वह स्त्री थी या ज़िन्न ? । Wah Stree Thi Yaa Zinn ?
वह स्त्री थी या ज़िन्न ? । Wah Stree Thi Yaa Zinn ?
जब से फैक्ट्री में मेंरी दूसरी पाली की शिफ्ट ड्यूटी लगी थी, तब से रात्रि मेंं घर जाने में काफी देर हो जाया करता था। ऑफिस से घर की दूरी यही करीब एक किलोमीटर की रही होगी।
जब तक बहुत जरूरी ना हो, रात में घर आने-जाने के क्रम मेंं रास्ते में पड़ने वाली सुनसान गालियां, जिनसे होते हुए घर जल्दी पहुँच तो सकता था, पर उन गलियों को पकड़ना मैं पसंद न करता था।
क्यूंकि एक तो वहाँ घात लगाकर बैठे चोर–उचक्कों का खतरा रहता, तो दूसरी तरफ कुत्ते बहुत भौकतें थें उधर – जिससे मुझे डर लगता था।
इसलिए, हमेंशा पक्की सड़क वाले मुख्य मार्ग से ही घर जाया करता।
उस रात हवा बहुत तेज़ चल रही थी और शायद ज़ोरों की बारिश भी होने वाली थी।
“रात के करीब 12 बजे हैं, बच्चे भी सो गए होंगे। पत्नी, निर्मला भी मेंरे बिना खाना नहीं खाती, सो खाली पेट मेंरी राह देखती होगी।” - यही सब सोचते और टिफिन बॉक्स हाथ में लटकाए मैं तेज़ कदमों से घर की तरफ निकल पड़ा।
कुछ दूर चलने के बाद आज उस संकरी और कच्ची गली की राह ले लिया ताकि जल्दी से घर पहुँच जाऊं।
इतनी रात और ऊपर से यह सुनसान और संकरी गली, मुझे डर भी लग रहा था क्यूंकि कुत्ते सतर्क होते दिखने लगें- मानो कोई अनजाना, अनचाहा मेंहमान आ रहा हो उनकी तरफ।
वैसे मानव हो या ये कुत्ते – बिन-बुलाये मेंहमान किसी को पसंद नहीं आते।
अपने इलाके में रात मेंं आने-जाने वाले हरेक इंसान को पहचानते हैं ये जानवर।
किसी तरह मैं डर – डर के आगे बढ़ता रहा।
चोरों का ख्याल मन में आते ही मुझे मेंरी शादी में मिली वो कलाई घड़ी खोल कर मैंने जेब में डाल ली।
सासु माँ की अमानत – वह घड़ी, उनकी आन-बान-शान थी, जिसका कुशल-क्षेम वो अक्सर पूछ ही लिया करती थीं, और सुनहरे रंग की उस घड़ी की उच्च गुणवत्ता से सभी को परिचित कराने मेंं गौरवान्वित महसूस करते उनके चेहरे पर उठता वो चमक देखते ही बनता था। नहीं चाहता था कि मेंरी पूजनीय सासु माँ के मन को तनिक भी ठेस पहुंचे।
इधर, गली मेंं भीतर की ओर बढ़ने पर अब वह संकरी हो चली थी। दो से तीन आदमी एक साथ आ जाएँ तो आगे-पीछे होकर चलना पड़ता।
फिर सड़क कच्ची भी थी और कहीं-कहीं से टूटी–फूटी सो अलग। बहुत धैर्यवान होंगे इस गली मेंं रहने वाले, जो इन रास्तों से रोज आते-जाते होंगे।
मैं महसूस कर रहा था कि दो चीजें इस वक़्त तेज़ी से चल रही हैं – एक तो दिमाग मेंं ढेर सारी बातें और दूसरे इस गली में मेंरे क़दम।
थोड़ा चलने के बाद एक मोड़ आया, जहां एक मस्जिद पड़ता है। मस्जिद के ऊपर लगे बड़े भोपू वाले लाउडस्पीकर के अलावा उस अँधियारे मेंं और कुछ भी बड़े ही मुश्किल से दिख पा रहा था।
पर, मैं महसूस कर पा रहा था कि अब बड़ी अच्छी भीनी सी खुशबू आ रही थी वहाँ ! साथ ही, ठंड भी अब थोड़ी–थोड़ी बढ़ने लगी थी।
अपने धुन में मैं अपने गंतव्य की ओर बढ़ता चला जा रहा था।
थोड़ा ही आगे बढ़ा था कि पीछे से किसी के कदमों की आहट सुनाई देने लगी। अभी तक कोई तो न था मेंरे आस-पास, यकायक यह किधर से आ गया ? कौन है ये ? कोई कुत्ता, कोई चोर, या फिर मेंरा भ्रम !
डर भी लग रहा था....न लूटना चाहता था मैं, और ना ही इंजेक्शन लेने का मन था ! इसी डर मेंं मेंरे क़दम और तेज़ होने लगे।
अभी भी कदमों की वो आहट मेंरा पीछा कर ही रही थी।
अभी तो यह गली भी खत्म नहीं हुआ था ...... थोड़ा और समय लगता इसे पार करने मेंं।
अब मुझसे रहा न गया और बहुत हिम्मत कर के पलटकर देख ही लिया।
सफ़ेद साड़ी मेंं लिपटी वह एक स्त्री थी, जो तेज़ कदमों से मेंरी ओर बढ़ी चली आ रही थी।
अपनी तरफ आती उस स्त्री को देखकर ही साफ प्रतीत हो रहा था कि वह भी तेज़ी से इस सुनसान अंधेरी गली को ही पार करना चाह रही है।
सफ़ेद साड़ी पहने होने के कारण उसे अंधेरे मेंं देख पाना आसान था।
अब मुझे थोड़ा इत्मीनान हुआ और शांत मन से आगे बढ़ता रहा।
तभी, ऐसा महसूस हुआ कि वह स्त्री बिलकुल मेंरे पीछे आकर खड़ी हो गयी हो और मुझे आवाज़ दे रही है –“थोड़ा रुकिए”।
मैं पीछे पलटा। सच मेंं वह कुछ कहना चाह रही थी। बड़ी-बड़ी आँखें, चेहरे पर अजीब सा तेज़ – जैसे कोई अप्सरा हो !
सफ़ेद साड़ी में खड़ी वह स्त्री अंधेरे को चीरती हुई अपनी एकमात्र उपस्थिति दर्ज़ करा रही थी।
मैने पूछा – “जी, कहिए क्या बात है” ? जवाब में उस स्त्री ने निवेदन किया कि “कृपया साथ–साथ चलिये। बहुत अंधेरा होने के वजह से मुझे डर लग रहा है”।
मैंने सहमति मेंं अपना सर हिला दिया। अब हमदोनों एकसाथ आगे बढ़े जा रहे थें।
इतनी रात गए इस सुनसान गली मेंं, वो भी अकेले घर से बाहर निकालने का कारण मैंने उनसे पूछा। परन्तु, कोई उत्तर ना मिला। मैं चुप रहना ही बेहतर समझा।
कुछ पल के बाद जवाब आया, “मेंरा घर पीछा मोड़ पर ही है, किसी कि ज़िंदगी-मौत का सवाल है, इसलिए मुझे अभी निकालना पड़ा। मुझे आप सही आदमी लगे, इसलिए मैं आपके पीछे-पीछे हो ली।”
किसी अंजान पर इतनी रात मेंं भरोसा करने की बात सुनकर थोड़ा अजीब लगा, पर कभी-कभी जरूरत पड़ने पर ऐसा करना पड़ता है – मैं समझ सकता था। और...हमलोग साथ साथ आगे बढ़ते रहें।
तभी उस स्त्री ने अपना हाथ मेंरी ओर बढ़ाया।
उसके हाथों मेंं एक चमकती हुई अंगूठी थी। “यह क्या है” – मैंने पूछा ? स्त्री ने जवाब दिया - “इसे आप पहन लीजिये, आपके काम आयेगा। यह आपको डर से ऊपर ले जाएगा और बूरी ताकतों से बचाएगा”।
उन्हे साफ–साफ इंकार करते हुये मैंने खुद को उस अंगूठी से दूर किया और थोड़ा पीछे खिसक गया।
“देखिये, ऐसा है कि मैं इन सब बातों मेंं यक़ीन नहीं करता। अतः, आप कृपया करके इसे दुर रखे मुझसे।”
मैंने बेरुखीपूर्वक जवाब देकर उस अंगूठी को लेने से साफ इनकार कर दिया।
मैंने एक बात गौर किया कि मेंरे इतने बेरुखीपूर्ण रवैये के बाद भी उनका चेहरा बिलकुल शांत था। और इतने बेरुखीपूर्ण अस्वीकृति से वह थोड़ा भी विचलित नही हुई। मुझे पता नहीं क्यूँ, ग्लानि भी हो रही थी। पर, मैं जानता था कि मैं जो भी कर रहा था, सही कर रहा था।
गली भी अब खत्म होने को थी, और पक्की सड़क मैं अपने सामने देख सकता था।
तभी वह स्त्री रुक गयी और मुझसे आगे बढ़ते रहने के लिए कहा।
“कुछ जरूरी वस्तु छुट गई है, इसीलिए उसे वापस जाना पड़ेगा।” – स्त्री ने मुझसे जाने को कहा और खुद वापस लौटने लगी।
मैंने उसके साथ चल कर उसे घर तक छोडने की बात कही तो शुक्रिया कहते हुए उन्होने मना कर दिया। तब, एक-दूसरे को अलविदा कहते हुये हम अपने - अपने गंतव्य की ओर बढ़ चलें।
घर आकर हाथ-मुह धोया। मेंरा पूरे बदन दर्द से दुख रहा था और बुखार भी था, शायद हल्का–हल्का। निर्मला भी मुझे देख कर जाग गई थी। मुझसे खाना खाने के लिए पुछी तो मैंने मना कर दिया और उसे खा लेने बोलकर लेट गया। और लेटते ही न जाने कब नींद आ गयी, पता ही नहीं चला।
अगले दिन, फिर अपनी दिनचर्या शुरू हो गयी।
तड़के–तड़के उठकर सुबह का व्यायाम। नहा धोकर बेटे को विद्यालय पहुँचाना। नाश्ता कर के फिर ऑफिस को भागना।
काम के दबाव से कब सुबह से दोपहर हो गया, पता ही न चला। मेंरे सहकर्मियों ने खाना खा लेने को कहा।
हमलोग आपस मेंं बतियाते हुए खाना खाने लगें। बातचीत के क्रम मेंं सामने वाले की अंगूठी देख मुझे बीती रात की घटना याद आ गयी।
बीती रात की घटी सारी घटना मैंने उन लोगों को बताई।
फिर क्या ! सबको खिंचाई करने का जैसे बहाना मिल गया हो - तुम इतने स्मार्ट हो ही , तुमसे सगाई करना चाहती होगी, गिफ्ट समझ कर रख लेते, आदि – तरह तरह की बातें करने।
जल्दी-जल्दी अपना खाना खत्म कर वहाँ से खिसकना ही मैने बेहतर समझा। और फिर अपने काम में लग गया।
मुझे भी कहीं से सहकर्मियों की उलजलूल बातें सही प्रतीत होने का गलतफहमी हो रही थी कि सच मेंं शायद मैं अच्छा लगा होगा, इसलिए वह अंगूठी मेंरे तरफ बढ़ाई होगी। और.... मैं अपने काम में व्यस्त हो गया।
दैनिक उत्पादन का दबाव ज्यादा होने के कारण आज भी रात के 12 बज गए।
पर, आज साथ मेंं एक सहकर्मी भी था, जो घर वापसी मेंं मेंरे साथ साथ हो लिया।
थोड़ी दूर तक साथ चलने के बाद वो अपने घर के लिए दूसरी तरफ मूड़ गया।
और मेंरे आँखों के सामने फिर से वही संकरी गली थी।
मैं उधेड़बून मेंं था कि क्या करूँ , क्या ना करूँ।
आज फिर से उसी गली में घुस गया, जैसे कोई मुझे बुला रहा हो या मै खुद से जाना चाहता था, पता नहीं !
हाथ मेंं टिफिन बॉक्स लिए मेंरे कौतुकपूर्ण क़दम धीरे–धीरे आगे बढ़ते जा रहे थें।
आज कुत्ते नहीं दिख रहे थें। कहाँ गए सब ? बहुत अजीब बात है- एक दिन मेंं इतने परिचित हो गए यह बेज़ुबान जानवर मुझसे।
मस्जिद वाली मोड़ से घूमा और थोड़ा आगे बढ़ा ही था। तभी, पीछे से आवाज़ आई – “ज़नाब, जरा ठहरिए।
मैं ठिठका।
पलट कर देखा, लहराते हुए सुनहरे बालों वाली यह वही महिला थी, जो पिछले दिन मिली थी।
लंबी सी बिंदी लगाए काली साड़ी मेंं, चेहरे पर एक तेज़ लिए हुए, मस्जिद के पास खड़ी मुस्कुरा रही थी।
इतने अंधेरे मेंं भी एक प्रकाश था उसके चारो तरफ। अजीब सा एक आकर्षण था उसके चेहरे पर।
“आज भी आपकी मदद चाहिए मुझे, मिलेगी ?” – उस स्त्री ने एक मुस्कान के साथ कहा।
मैं हाँ बोलूँ या ना – कुछ समझ में नहीं आया। फिर भी, हामी में सर हिला दिया। वह मेंरे साथ हो ली।
आज चुप नहीं थी वह। बोले ही जा रही थी – जैसे मेंरा ही इंतज़ार कर रही हो कि क्या क्या बताना है , पुछना है – मानो ! सब पहले से ही सोच रखी हो।
मैं कौन हूँ, कहाँ रहता हूँ, घर पर कौन कौन हैं, मेंरी पसंद – नापसंद, वगैरह–वगैरह – सवालो के तीर एक-एक करके वो फेंकती ही जा रही थी।
इसी तरह सवालों का जवाब देते हुए उसके कदम से कदम मिलाए आगे बढ़ा जा रहा था।
इतनी रात मेंं अकेले घर से बाहर निकलती हो, किसी को साथ लेकर निकलना चाहिए, मैंने उस स्त्री से कहा।
मैंने उससे सवाल किया – “आप कहाँ रहती हो ? घर पर कौन कौन है? ”
इसपर वह हंस कर बस यही बोली कि क्या करिएगा जानकर ? बस जब मिलना हो, इसी वक़्त इस गली से गुजरना, मैं दिख जाऊँगी और ठहाके मार कर हंसने लगी।
मुझे बहुत ही अजीब लग रहा था यह सब और उसका ऐसा जवाब।
बातें करते हुए हम दोनों आगे बढ़े जा रहे थें।
उसने अपने कांधे पर लटकाए एक थैले मेंं हाथ डाला और कुछ निकाली। उसने अपनी मुट्ठी बंद कर रखी थी।
कुछ तो था उसके हाथों में – क्या था, मैं कुछ समझ नहीं पाया।
और फिर, मुझे मेंरा हाथ आगे बढ़ाने को कहा।
मैंने प्रश्न किया –“क्या है इसमें ?” मुस्कुराकर बस वह मुझसे मेंरा हाथ आगे करने का ज़िद्द करने लगी। जिसके लिए मैं बिलकुल तैयार न था।
जब अपनी बंद मुट्ठी उन्होने न खोली तो मैंने भी साफ-साफ मना कर दिया कि “हमलोग कितना जानते हैं – एक दूसरे को। और ऐसे ही किसी अंजान से बंद मुट्ठी से मैं तो कुछ ना लूँगा”।
जब मैं नहीं माना, तो अंततः उन्होने अपनी बंद मुट्ठी खोली। वही अंगूठी थी उसके हाथों मेंं, जो पिछली रात उन्होने मुझे पहनाने की असफल कोशिश की थी।
मैंने उन्हे समझाया कि अगर आप दिन मेंं यह देती तो मैं शायद लेने के लिए सोचता भी। पर इतनी रात गए और ऊपर से यह अंगूठी देखने मेंं ही बहुत कीमती लगती है। इसलिए, आप मुझे माफ करें, मैं इसे बिलकुल भी नहीं ले सकता।
मेंरा न मेंं जवाब सुनकर उस स्त्री की आँखें तंज़ हो गयी और अजीब तरीके से घूरती हुई निगाहों से मुझे बोली कि मैं आपकी पूरी ज़िंदगी खुशहाल बनाना चाहती हूँ और आप हो कि अपनी अभावपूर्ण ज़िंदगी से बाहर निकलना ही नहीं चाह रहे हो।
“आप इस अंगूठी को एकबार पहनकर तो देखो, आपको एक नयी और बिलकुल अलग ही दुनिया दिखेगी। सारे दुख-तकलीफ़ों से ऊपर।” - अपनी तीखी होती आवाज़ से उसने मुझे बताया।
पर, मैं तो उनकी एक भी बात सुनने या मानने को तैयार न था।
ऐसे ही करते-करते हम दोनों गली के आखिरी छोर पर पहुँच गये।
अब, वह स्त्री बिलकुल एक जगह स्थिर हो गई और मुझे आगे बढ़ते रहने को कहकर खुद वापस अपने घर लौटने के लिए मुड़ी।
“क्या हुआ, आप वापस क्यूँ जा रही हो ? ” –मैंने प्रश्न किया। मेंरे प्रश्न का बिना कोई जवाब दिए वह लौटने लगी।
मुझे उसका ऐसा रवैया बहुत ही विचित्र लगा कि जब उसे कहीं जाना ही न था तो आखिर क्यूँ आयी मेंरे साथ गली के इस छोर तक !
हाँ, लौटते वक़्त मुझे केवल एक बात कह गयी कि जब कभी मिलना हो या यह अंगूठी चाहिए तो इस गली से गुजरना, मैं आपको मिल जाऊँगी।
मैं कुछ न बोला और तेज़ी से उस गली से बाहर मुख्य मार्ग पर आ गया।
बाहर, स्ट्रीट लाइट की दूधिया रोशनी से समूचा सड़क नहाया हुया था।
हालांकि, रास्ते मेंं इक्का-दुक्का लोग ही आते-जाते दिख रहे थें।
पर, अब मैं थोड़ी राहत महसूस कर रहा था। जो कुछ भी अभी घटित हुआ, उसे लेकर मन मेंं सौ सवाल भी उठ रहे थें।
वो स्त्री ऐसा क्यूँ कर रही थी ? ऐसा क्या था उस अंगूठी मेंं, जो मुझे देने और पहनाने को इतना आतूर थी वह ? - यह सब सोचते-सोचते मैं घर पहुँचा।
आज फिर से मुझे तेज़ बुखार हो गया था। निर्मला से दवाई मांगा और खाकर बिछावन पर लेट गया।
निर्मला खाने खाने को आवाज लगायी, तो मैंने मना कर दिया।
वह पास आकर बैठी। सिर दबाते हुये उसने पूछा कि दो दिनों से आपकी तबीयत ठीक नहीं लग रही मुझे। कल चलकर डॉक्टर से दिखा लीजिये।
और फिर मुझे थका हुआ देख कर ज्यादा कुछ न बोली।
अगली सुबह जब उठा तो मेंरा सिर भारी लग रहा था। सो, बिछावन पर लेटा ही रह गया।
बच्चों को आज स्कूल भी नहीं पहुंचा पाया। निर्मला को ही उन्हे स्कूल छोड़ने को जाना पड़ा।
अपने रसोई के कुछ काम खत्म करके वह मेंरे सिराहने आकर बैठी, और पुछी- “क्या बात है, इतना चिंतित क्यूँ हैं ? कल रात भी आप बहुत परेशान दिख रहें थें।”
तब मैंने उसे बीते दो दिनों से उस गली मेंं मेंरे साथ घट रही सारी घटना के बारे मेंं बताया।
मेंरी बातों को सुनकर उसने मुझे भरोसा दिलाया कि चिंता मत करो, कुछ नही होगा, सब ठीक हो जाएगा।
फिर वो अपने गृह कार्य में तल्लीन हो गयी।
मैं भी आँखें बंद कर बिछावन पर ही लेटा रहा।
थोड़ी देर बाद, निर्मला आवाज लगायी कि नहा धोकर तैयार हो जाओ, घर पर किसी को बुलाया है।
मैंने पूछा – किसे ? उधर से आवाज आयी, जब आएंगे तो खुद ही देख लेना।
एक घंटे बाद हमारे परिवार के पुरोहित जी की दरवाजे पर दस्तक हुई।
हम दोनों ने उन्हे चरणस्पर्श किया। पत्नी उन्हे बैठने के लिए कुर्सी दी।
पुरोहित जी बड़े ही ध्यान से मुझे देख रहें थें।
निर्मला, पुरोहित जी के लिए कुछ जलपान लेकर लायी।
जलपान करने के पश्चात थोड़ी देर तक इधर-उधर की बात करने के बाद पुरोहित जी ने मुझे अपने पास बुलाया और सिर पर हाथ रख कर अपनी आँखें बंद की।
फिर पिछले दो दिनों मेंं मेंरे साथ जो भी घटित हुआ, उसके बारे मेंं विस्तार से पूछा।
मैंने उन्हे सारी बातें बतायी। पुरोहित जी का चेहरे पर तनाव मैं साफ–साफ देख सकता था।
पुरोहित जी ने अपने थैले से भभूत निकाला और मेंरे ललाट पर लगाया।
वही बैठी पत्नी ये सब बहुत ध्यान से देख रही थी।
“तुम्हारी मुलाक़ात एक जिन्न से हुई थी” – पुरोहित जी ने बताया।
गली के उस आखिरी छोर तक ही उसका दायरा था। इसीलिए वह उससे आगे नहीं बढ़ी।
अचानक से हवा मेंं फैला वो तेज़ सुगंध, ठंड का एहसास और कुछ नही - उसी ज़िन्न की उपस्थिति का प्रमाण है।
उस अंगूठी के माध्यम से वह तुम्हें अपनी दुनिया मेंं ले जाना चाहती थी। जिसे अगर तुम पहनने की गलती कर लेते, तो बहुत बड़ा अनिष्ट हो जाता।
यह सुनकर मैं तो भीतर तक काँप गया। निर्मला ने मेंरा हाथ थामकर मुझे शांत किया।
पुरोहित जी ने कहा कि अब भयभीत होने की कोई बात नहीं है। अब कोई खतरा नहीं है।
पर हाँ....एक बात हमेंशा ध्यान रखना कि चाहे कुछ भी हो जाए, रात्रि में भूलवश भी उस गली से मत जाना।
क्यूकि अभी तक वह ज़िन्न तुम्हें अपनी सुंदरता और प्यार से आकर्षित करके और केवल मात्र अंगूठी के सहारे ही अपने साथ ले जाने की कोशिश कर रही थी। और, तुम खुशकिस्मत हो कि तुम गली की आखिरी छोर यानि उसका दायरा जहां खत्म होता है – वहाँ पहुँच गए थे। इसीलिए वह ज्यादा कुछ न कर सकी और उसे वापस लौटना पड़ा।
तभी मैंने पुरोहित जी को टोका –“पर, पंडित जी उस गली मेंं तो इतने सारे लोग रहते हैं। उन सबका क्या ?
पुरोहित जी ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया – “अच्छा ये बताओ, उस वक़्त.....क्या तुमने किसी और इंसान को देखा था उस गली मेंं, उस ज़िन्न के सिवा ? नहीं न ! लोगों को इस बात की जानकारी होने के वजह से रात्रि के वक़्त कोई नहीं निकलता। केवल कुत्ते ही दिखते है।
मैंने पुरोहित जी को रोकते हुये बोले – “मुझे एक बात बहुत अजीब सी लगी। पहले दिन जब मैं उस गली मेंं प्रवेश किया तो ढेर सारे कुत्ते थें, जो मुझे गली मेंं आते देखकर ही भौकने लगे। पर, जब अगले दिन मैं फिर से उसे गली मेंं घुसा तो एक भी कुत्ते नहीं थें।” तो क्या..... ?
और बोलते – बोलते मैं चुप हो गया। मुझे स्वयं ही उसका मतलब समझ मेंं आ गया था।
“जी हाँ, तुम सही समझे। उसी ज़िन्न का ही प्रभाव था यह। ज़िन्न बहुत शक्तिशाली होते हैं। वह किसी पर भी अपना प्रभाव आसानी से छोड़ सकते हैं। और बहुत ही आसानी से किसी को भी अपने वश मेंं कर सकते हैं। तुम बहुत भाग्यशाली हो कि बच गए”- पुरोहित जी ने मुझे बताया।
“और हो सके तो कुछ दिन के लिए अपनी शिफ्ट ड्यूटी सुबह की लगा लो ताकि शाम होने से पहले घर आ सको” – पुरोहित जी ने कहा।
मैं तुम्हें यह ताबीज़ दे रहा हूँ। इसे हमेंशा पहनकर रखना, चाहे कुछ भी हो जाए, इसे उतारना मत – यह कहकर, उन्होने अपने थैले से एक ताबीज़ निकाली और मन ही मन मंत्र पढ़कर मुझे पहना दिया।
हम दोनों को सदा सुखी रहने का आशीर्वाद देकर पुरोहित जी चले गए।
मैं एक पढ़ा-लिखा इंसान था और ऐसी बातों पर आजतक कभी भरोसा नहीं किया। जैसा कि मैंने उस गली मेंं मिली उस स्त्री या तथाकथिक ज़िन्न को भी बताया था कि इन दक़ियानूसी बातों पर मैं यकीन नहीं करता।
मेंरा दिमाग पुरोहित जी के द्वारा कही बातों पर भी प्रश्नचिन्ह भी खड़ा कर रहा था। पर, उस गली मेंं मैंने जो भी अनुभव किया, उसे भी सामान्य नहीं कहा जा सकता।
परिस्थिति को देखने के नजरिया हर किसी का अलग-अलग होता है। हर इंसान, अपने हिसाब से परिस्थिति का आंकलन करता है – यह जरूरी भी नहीं कि वह आंकलन हर बार सच्चाई से हमेंशा मेंल खाता ही हो। अब सच क्या है ? – यह न तो मैं जानता था, और न ही पुरोहित जी ! यह तो भगवान को ही पता होगा !
हाँ....... एक बात तो थी कि मेंरे दिमाग मेंं जो बहुत सारे सवाल उठ रहें थें, उस गली मेंं घटी घटनाओं को लेकर और उस स्त्री के बारे मेंं। पुरोहित जी की कही बातों से मुझे उसका उत्तर तो मिला।
पर, अब मैं बहुत डर गया था। जिसके कारण भूलकर भी अब उस गली के भीतर तो नहीं जाने वाला था मैं !
......आज उस घटना के करीब 10 साल होने को हैं। उस गली के पास से मैं अनेक बार गुजरता हूँ, पर अब भी भीतर जाने की हिम्मत नहीं होती।
मन-मस्तिस्क में बस यही एक सवाल घूमता है कि सच मेंं “वह स्त्री थी या ज़िन्न” ?

