वह कौन था ?

वह कौन था ?

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वह सुबह की सैर पर था, पत्थर की टाइल्स से निर्मित ट्रैक पर धीमें धीमें चलता हुआ। वह पेड़ पौधे घास व अन्यों को निहारता जा रहा था। कुछ लोग उसके साथ भी चल रहे थे और कुछ आगे पीछे। वह चाहता था कोई रास्ता ऐसे मिले जिसमें कुछ सूनापन हो। वह साधारणतया भीड़ से बचने की कोशिश करता है। फिर भी अक्सर ऐसी परिस्थितिया बन जाती है कि वह चाहकर भी ऐसा नहीं कर पाता है। अभी वह कोई और रास्ता तलाश कर पाता कि उसे मोबाइल की रिंग सुनाई पड़ी। कुछ पल तो अहसास करने में लग गए कि रिंग अपने मोबाइल की है या किसी और की। जब पूरी तरह यकीन हो गया कि अपनी ही रिंग है तो उसने अटेंड कि


“हाँ हेलो!”


“आप, मृदुल श्रीवास्तव बोल रहे है?”


“जी हाँ” उसे अजनबी आवाज और अजनबी नंबर से कुछ अटपटा सा लगा था। वैसे तो उसके पास कई बार अजनबी नंबर आते रहते है। पाठक,संपादक या फिर किसी ग्राहक आदि के परन्तु ज्यादातर ग्यारह के बाद। इस समय कौन हो सकता है वह कुछ उलझन में आ गया था। दूसरी तरफ कौन हो सकता है?


“मै आनंद कुमार बोल रहा हूँ रश्मिप्रभा पत्रिका का संपादक”


“कहिये”


“मैने आपकी एक कहानी मैडम शास्त्री चिदंबरा पत्रिका में पढ़ी थी पत्रिका लेखक सोहन लाल के पास थी वे मेंरे परिचित है आप उन्हें जानते होंगे? बड़े प्रसिद्द लेखक है”


उसने दिमाग पे जोर दिया। वह ऐसे किसी भी नामधारी लेखक से अनभिग्न था। फिर भी उसने सहमति में सिर हिलाया।


“वे आपको जानते है”


“जानते होंगे” उसे कोई आश्चर्य नहीं हुआ था।


“आपकी कहानी काफी अच्छी लगी मै कहानी पढ़कर काफी प्रभावित हूँ”


     “शुक्रिया, जनाब!”

“मै आपसे मिलना चाहता हूँ अपनी पत्रिका के सम्बन्ध में । क्या मै आपसे मिल सकता हूँ?”

“अवश्य! कब?”

“आज शाम को? करीब ५ या ६ बजे ठीक रहेगा?”

“आज?” वह सोचने लगता है। छ: बजे तो वह ऑफिस से ही आ पाता है, इसके बाद ही उचित रहेगा।

“सात बजे ठीक रहेगा?”

“हाँ, हाँ ठीक, ठीक है मै समय पर हाजिर हो जाऊंगा” उसने तत्परता से कहा, जैसे कि वह अपना कही इरादा न बदल दे।

“एक बार अपना नाम फिर बता देते?” वह उसका नाम इस बातचीत में भूल गया था।

“आनंद कुमार रश्मिप्रभा पत्रिका का संपादक”


आनंद कुमार रश्मि प्रभा पत्रिका मासिक पत्रिका के संपादक आज शाम को ७ बजे मिलने आयेगे उसने मन ही मन दोहराया।


शाम के सात बज रहे है। वह अपने ड्राइंग रूम बैठा उनका इंतज़ार कर रहा था। वह उसका नाम फिर याद करने कि कोशिश में, अपने को असफल पा रहा था। प्रकाश राज विजय कुमार भारत दास। नहीं नहीं ये भी नहीं शायद सेवक राम? खैर देखा जायेगा जब आयेगा खुद परिचय देगा तो याद आ जायेगा। फिर उसने पत्रिका का नाम सोचना शुरू किया। वह भी विस्मृत हो रहा था उसकी याददास्त में जानकारी में ऐसी किसी पत्रिका और संपादक का नाम उसने पहली बार सुबह ही सुना था।

रात के आठ बजने को हो आयें थे। इंतज़ार में ऊब घुसने लगी थी। उसने सोचा कि शायद कही रास्ता न भटक गया हो? उसने गेट तक चलकर देखने का मन बनाया। उसने उसका पता और और फ़ोन नम्बर चिदंबरा पत्रिका से नोट कर लिया था, ऐसा उसने बताया था। उसने मुलाकात में आने से पहले ही दो बार पता बोल कर सुनिश्चित कर लिया था कि उसका नोट किया पता सही है कि नहीं।


वह गेट पर खड़ा था। एक ढीली ढाली शर्ट-पेंट के साथ। उसने सर पर एक सफ़ेद कैप लगा रखी थी, जैसे कि क्रिकेट खिलाडी लगाया करते है। उसके पैरों में काली सैंडल थी जो शायद अपना रंग खो चुकी थी। उसके चेहरा क्लीन शेव था और उसमें गंभीरता के भाव नदारद थे। वह अपनी उम्र से कुछ ज्यादा ही दिख रहा था। उसके घंटी बजाने से पूर्व ही वह गेट तक आ चुका था। वह अपनी गोल गोल आँखों से इधर उधर ताक रहा था। उसे आता देखकर उसने घंटी नहीं बजाई और अपनी निगाह उस पर केन्द्रित की। उसकी आँखों में उत्सुकतता उतर आई थी।


“कहिये?” उसने गेट के भीतर से ही कहा।


“मृदुल श्रीवास्तव का घर यही है?”


“जी हाँ। आईये” उसने गेट खोलते हुए कहा। उसने सोचा वही होगा।


“आप?”


“मै ही हूँ”


उसने फिर और कुछ नहीं पूछा। दोनों ने हाथ मिलाये। वह उसे लेकर ड्राइंग रूम में लाकर ससम्मान बैठाया। वह अपने साथ एक बड़ा सा काला बैग लाया था। उसमें से एक पत्रिका निकाली परन्तु उससे भी पहले उसने अपना विजिटिंग कार्ड निकला जो उसकी शर्ट की उपरी जेब में रखा था। वह यह अनुमान लगाने में विफल रहा कि उसने पहले क्या निकाला? उसे लगा कि वह निर्णय नहीं कर पाया था कि पहले क्या भेंट करें? हड़बड़ी में उसने दोनों एक साथ पेश कर दिये। उसने पत्रिका रश्मिप्रभा और कार्ड दोनों को टेबल पर रख दिए। उसने एक बार फिर अपना परिचय दिया। अबकी बार उसने पत्रिका का प्रकाशक होना भी उसे बताया। उसे कोई आश्चर्य नहीं हुआ था। अक्सर ऐसा होता देखता आया था। उसने एक बार फिर मैडम शास्त्री कहानी की तारीफ की और कहाँ पढ़ी थी और उन लेखक का जिक्र किया। उसने कोई विशेष प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की।

 वह एकल सोफे में उसके सामने बैठा था। वह कोई मौका तलाश रहा था कि वह उसके साथ बैठ सके, मृदुल त्रिसीट सोफे में बैठा था।

“वहां आपके पास बैठते है बातचीत में आसानी रहेगी”

“हाँ हाँ क्यों नहीं?” उसने इशारे से उसे अपने साथ बैठने के लिए आमंत्रित किया।


“देखिये मै तो नास्तिक हूँ। ये भगवान आदि कुछ होता नहीं है। राम,कृष्ण, शिव सब झूंठ है, पाखंड है। इनके अस्तित्व का प्रमाण नहीं है” यह कहकर वह उसकी प्रतिक्रिया देखने लगा। उसने कोई अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की। वह सिर्फ हल्के से मुस्कुरा कर रह गया और चुपचाप दूसरी तरफ देखने लगा। वह शंकित हो उठा कही कुछ अतिरिक्त तो नहीं कह गया।

“आप तो मानते होंगे भगवान् आदि को?” यह कहकर वह एक पल को रुका।

“कोई खास नहीं!” यह सुनकर उसका भाव बहुत उत्साहपूर्ण हो गया।

“जो कोई किसी देवी देवता को ईष्ट मानकर पूजा पाठ साधना करते है वह सिर्फ लाभ के लिए करते है, यह गलत है। लोग कहते है कि हमें श्रध्दा है। श्रध्दा क्या है किस कारण होती है? यह सिर्फ ढकोसला है, अपने स्वार्थ को सही साबित करने के लिए अपने ईष्ट में श्रध्दा किस कारण करते? मानव इस भ्रम में रहता है कि भगवान् सर्व सुख प्रदान करता है, संकट के समय श्रद्धालु की रक्षा करता। मनोकामनाएं पूर्ण करता है रोगी को स्वस्थ करता है भक्त को दीर्घायु बनाता है निर्धन को धन, अंधे को आँख और बाँझ को सन्तान देता है। दोस्त ऐसा कुछ नहीं होता है सिर्फ कार्य करने से होता है” और न जाने क्या उसने ऐसी कैसी कैसी बाते कही, उसे हंसी आ गयी।


वह उसे विष्मय से देखने लगा। उसे हंसी केवल इस बात पर आई थी कि वह इतना उत्तेजित होकर क्यों बोल रहा है,वह कोई उसका विरोध थोड़े ही कर रहा है। कुछ क्षणों के उपरांत वह देखता है कि मृदुल उसकी लायी पत्रिका को उलट पलट कर देखने में व्यस्त था। उसने उसके हाथ से पत्रिका ले ली और उसे अपनी तरफ रख दी। विजिटिंग कार्ड अकेला रह गया।

“यह सब गलत है, निरर्थक है?

“क्या?” वह कुछ भी नहीं समझा। उसकी तरफ प्रश्न भरी निगाहों से देखता रहा।

“मतलब, पूजा पाठ, धर्म कर्म, भक्ति आदि यह सब ब्राह्मणों के बनाये ढकोसले है। ठगने के उपकरण मात्र है । इससे करने से कोई फायदा नहीं होता है उन्होंने सिर्फ अपने फायेदे के लिए ये सब ढकोसले बना रखें है,जिससे कि उन्हें कोई काम न करना पड़े और उनका भरण पोषण अनवरत रूप से चलता रहें” उसका बोलना जारी था।


अकस्मात वह कमरे के बीच में खड़े हो जाते है मानो किसी भूली चीज को याद कर रहे हो। मृदुल कुछ देर तक उसे देखते रहे, मानो उसे पहचानने कि कोशिश कर रहे हो कि वह है क्या? वह किस काम से आया है?

“क्या बात है?” उसने कुछ सशंकित स्वर में पूछा।

“अंध श्रध्दा भक्ति से विचार विवेक शून्य हो जाता है, धीरे धीरे वह अंधविश्वास में बदल जाता है। लेखक को इससे सदैव परहेज करना चाहिए” यह कहकर शायद उसे संतोष मिला। अब वह फिर बैठ गया।

अब तक मृदुल ऊब गया था। उसे लगा कि वह जैसे अभी तक आधी नींद में था। उसने उसकी तरफ प्रश्नवाचक निगाहों से घूरा जिसमें यह स्पष्ट दिख रहा था कि क्या वह इसी काम के लिए आया था? उसने भांप लिया। कुछ देर तक वह मृदुल को देखता रहा मानो वह उसे पहचान पाने कि चेष्टा कर रहा हो।

“आप करते क्या है?” उसने पूछा। उसका स्वर धीमा था परन्तु उसमें दबी सी झुंझ्लाहट थी। फिर उसे अपनी झुझलाहट पर शर्म सी हो आई और उसने अपने चेहरे पर विनम्रता ओढ़ ली।

“मै हाईडील में एस. डी. ओ. हूँ। “ उसने उसके स्वर के भाव की उपेक्षा की।

“बहुत अच्छा, बहुत अच्छा अच्छी जॉब है तब तो आपको कोई आर्थिक समस्या नहीं होगी। एक तरह से संपन्न ही होगें?” उसकी आँखे असाधारण रूप से चमकने लगी थी। मृदुल को उसकी आँखों में लिप्सा नज़र आई जैसे किसी शिकारी को शिकार देख कर आती है। उसने झट से सिर नीचे को झुकाया और अपनी आँखे बदल ली।

“और आप?”

वह हकबकाया। उसका वाक्य कुछ देर हवा में टेंगा रहा। शायद उसे उसकी तरफ से कोई प्रश्न आने कि प्रत्याशा नहीं थी। परन्तु उसके लिए कुछ भी मुश्किल नहीं था। उसके भीतर बीभत्स विश्वास भरा था।

“अपना तो यही साहित्य शौक ही धंधा बन गया है” उसने अपनी पत्रिका उठाकर उसके सामने लहराया।


 “क्या मतलब” उसे कुछ समझ में नहीं आया।

“मै, डॉक्टरी कि पढाई कर रहा था। मगर मेंरी दिलचस्पी उसमें नहीं थी। मेंरा मन हिंदी साहित्य में रमता था। ऐसा वैसा साहित्य नहीं लोकप्रिय साहित्य, जैसा कि प्रेमचंद लिखा करते थे। हम अपनी पत्रिका में ऐसा ही साहित्य चाहते भी है जिसे आम आदमी पढ़ सके नाकि जयशंकर प्रसाद, मुक्तिबोध या अज्ञेय जैसा” कुछ पल वह रुके और फिर कही खो गए। देर तक वह उनके बोलने का इंतज़ार करता रहा।

“आप कुछ कह रहे थे?”

“कह रहा था, क्या कह रहा था? हाँ, याद आया। तो मेंरा डॉक्टरी में मन नहीं लगता था या शायद मेंरे बस में नहीं थी। इस कारण मै पहले साल के पहले सेमेंस्टर में ही फेल हो गया। मैने डॉक्टरी पढाई छोड़ दी और साहित्य सेवा करने का मन बना लिया। इसी में ही अपना कैरियर बना लिया” यह कह कर उसने रश्मिप्रभा को फिर उसके सामने रख दिया। उसने इस ढंग से पत्रिका मेंज पर रखी कि जो आवाज उभरी उसे अप्रिय लगी। एक अजीब सी कुटिल, भेदभरी मुस्कराहट उनके चेहरे पर चिपकी हुई थी। कुछ देर तक वे एक दुसरे को सिर्फ देखते रहे फिर दोनों ने अपनी भाव भंगिमा सहज की। मृदुल को उसकी डॉक्टरी कि पढाई वाली बात समझ से परे लगी।

“आप अपने डिपार्टमेंट में मेंरी पत्रिका लगवा सकते हो?” अचानक उसने यह प्रश्न उछाल दिया। वह अभी उसकी डॉक्टरी की पढाई वाली बात हज़म कर ही नहीं पाया था कि यह प्रश्न उसे पूरी तरह असहज कर गया।

“इसके लिए कृपया मुझे माफ़ करियेगा, यह मेंरे बस में नहीं है” उसने कुछ खीज भरे स्वर में जवाब दिया। वह तनिक संदेह भरी दृष्टि से उसे देखता रहा।


मृदुल कि पत्नी चाय और नास्ता ले आई थी। उसने कोई तकल्लुफी नहीं दिखाई। वह नाश्ते में जुट गया। इसी बीच वह उसकी पत्रिका को सरसरी नजरों से परखने लगा। कविता, कहानी और लेख सभी कुछ था। परन्तु उसे कोई परिचित लेखक नज़र नहीं आया। ज्यादातर लेखक अवकास प्राप्त लोग थे या गृहणियां। करीब करीब हर विधा में वह मौजूद था। उसे रश्मिप्रभा ब्यवसायिक पत्रिकाओं की भौड़ी नक़ल लगी।

अचानक उसकी नजर बाम पत्रिका पर पड़ी। उसने उसे देखने के लिए उठाया और बोला “यह कैसे?”

“इसमें मेंरी एक रचना छपी है” उसने उसे बतलाया।

वह चुपचाप उसे उलट पुलट कर देखता रहा।

“साधारण है। दाम चालीस रुपये सादे कागज पर छपी है मुखपृष्ठ का चित्र तो देखो? अमूर्त है!” उसने अपना पहलू बदला। उसके और निकट आया। “इससे काफी हद दर्जे की अच्छी मेंरी मैगज़ीन है। आर्ट पेपर है और मुखपृष्ठ कितना आकर्षक है” उसने अपनी पत्रिका कि तरफ इशारा किया। वह कुछ नहीं बोला सिर्फ मुस्कुरा कर रह गया। उसकी मैगज़ीन के कवर पर किसी फ़िल्मी अभिनेत्री का चित्र सुशोभित हो रहा था।

“मूल्य तो देखिये सिर्फ पचास रुपये है न कितने कम? साहेब हम पैसा खर्च करते है अपनी मैगज़ीन को सवांरने-सजानें में इसलिए हमारी पत्रिका में बड़े बड़े लिखते है, छपते है”

“फिर मेंरे पास किस लिए?” वह असमंजस में था।

“मुझे आपकी कोई रचना चाहिए, पत्रिका के लिए”

“ठीक है दे दूंगा” उसने उसे टालने की गरज से कहा। वह एक अजीब शंका से उसे देख रहा था।

“सर! मै उन्ही लोगो को छापता हूँ, जो मेंरी पत्रिका के ग्राहक होते है”

“अच्छा!”

“जी मेंरी पत्रिका का वार्षिक ग्राहक शुल्क है पंद्रह सौ रुपये और आजीवन है पंद्रह हज़ार। ऐसा करिए आप आजीवन सदस्यता ले लीजियेगा। पत्रिका आपको आजीवन, निर्बाध रूप से मिलती रहेगी और हर वर्ष सदस्यता लेने का झंझंट ख़त्म।


मृदुल चुपचाप उसकी बात सुनता रहा कुछ ऐसे एकाग्र भाव से जैसे कि उसके शब्दजाल में फंसने को तत्पर हो। हालांकि उसे काफी गुस्सा और क्षोभ हो रहा था। उसका कुपित भाव प्रगट न हो पाए इस कारण वह और अधिक ध्यान से बात सुनने का बहाना कर रहा था। जबकि उसके शब्द निर्जीव और बेनामी जान पड़ने लगे थे।

“फिर ले रहे है आजीवन सदस्यता?” वह अपनी धुन में था। उसने न कोई हामी भरी, न कोई नाखुशी प्रगट की।

“ओह! नहीं!” वाक्य इतने धीमें से निकला कि उसने कोई नोटिस नहीं लिया

वह अपनी धुन में था। उसके फंसाने का संगीत गूंज रहा था। सारा समय वह अपनी राग राँगनिया छेड़ रहा था। उसके विषय में कुछ पूछने या जानने का कोई तराना नहीं था।

“आप कहानियां लिखते है, तो कोई कथा संग्रह है?” अचानक उसने गियर बदला।

“हाँ, एक संग्रह पिछले साल निकल चुका है। “

“बधाई, बहुत अच्छा! आप उसे मुझे दे दीजियेगा। मै उसमें से कहानिया निकाल निकाल कर अपनी पत्रिका में छापता रहूँगा। आपके संग्रह की समीक्षा भी कर दूंगा और उसे भी अपनी पत्रिका में प्रकाशित करूँगा। मै समीक्षा भी करता हूँ । हमारी पत्रिका से आपको काफी प्रसिध्य और प्रचार मिलेगा। लोग आपको जानने लगेगे। लोकप्रिय पत्रिका में प्रकाशित होने का यही तो फायदा है कि आपकी पहचान हो जाती है”

“धन्यवाद्!” उसने ऊबे और उकताए स्वर में जवाब दिया। वह है क्या? उसकी जिज्ञासा बढती जा रही थी। परन्तु वह खाली नहीं हो रहा था। वह उन्हें देख नहीं रहा था। उसे कई काम निपटाने थे। मगर वह टलने का नाम नहीं ले रहा था।

“कोई और कथा संग्रह या उपन्यास प्रकाशित करवाना हो तो बताईगा, बड़े सस्ते में छाप दूंगा। मै प्रकाशक भी हूँ। उसने अपने बैग से एक लिस्ट निकाली और उसके सामने रख दी। उसने सरसरी नज़र से उसे देखा परन्तु उसे कोई साहित्यकार उस लिस्ट में नज़र नहीं आया जिसे वह जानता हो।

“कितने में?” उसकी ऑंखें लिस्ट से तैरती हुई उसमें अटक गयी। उसको उसकी बातों में रस आने लगा था।

“सिर्फ पंद्रह हज़ार रुपये में! और सारी सारी सौ प्रतिया आपको दे दूंगा। आप चाहे उसे बाँटों या बेचो” ही ही ही वह बेशर्मी से हँसने लगा।


“परन्तु मेंरा प्रकाशक तो मुझसे कोई दाम नहीं लेता है और पचास प्रतिया मुफ्त में देता है और साथ में बिकी प्रतिओं पर दस प्रतिशत रोयल्टी भी देता है।

“यह कैसे हो सकता?” उसंने हड़बड़हट में कहा।

“ऐसा ही है” उसके कथन में विश्वास था, जिसे नकारने कि सामर्थ्य उसमें नहीं थी।

उसे कोई प्रश्न सूझ नहीं रहता। मगर वह बातचीत कि कोशिश जारी रखना चाहता था। उसने बहुत झिझकते हुए पूछा, “आपने कोई उपन्यास लिखा है?”

“जी, हाँ! परन्तु वह राम रतन प्रकाशन संस्थान दिल्ली के पास पड़ा है। विगत तीन माह से, स्वीकृति का इंतज़ार है।

“इस प्रकाशन संस्थान को कौन नहीं जानता?” उसने कहा। यह कहकर वह कुछ मायूस हुआ। परन्तु उसे तुरंत ही संतोष हुआ कि अभी उपन्यास का प्रकाशन दूर है।

“क्या इन्होने ही आपका कहानी संग्रह छापा था?

“ नहीं, आनंद जी” उसने हँसकर कहा।

“अस्वीकृत की दशा में मुझे मौका दीजियेगा”

“आप तो पैसा लेंगे? मेंरे से यह संभव नहीं हो पायेगा” वह चुप हो गया। मृदुल ने धीरज की साँस ली।

“नहीं, उपन्यास के प्रकाशन कि बात नहीं है, मै सहभागिता कि बात करना चाहता था। मैंने एक फिल्म कंपनी बना रखी। उसमें एक फिल्म बना रहा हूँ “चांदनी रात”। उस फिल्म की दस प्रतिशत सूटिंग हो चुकी है। उसमें भी पैसे लग रहे है। फ़िल्मी कलाकारों को लाख लाख का भुगतान करना पडता है। कोई मुफ्त में तो काम नहीं करेंगा? अब श्रेया घोसाल मुफ्त में तो गायेंगी नहीं? उनको भी अनुबंधित कर रखा है। कुछ अपने लोग चाहेगे तो कोई रोल भी दे सकता हूँ” यह कहकर उसने उसकी तरफ बड़ी प्रत्याशा से देखा।


मृदुल निस्पृह भाव से बैठा था। इस बातचीत के दरमियान उसने कोई उत्सुक्तता, प्रसन्नता या इच्छा, अनिच्छा कुछ भी प्रगट नहीं की।

“आपका उपन्यास मै अपनी अगली फिल्म के लिए ले सकता हूँ, यदि आप मुझसे जुड़ जाते है, कैसा रहेगा।? अच्छा रहेगा न?

देखा जायेगा? अभी से क्या कह सकता हूँ?” उसने उसके उत्तर पर गौर नहीं किया।

“भाई, मेंरे! अभी कई तरह के रोल है, जो आपको सूट करता हो, ले सकते हो या फिर जैसा निर्देशक उचित समझे वह काम कर सकते है। मगर रोल के लिए आपको आर्थिक सहयोग करना पड़ेगा, रोल के अनुसार” उसे हंसी का दौरा पड़ने वाला था जिसे उसने बमुश्किल रोका। फिर भी हंसी ने दगा की, होंठों के कोरों से प्रगट हो गयी। जिसे वह देख नहीं पाया।

वह विचिलित सा हो गया। उसे लगा विश्वास नहीं आ रहा है। वह इंतज़ार करना नहीं चाहता था। वह नहीं चाहता था कि उसे सोचने का कोई मौका दिया जाए।

“आप रश्मिप्रभा के लिए कोई कहानी दे रहे है?”

“अभी कोई तैयार नहीं है”

“अपना कहानी संग्रह ही दे दीजिये?”

“देखना पड़ेगा, है कि नहीं है? नहीं तो प्रकाशक से मंगवाना पड़ेगा”

“आप आजीवन सदस्यता के लिए पंद्रह हज़ार दे रहे है?” यह कहकर उसने अपने काले बैग से रसीदबुक निकाली। उसने हाथ के इशारे से उसे रुकने को कहा। वह कुछ और समझा।

 “अगर अभी आपके पास पूरे पैसे न हो तो तीन किस्तों में दे दीजियेगा, पांच-पांच करके” यह कहकर वह भिखारी नुमा अंदाज में उसकी ओर निहारने लगा। जैसे कि अभी तुरंत फुरंत रुपये मिलने वाले हो

“मित्र! एक बात बताएं? सच सच बताना”

“ कहिए, सर”

“जब कोई लेखक बड़ी बड़ी साहित्यिक पत्रिकाओं में बिना पैसे के छप रहा हो तथा उसकी रचनाओं पर कही कही से अच्छा खासा पारिश्रमिक भी प्राप्त हो रहा हो तो वह पैसा देकर क्यों आपकी पत्रिका में छापना चाहेगा?” उसका सब्र टूट गया।

“इन बाम जैसी पत्रिकाओं को पूछता कौन है? खरीदता कौन है? हमारी जैसी पत्रिकाएं ही खरीदी और पढ़ी जाती है” उसकी आवाज में तल्खी और तेजी थी।

“भाई, हमें तो माफ़ कीजियेगा। मै पैसा देकर अपनी कहानी नहीं छपवाना चाहता” इस बार वह अपने को रोक नहीं पाया और उसकी आवाज में भी तल्खी आ गयी।

“आपको भी समिता, रजनी, इंदुप्रकाश और बलदेव लेखको जैसा ही घमंड है। आप भी लोकप्रिय होना नहीं चाहते?” उसने नगर के कई प्रतिष्ठित साहित्यकारों के नाम के साथ उसका भी नाम जोड़ दिया। उसकी आवाज में खिसियाहट भर गयी थी।


घमंड शब्द उसे ख़राब लगा था। उघाड़ती सी रात मुरझाने लगी थी। यह ठीक नहीं था।

वह कुछ क्षण तक जड़ सा बैठा रहता है, फिर इधर उधर देखने लगता है। उसकी निगाह दीवार पर अटके शो केस और टंगे एक धार्मिक कलेंडर पर टिक गयी। उसने अपनी दृष्टि बाम पत्रिका पर केन्द्रित की।

समय बहुत मंद गति से घिसट, खिसक रहा था। निसंगता ने माहौल को पूरी तरह जकड लिया था। वह यहाँ किसलिए आया था? यह प्रश्न अधर में लटका था। उसकी एक उत्कट सी इच्छा हुई कि वह तुरंत वापस लौट जाएँ, बैग उठाये और बाहर निकल जाएँ।

“अच्छा! चलते है!” उसका स्वर दबा था, आजिजपने से ग्रस्त था।

“ हाँ, क्यों नहीं!” उसकी प्रतिक्रिया सहज थी।

“आपको, मेंरी पत्रिका कि जरुरत नहीं है?” मै इसे वापस ले जा सकता हूँ।

“ अवश्य!” उसने लपककर अपनी पत्रिका उठाई और तुरंत अपने बैग के हवाले की। मृदुल को आश्चर्य हुआ कि पत्रिका तो उसने उसे भेंट की थी।

“फिर तो आपको इसकी भी जरुरत नहीं पड़ेगी?” उसने अपना विजिटिंग कार्ड उठाते हुए कहा।

“ जैसी ,आपकी इच्छा!”

वह आदमी सोफे से उठ खड़ा हुआ। बिना अभिवादन के वह कमरे से निकल गया और उसके पहुचने के पहले ही वह गेट पार कर चुका था। मृदुल हतप्रभ तांकता रह गया। उसके जेहन में एक बात चक्कर काट रही थी कि आखिर में वह था कौन?



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