिया का सबसे बुद्धिमान व्यक्ति मानते थे।
शाम को उन्होंने बच्चों से प्रेम पूर्वक कहना प्रारंभ किया
"बच्चों ,मैंने पास में ही मैदान देखा है, वह आप लोगों के खेलने के लिए उपयुक्त है ।यहां पेड़ पौधों का बड़ा नुकसान होता है ऊपर से आप लोगों को रोज बड़े लोग टोकते रहते हैं।"
"देखो अंकल बहुत हो गया। मैदान में खेलेंगे तो घर से दूर हो जाएंगे ।आप ही लोग कहते हैं ना कि सुरक्षा रखनी चाहिए। समय से घर भी नहीं लौट पाएंगे ।क्या दिक्कत है आप लोगों को? बच्चों के खेलने के लिए ही तो पार्क बनाए जाते हैं हम तो बाल भी ऐसी चुनते हैं कि नुकसान नहीं हो। आप चिंता ना करें ,बड़े हैं बड़ो जैसी बातें किया करें।"
अपना सा मूंह लेकर रह गए वर्मा जी। अगले दिन सबने उनकी खूब हंसी उड़ाई ,"आप तो कहते थे यह करुंगा ,वह कर लूंगा।"
"भई ,मैंने पूरी कोशिश की।"
" रहने दीजिए वर्मा जी आप। आपने तो बात और बिगाड़ दी ,इससे अच्छा तो किसी और को भेजते।"
थोड़ी देर के लिए मन खराब हुआ वर्मा जी का पर वह बड़े हंसमुख स्वभाव के थे ,चुपचाप घर चल दिए।
कुछ दिन गुजरे थे कि उनकी छोटी पुती उनके पास आ गई ।
"दादू ,दादू ,यह देखो कापी में क्या लिखा है।"
"दिखाओ ,हमको क्या लिखा है बड़े प्यार से कापी उठाई वर्मा जी ने।"
"अरे !यह तो तुमने सारे सवाल गलत कर दिए गणित के।
बहू को आवाज लगाई," बेटा इसने तो गणित के सारे सवाल गलत कर दिए हैं यह तो बहुत आसान विषय है ।तुम जरा देखोगी तो आराम से हो जाएगा।
बच्चों को इसी उम्र में सही मार्गदर्शन की जरूरत है।"
"सही कहा पिताजी आपने, मैं भी यही सोच रही थी आप खाली बैठे रहते हैं ,क्यों ना आप इसको गणित सिखा दें ,आपकी गणित में जानकारी बहुत अच्छी है। मैं कहां? मेरे को तो घर के काम से ही फुर्सत नहीं मिलती। बच्चे खुश हो जाएंगे वह अलग।"
वर्मा जी मन ही मन बोले" शाम को बड़ी बेटी को कसरत कराने और साइकिल चलाने का जिम्मा पहले ही ले लिया है अब एक और काम मैं भी बोले बिना बाज नहीं आता।"
"ठीक है बेटा कोशिश करके देखता हूं।"
शाम को वर्मा जी के प्रिय दोस्त महावीर का फोन आया। वह बहुत उदास लग रहे थे।
" क्या हुआ तू इतना परेशान क्यों है?
"अरे क्या बताऊं? बड़े दिनों से दांत में दर्द है। बेटा बहू अपने आप में व्यस्त रहते हैं। क्या करूं? कुछ समझ में नहीं आ रहा ।
'अच्छा तू घर आजा फिर मैं तुझे एक डॉक्टर के पास ले जाता हूं ।मेरी जान पहचान का है वह।"
शाम को अपने दोस्त महावीर को लेकर शर्मा जी अपनी मूंछों पर ताव देते हुए अपनी जान पहचान के डॉक्टर के पास पहुंच गए।
"देख मेरा रुतबा। अभी पर्ची भेजूंगा बिना फीस के ही बुला लेंगे। "
"अच्छा !वाह भाई वाह! चल हम भी देखते हैं।"
दंत चिकित्सक ने तुरंत बुला लिया और फीस भी नहीं ली पर यह क्या अगले दिन वह घर पहुंच गया।
"अरे लोक कल्याण के लिए कुछ ना कुछ करते रहना चाहिए ।मैं गरीब बच्चों का विवाह करवा रहा हूं बस दो कनस्तर घी कम पड़ रहा है। मैंने सोचा तुम से ले लूं तुम्हारे से भी कुछ दान हो जाएगा।"
"हां, हां क्यों नहीं।" जेब में से पैसे निकालते समय वर्मा जी का मन बहुत कचोट रहा था पर उनके पास और कोई उपाय नहीं था ।डर के मारे उन्होंने अपनी पत्नी से भी यह बात छुपा ली कितने दिनों से वह उनसे नई साड़ी की जिद कर रही थी।
"अरे तुम कोई सी भी साड़ी पहनो सुंदर ही रहोगी क्या जरूरत है पैसे बर्बाद करने की।"
छोटी पोती का जन्मदिन था। वर्मा जी की बेटी निधि अलीगढ़ से आई हुई थी। चारों तरफ खुशी का माहौल था। वर्मा जी ने अपनी बहन को भी बुलाया हुआ था।
केक काटा गया। केक बहुत ही खूबसूरत लग रहा था
पाइनएप्पल केक पर एक प्यारी सी गुड़िया सजी हुई थी। केक निधि बड़े चाव से अपने ससुराल से लाई थी। केक कटने की औपचारिकता के बाद जैसे ही अपने पिताजी को उसने प्लेट पकड़ाई" लो पापा थोड़ा सा आप भी ले लो।"
" अरे वाह बहुत अच्छा केक है।
क्या ऐसे केक बनने लगे हैं अलीगढ़ में ?मुझे तो यकीन ही नहीं हो रहा। "
निधि की शादी वर्मा जी ने जब अलीगढ़ से तय करी थी तो उसकी माताजी और खुद निधि तैयार नहीं थे। दिल्ली जैसी जगह छोड़कर वह नहीं जाना चाहती थी। पर फिर भी परिस्थितिवश उसकी शादी हो गई थी।
वर्मा जी की मुंह से यह बात सुनकर निधि की आंखों में आंसू आ गए ।
"वह जोर से बोली 10 साल हो गए मेरी शादी को क्या अभी भी अलीगढ़ इतना सक्षम नहीं है कि वहां केक बन सके ।आपने ऐसी जगह मेरी शादी क्यों की।"
वर्मा जी ने आंख उठाकर देखा तो सभी रिश्तेदार उनको घूम रहे थे। खासकर उनकी पत्नी। परंतु अब कुछ नहीं हो सकता था। तीर कमान से निकल चुका था
बेटी का मन दुखा कर उनको भी अच्छा नहीं लग रहा था। उन्होंने कुछ भी जानबूझकर नहीं किया था। उस दिन उन्होंने मन ही मन निश्चय किया कि वह अब कुछ भी बिना सोचे समझे ना करेंगे ना बोलेंगे। वह अपनी मुसीबत अपने आप नहीं बुलाएंगे।