वीर देवीदीन पांडे
वीर देवीदीन पांडे
यह बात तब की है जब मुगल समराज भारत देश में अपने पैर पसारने में लगा था, बाबर राम जन्मभूमि पर काबिज हो गया था,और वह मंदिर को तोड़ना चाहता था।
उस समय वहीं पड़ोसी राज्य भीटी के राजा महताब की सेना में एक वीर देवीदीन पाण्डे थे। उन्होंने बचपन से ही हिंदू संस्कार ग्रहण किये और किसी प्रकार से भी वह यवन परंपरा की पराधीनता स्वीकार करने को उद्यत नही हुए। वह एक कुलीन ब्राह्मण परिवार में जन्में थे, इसलिए किसी भी प्रकार से किसी विदेशी शासक द्वारा भारत के सम्मान को चोट पहुंचाने की स्थिति उनके लिए असहनीय बन चुकी थी।
देवीदीन पाण्डेय के माता-पिता भी एक अच्छे परिवार से थे और देशभक्ति की भावना उनके शुद्घ हृदय में भरा रहता था । स्वतंत्रता और स्वधर्म के उस परमोपासक युवा देवीदीन पाण्डेय की पहले दिन से ही शब्दों के भ्रमजाल में न रहकर हिंदू जागरण करने की प्रवृत्ति थी।
1528 ई. में जब भीटी नरेश महताबसिंह के द्वारा राम जन्मभूमि की रक्षा हेतु युद्घ किया जा रहा था,। युद्घ के सात-आठ दिन व्यतीत हो गए थे और वह कमजोर पड़ने लगे थे तभी वीर देवीदीन पाण्डे युद्घ में अचानक प्रकट हो गए ।
वह अपने पारंपरिक कार्य पुरोहिति में व्यस्त थे,तभी उन्हे पता चला की भीटी नरेश बाबर की सेना के सामने कमजोर पड़ रहे हैं तो वह पूजा का कार्य अपने पिता को सुपुर्द कर अपने ब्राह्मण भाइयों को एकत्र करने लगे थे।
देवीदीन अपने जन्मभूमि,देश और धर्म के लिए मर मिटने के लिए नही, अपितु शत्रु को मारकर मिट्टी में मिला अमर होने के भाव के साथ युद्घ में कूद पड़े थे ।
उन्होंने बनाई 70,000 युवाओं की सेना,।
देवीदीन पाण्डेय के देशभक्ति के भावों का अनुसरण करते हुए लगभग 70,000 युवा और देशभक्त हिंदू रामजन्म भूमि की रक्षार्थ युद्घ में कूद पड़े।
हमारे अमर इतिहास का यह कितना गौरवपूर्ण तथ्य है कि जिस देश के लिए यह कह दिया जाता है कि इसके सैनिक बिना नेता के युद्घ नही कर सकते, उसी देश के लोग बिना नायक के युद्घ की तैयारी करते हैं और अपना नायक एक ‘अभिमन्यु’ को बना लेते हैं। उन्हें किसी राजा या महाराज की प्रतीक्षा नही थी कि वह कहेगा तो युद्घ करेंगे, या वह नेतृत्व देगा तो वह पीछे से चलेंगे। और ना ही उन्हें किसी प्रकार के वेतन या पारितोषिक या ‘लूट के माल’ की अवश्यकता या प्रलोभन था कि वह मिलेगा तो ही वह युद्घ करेंगे।
उन वीरों की वीरता प्रशंसनीय और वंदनीय थी, क्योंकि वह सभी संकट ग्रस्त भारतीय संस्कृति को अपनी निष्काम और निस्वार्थ सेवाएं देना चाहते थे। उनके लिए मातृभूमि,और राम जन्मभूमि ही सबकुछ थी, और वह उसी के लिए अपना सर्वस्व होम करना देना चाहते थे।
देशभक्त देवीदीन और सत्तर हजार युवा कृष्ण की गीता को अंगीकार कर चुके थे और उसी के ‘निष्काम भाव दर्शन’ को अपना आदर्श बनाकर युद्घ के लिए दृढ़ता से तैयार हो गये।
सारे योद्घा बन गये यज्ञ की समिधा
युद्घ की विभीषिकाएं इन वीरों के आ जाने से और भी प्रचण्ड हो गयीं थी।
जैसे जलती हुई अग्नि में घी पड़ गया हो।
सारे योद्घाओं ने स्वयं को राष्ट्र यज्ञ की समिधा बनाकर होम कर दिया, उनके हृदय में केवल एक ही भाव था, एक ही चाव था, और उनका एक ही दाव था कि जैसे भी हो हमारी रामजन्म भूमि पर पुन: ‘केसरिया’ लहराए, और हमारा सनातन धर्म अपने सम्मान और संस्कृति की रक्षा कर सके।
पंडित देवीदीन पाण्डे की प्रशंसा स्वयं मुगल बादशाह बाबर ने भी की
मां भारती के सत्तर हजार योद्घाओं ने जब मुगल सेना को काटना आरंभ किया तो मुगल सेना को अपार क्षति होने लगी। बड़ी संख्या में मुगल सेना का अंत किया जाने लगा।
ब्राह्मण देवीदीन पाण्डे ने मातृभूमि के ऋण से उऋण होने के लिए अपने अदभुत शौर्य और साहस का परिचय दिया। उनके वीरतापूर्ण कृत्यों को देखकर स्वयं बाबर को भी आश्चर्य हुआ था।
बाबर ने खुद उसके बारे में लिखा है-‘‘जन्मभूमि को शाही अख्तियारात से बाहर करने के लिए दो चार हमले हुए, उनमें से सबसे बड़ा हमलावर देवीदीन पाण्डे था। इस व्यक्ति ने एक दिन में केवल तीन घंटे में ही गोलियों की बौछार के रहते हुए भी शाही फौज के सात सौ व्यक्तियों का वध किया। एक सिपाही की ईंट से उसकी खोपड़ी घायल हो जाने के उपरांत भी वह अपनी पगड़ी के कपड़े से सिर बांधकर इस कदर लड़ा कि किसी बारूद की थैली को जैसे पलीता लगा दिया गया हो।’’
देवीदीन पाण्डे की वीरता का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि उसका परम शत्रु बाबर भी उसकी प्रशंसा में ऐसे शब्द लिखने के लिए विवश हो गया।
बाबर का सेनापति मीर बकी खां हो गया था प्राण बचाने के लिए व्याकुल
अब चलेंगे रणांगन की ओर। देवीदीन पाण्डे के सिर पर पगड़ी बंधी थी, सिर तो फूटा था, पर वीर का साहस नही टूटा था। मीर बकी खां इस वीर की अदभुत वीरता और अनूठे शौर्य को देखकर उसे अपने लिए साक्षात काल रूप मान रहा था। वह उस साक्षात यमराज से अपने प्राण बचाने के लिए बहुत ही व्याकुल हो उठा था। मैदान से भाग भी नही सकता था और देवीदीन पाण्डेय के प्रहारों से बचना भी उसके लिए अब कठिन होता जा रहा था।
मीरबकी खां भयभीत होकर छुप गया हाथी के हौदे में
देवीदीन पाण्डे के लिए भी मीर बकी खां ही अपना प्रमुख शत्रु था, क्योंकि उसके दुराग्रह के कारण ही बाबर ने युगों से भारत के पौरूष और मर्यादा के प्रतीक रहे मर्यादा पुरूषोत्तम राम के मंदिर को तोडऩे का निर्णय लिया था।
अब बकी खां को अपने किये पर पश्चात्ताप होने लगा था। उसे देवीदीन पाण्डे के शौर्य ने अपने ‘पापबोध’ से इतना लज्जित किया कि वह भयभीत होकर अपने हाथी के हौदे में जा छिपा। उसको उस समय अपने प्राणों का भय सताने लगा। उसने आज देवीदीन पाण्डेय के रूप में आर्यों का पुरातन और परंपरागत पौरूष जो देख लिया था।
उस आर्यपुत्र देवीदीन पाण्डे को लड़ते हुए अचानक शत्रु की तीन गोलियों ने अमर कर दिया।
देशभक्त देवीदिन पांडे अपने तेज प्रताप के साथ जीवित रहा, तेजस्विता के साथ लड़ा और तेजस्विता के लिए ही अमर हो गया। चारों ओर बृहद शोक की लहर व्याप्त हो गयी। यह घटना 9 जून 1528 ई. की है।
मरने से पूर्व देवीदिन पांडे कर गए थे मीर बकी खां को धराशाई,मां भारती का यह अमर पुजारी अपनी परमगति से पूर्व मीर बकी खां को इतना गंभीर रूप से घायल कर गया था कि वह पृथ्वी पर जा गिरा था और अचेतावस्था में पड़े मीरबकी खां को उसके सैनिक किसी प्रकार उठाकर अपने शिविर में ले जाने में सफल हो गये। कहने का अभिप्राय है कि देवीदीन पाण्डे अपने मरने से पूर्व अपने शत्रु को मार चुका था, यह अलग बात है कि मीरबकी खां मरा नही था।
देवीदीन पाण्डे को श्रद्घांजलिप्रताप नारायण मिश्र ने लिखा है-‘‘पर वाह रे मेरे शेर (देवीदीन पाण्डे) फूटे हुए सिर को पगड़ी से बांध बाघ के समान सामने खड़े मीर बकी खां पर झपट पड़ा। आक्रमणकारी अंगरक्षक का तो उन्होंने पहले ही सिर धड़ से अलग कर दिया था। मीर बकी खां हक्का-बक्का सा आंखें फाड़े इस अद्वितीय महामानव के पैंतरे को देखता रह गया। उसकी जान को लाले पड़ गये। जान बचाना दूभर हो गया, तो यह आभास होते ही वह घबराकर हाथी के हौदे में जा छिपा। उसकी घिग्गी बंध गयी। बुझते हुए दीप की यह अंतिम लौ थी, यह पाण्डे समझ गया था। मीर बांकी खान का अंत होना सन्निकट था, पर उसका भाग्य प्रबल था। उसके हाथ में भरी हुई बंदूक थी तीन बार की ‘धांय-धांय-धांय’ की आवाज हुई। गोली पाण्डे के वक्षस्थल को चीर गयी। पाण्डे की तलवार का प्रहार चूक चुका था। प्रहार चूककर महावत और हाथी पर जा पड़ा। दोनों ढेर हो गये। पलक झपकते ही यह क्रिया पूर्ण हो गयी। मीर बकी खान गंभीर रूप से घायल पड़ा था। किसी प्रकार कुछ बचे-खुचे सिपाही उसे वापस जीवित ले जा सके। एक और ‘अभिमन्यु’कर्तव्य की वेदी पर बलि हो गया। मुस्लिम सेना की अपार क्षति हुई थी। जिसके फलस्वरूप 4-5 माह तक जन्मभूमि की ओर आने का वे साहस नही कर पाये थे।
इतिहास के पन्नो से साभार
