वड़वानल - 75 (अंतिम भाग)

वड़वानल - 75 (अंतिम भाग)

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मुलुंड कैम्प में उपोषण और भी कई दिनों तक चलता रहा। सैनिक डाँट–फटकार से घबराए नहीं और न ही लालच के बस में हुए। अनेक लोगों को कमज़ोरी के कारण अस्पताल में भर्ती करना पड़ा, कई लोग बीमार हो गए, मगर उपोषण चलता रहा। 

मुलुण्ड के एवं अन्य कैम्पों में जाँच कमेटियों का काम जारी था। जो सैनिक शरण आ जाते, हाथ–पैर जोड़कर माफ़ी माँग लेते उनका किस तरह से उपयोग किया जाए यह योजना बनाई जा रही थी। झूठी ज़ुबानियाँ दिलवाई जा रही थीं, सुबूत तैयार किए जा रहे थे।

विद्रोह में शामिल अनेक सैनिक डटे हुए थे। टूट जाऊँगा, पर झुकूँगा नहीं – यह उनका सिद्धान्त था। उन पर छोटे–मोटे आरोप लगाए जा रहे थे, उन्हें डिस्चार्ज कैम्प में भेजा जा रहा था। आठ साल पहले दी गई पूरी किट को अच्छी हालत में वापस करने को कह रहे थे, हाथ में रेलवे का एक वारंट रख देते, आठ वर्षों की सेवा के बाद यदि खाली जेब जाने की कोई शिकायत करता तो उसे जवाब मिलता,  ‘‘तुम विद्रोह में शामिल थे, तुमने अंग्रेज़ सरकार के ख़िलाफ़ विद्रोह किया था यह साबित हो चुका है और तुम्हें नौसेना से निकाल दिया गया है। किट वापस न करने के कारण पैसे काट लिए गए हैं। सरकार ने मेहरबानी करते हुए तुमसे वसूल की जाने वाली रकम माफ़ करके तुम्हारे केस को ख़त्म कर दिया है।’’

‘‘मुझ पर सैनिक–अदालत में मुकदमा चलाओ!’’ एकाध सैनिक कहता।

‘‘तुम्हारा केस ख़त्म हो चुका है।’’ उसे जवाब मिलता।

रात को इन सैनिकों को नेवी पुलिस के चार–पाँच गोरे जवानों के साथ रेलवे स्टेशन भेजकर रेलगाड़ी में ठूँसा जाता और इस बात का इत्मीनान कर लिया जाता कि वे उतर नहीं जाएँगे।

जिन्होंने विद्रोह का नेतृत्व किया, जिन पर आरोप लगाए जा सकते थे, जो प्रारंभिक जाँच में ख़तरनाक प्रतीत हुए ऐसे सभी नौसैनिकों को विशेष जाँच समिति के सामने पेश किया गया, झूठे–सच्चे आरोप लगाए गए, सुबूत–गवाह पेश किये गए। इन नौसैनिकों में खान था, दास था, गुरु था और कई अन्य लोग थे। इन्हें लम्बी अवधि की सज़ाएँ सुनाई गईं। कितने लोगों को सज़ाएँ मिलीं, कितने लोगों को नौसेना से निकाल दिया गया - यह संख्या कभी भी बाहर नहीं आई। 

पूरब से स्वतन्त्रता की आहट आ रही थी। सभी लोग स्वतन्त्रता की तैयारी करने में मगन थे। मगर स्वतन्त्रता की सुबह के स्वागत के लिए जिन्होंने अपने खून का छिड़काव करने की तैयारी की थी उन्हें राष्ट्रीय नेता भूल गए थे, सामान्य जनता भी भूल गई थी।

स्वतन्त्रता का स्वागत करते हुए 14 अगस्त, 1947 की रात को पंडित जवाहर लाल नेहरू कह रहे थे, ''Long years ago we made a tryst with destiny....''

चारों ओर जश्न मनाया जा रहा था। मगर विद्रोह में शामिल हुए नौसैनिक घने अँधेरे में ठोकरें खाते हुए प्रकाश की एकाध अस्पष्ट–सी किरण ढूँढ़ रहे थे।


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