वड़वानल - 11
वड़वानल - 11
आर. के. के भावावेश में दिये गए, सुलगाने वाले भाषण के पश्चात् एक भयावह शान्ति छा गई। आर. के. पलभर को रुका और उसने सबको आह्वान दिया - ‘‘हम, आज, यहाँ नेताजी को याद करते हुए शपथ लें कि स्वतन्त्रताप्राप्ति के
लिए मेरे प्रिय हिन्दुस्तान को गुलामी की जंज़ीरों से मुक्त करने के लिए हम निरन्तर प्रयत्नशील रहेंगे। इस उद्देश्य के लिए वड़वानल प्रज्वलित करेंगे! इस कार्य को करते हुए हमें यदि अपने सर्वस्व का भी बलिदान करना पड़े तो भी हम पीछे नहीं हटेंगे!’’
एक नयी स्फूर्ति, एक नयी जिद के साथ वे सारे उठ गये। मन में एक चिनगारी तो प्रवेश कर चुकी थी। अंग्रेज़ों का बर्ताव इस वड़वानल (अग्नि) को चेताने का काम करने वाला था।
लम्बे समय तक चला युद्ध समाप्त हो गया और सैनिकों ने चैन की साँस ली। दौड़–धूप करके थक चुके जहाज़ बन्दरगाहों पर सुस्ताने लगे। ‘बलूचिस्तान’ कुछ छोटी–मोटी मरम्मत के लिए कलकत्ता आया था।
‘‘दत्त, ए दत्त!’’ गुरु ने दत्त को पुकारा।
‘‘कैसे हो भाई ?’’
‘‘बस, चल रहा है। क्या तेरा जहाज़ भी मरम्मत के लिए आया है ?’’
‘‘नहीं, यार! मैं आजकल यहीं हुगली में हूँ।’’
दत्त को देखकर मदन, यादव और आर. के. भी आये। इधर–उधर की बातें होने के बाद दत्त ने पूछा।
‘‘आज शाम का क्या प्रोग्राम है ?’’
‘‘कुछ नहीं चार बजे के बाद तीनों खाली हैं।’’ मदन ने जवाब दिया।
‘‘तो फिर डॉकयार्ड के बाहर चाय की दुकान के पास साढ़े चार बजे मिलो। थोड़ा–सा घूम–फिर आएँगे।’’ दत्त ने सुझाव दिया और तीनों ने हाँ कर दी। ठीक साढ़े चार बजे वे दत्त से मिले। ‘कहाँ जाएँगे ?’’ मदन ने पूछा।
‘‘आज मैं अपने एक मित्र से तुम्हारा परिचय करवाऊँगा।’’ और दत्त ने उन्हें भूषण के बारे में, भूषण से हुई मुलाकात के बारे में बताया। अब वे खिदरपुर की एक गन्दी बस्ती में आए थे। वहीं एक अच्छे से दिखने वाले घर की कुंडी दत्त ने खास ढंग से खटखटाई। दरवाजा खुला। सामने प्रसन्न व्यक्तित्व का एक जटाधारी खड़ा था। दत्त ने भूषण का परिचय करवाया।
‘‘भूषण, तुम्हारी इस भेस बदलने की कला की दाद देनी पड़ेगी। पलभर तो मैं तुम्हें पहचान ही नहीं पाया।’’
‘‘भूमिगत कार्यकर्ता को एक मँजा हुआ कलाकार भी होना पड़ता है।’’ भूषण ने जवाब दिया।
‘‘दत्त ने मुझे आप लोगों के बारे में बताया है।’’ भूषण सीधे विषय पर आया।
‘‘आप जैसे जवान खून वाले सैनिक यदि मातृभूमि की स्वतन्त्रता के लिए अंग्रेज़ों के विरुद्ध बगावत करने को तैयार हों तो अब आजादी का दिन दूर नहीं। मगर याद रहे, ये रक्तरंजित तलवारों का व्रत है। सर्वस्व का बलिदान भी कभी-कभी अपर्याप्त प्रतीत हो सकता है। आप लोग निश्चित रूप से क्या करने वाले हैं ?’’
आर. के. ने नेताजी के अपघात की खबर सुनकर आयोजित की गई सभा के बारे में और वहाँ उठाई गई शपथ के बारे में बताया। भूदल और हवाईदल के सैनिकों को साथ लेकर विद्रोह करने के निश्चय के बारे में बताया।
‘‘तुम्हारा मार्ग है तो ठीक, मगर वह आसान नहीं है। कम से कम पूरी नौसेना में ही विद्रोह हो जाए तो यह एक बहुत बड़ा काम होगा। आप लोग एक अच्छे मुहूरत पर यहाँ आए हैं। आज ही एक भूमिगत समाजवादी कार्यकर्ता बैठक के लिए आए हैं। यदि उनके पास समय है, तो हम उनसे मार्गदर्शन ले सकते हैं।’’ भूषण ने उनकी तीव्र इच्छा को देखकर सुझाव दिया और वह कमरे से बाहर चला गया।
वह घर बाहर से तो अलग–थलग दिखाई दे रहा था, मगर भीतर ही भीतर वह दो–चार घरों से जुड़ा था। यदि छापा पड़ जाए तो चारों दिशाओं में भागने के लिए यह सुविधा बनाई गई थी। कमरों को पार करते हुए वे एक बड़े से कमरे में आए। मद्धिम प्रकाश के कारण कमरे का वातावरण गम्भीर प्रतीत हो रहा था। कमरे में दीवार पर सुभाषचन्द्र बोस की एक बड़ी–सी ऑईल पेंटिंग लगी थी। उसी की बगल में राजगुरु, भगतसिंह, वासुदेव बलवंत फड़के जैसे कुछ क्रान्तिकारियों की तस्वीरें थीं।
कमरे में एक व्यक्ति बैठा कुछ लिख रहा था।
‘‘जय हिन्द!’’ दत्त ने अभिवादन किया।
‘‘जय हिन्द!’’ गर्दन उठाते हुए उस व्यक्ति ने अभिवादन स्वीकार किया।
पहली ही नजर में उस व्यक्ति का गोरा रंग, तीखे नाक–नक्श, भेद लेती हुई आँखें, काले बाल और चौड़ा माथा प्रभावित कर गए।
दत्त ने उस क्रान्तिकारी से पहले गुरु का परिचय करवाया। गुरु ने हाथ जोड़कर नमस्ते कहा।
‘‘नहीं, साथी, हम गुलामी की जंजीरों में जकड़े हिन्दुस्तान के सैनिक हैं। हिन्दुस्तान को आजाद करने की हमने कसम खाई है।स्वतन्त्र हिन्दुस्तान ही हमारा लक्ष्य है। इस लक्ष्य का सदैव स्मरण दिलाने वाला अभिवादन ही हमें स्वीकार करना चाहिए।’’ उसकी आवाज में मिठास थी, सामने वाले को प्रभावित करने की सामर्थ्य थी।
‘‘आज इस बात की आवश्यकता है कि आप, सैनिक, स्वतन्त्रता के लिए विद्रोह करें। क्योंकि चर्चिल की पराजय के पश्चात् प्रधानमन्त्री पद पर ऐटली भले ही आ गए हों, फिर भी हिन्दुस्तान को सम्पूर्ण स्वतन्त्रता देने के मसले पर मतभेद होंगे। चर्चा, परिचर्चा आदि का चक्र चालू रखकर स्वतन्त्रता को स्थगित किया जाता रहेगा, या सम्पूर्ण स्वतन्त्रता न देकर आंशिक स्वतन्त्रता पर समझौता होगा। अंग्रेज़ी व्यापारियों को बेइन्तहा सहूलियतें दी जाएँगी।मुसलमानों को भड़काकर हिन्दुस्तान के विभाजन का षड़यंत्र रचा जाएगा। अंग्रेज़ अपनी इच्छानुसार आजादी देंगे। ऐसी परिस्थिति में अंग्रेज़ों पर दबाव डाला जाना चाहिए, और यह काम सैनिक ही कर सकते हैं।’’
‘‘क्या आप ऐसा नहीं सोचते कि महात्मा गाँधी का अहिंसा तथा सत्याग्रह का मार्ग हिन्दुस्तान को स्वतन्त्रता दिलवाएगा।’’ आर. के. ने बीच ही में प्रश्न पूछ लिया।
‘‘मेरे मन में महात्माजी एवं उनके मार्ग के प्रति अतीव श्रद्धा होते हुए भी, मैं नहीं सोचता कि इस मार्ग से आजादी मिलेगी। अंग्रेज़ों को यदि इस देश से निकालना हो तो उनकी हुकूमत की नींव को नष्ट करना होगा। सन् 1942 के आन्दोलन के कारण यह हुआ नहीं। यदि अंग्रेज़ यहाँ टिके हुए हैं, तो केवल सेना के बल पर; उनका यह आधार ही धराशायी हो जाए तो अंग्रेज़ यहाँ टिक नही पायेंगे। सैनिकों के छुटपुट आन्दोलन होते हैं और उन्हें दबा भी दिया जाता है। अब आवश्यकता है एक बड़े विद्रोह की। तीनों दलों के विद्रोह की। कम से कम किसी एक दल के विद्रोह की। तुम लोग इसका आयोजन करो। हम तुम्हारी मदद करेंगे। मिलते रहो। विचारों के आदान–प्रदान से ही आगामी कार्य की दिशा निश्चित होगी।’’ उस नेता ने जवाब दिया। मुलाकात खत्म की यह सूचना थी।
आर. के. ने भूषण से पूछा, ‘‘इनका नाम क्या है ? कौन हैं ये ?’’
जवाब में भूषण हँस पड़ा, ‘‘पहली ही मुलाकात में ये सब कैसे मालूम होगा ? वह शेर हैं। हम उन्हें शेरसिंह के नाम से ही जानते हैं। मुझे लगता है कि इतना परिचय काफी है।’’
एक नयी चेतना लेकर वे वहाँ से बाहर निकले।
‘‘आज़ाद हिन्द सेना के अधिकारियों एवं सैनिकों को हिन्दुस्तान लाने वाले, ऐसा सुना है। क्या यह सच है ?’’ यादव गुरु से पूछ रहा था।
‘‘न केवल उन्हें यहाँ लाया गया है बल्कि उन पर शाही हुकूमत के ख़िलाफ विद्रोह करने, ‘हत्याएँ करने आदि जैसे आरोप लगाकर मुकदमे चलाने की तैयारी भी की जा रही है।’’ गुरु ने जवाब दिया।
‘‘अंग्रेज़ी हुकूमत के ख़िलाफ बगावत करना प्रत्येक हिन्दी नागरिक और सैनिक का कर्तव्य है। उन्होंने अपना कर्तव्य किया है। उन पर मुकदमा किसलिए ?’’
‘‘ऐसा तुम्हारा तर्क है। अंग्रेज़ों को यह स्वीकार नहीं। अंग्रेज़ उन पर मुकदमा करेंगे और उन्हें सजा भी देंगे।’’
‘‘अगर ऐसा हुआ ना तो सारा देश सुलग उठेगा। मैं भी पीछे नहीं रहूँगा।’’
‘‘तू अकेला ही नहीं, सभी ऐसा ही सोचते हैं।’’
‘‘अरे, इसी बात को देखते हुए तो कांग्रेस ने भी अपनी भूमिका में परिवर्तन किया है। आज तक क्रान्तिकारियों का पक्ष न लेने वाली कांग्रेस ‘भटके हुए नौजवान’ कहकर उनकी ओर से मुकदमा लड़ने के लिए खड़ी है’’ आर. के. ने जानकारी दी।
‘‘हमें भी इन सैनिकों के लिए कुछ करना चाहिए।’’ यादव बोला।
‘‘करना चाहिए, यह बात सही है। पर आखिर क्या किया जाए ? सभाएँ, मोर्चे, सत्याग्रह वगैरह तो हम कर नहीं सकेंगे।’’
‘‘हम अदालत में उनका मुकदमा तो लड़ नहीं सकेंगे, मगर उनके लिए मदद तो इकट्ठा कर ही सकते हैं’’ आर. के. ने सुझाव दिया।
‘‘यह विचार अच्छा है। हम जब मदद इकट्ठा कर रहे होंगे, तो हमें यह भी पता चल जाएगा कि हमारे जैसे खयालों वाले कितने लोग हैं। हमारे संगठन की दृष्टि से यह फायदेमन्द होगा।’’ गुरु का उत्साह बढ़ रहा था। और फिर हुगली के किनारे वाली बेस पर और ‘बलूचिस्तान’ पर मदद इकट्ठा करने का काम शुरू हुआ।
तबादलों की सूचियाँ आयीं और जहाज़ के क्रान्तिकारियों के दल बिखर गए। कई दिनों से एक साथ रहने के कारण बिछुड़ने का दुख हो रहा था।
‘‘तुम दोनों के साथ यदि मेरा भी तबादला ‘तलवार’ पर हो गया होता तो अच्छा होता।’’ यादव गुरु और मदन से कह रहा था।
‘‘तू विशाखापट्टनम् में ‘सरकार्स’ पर जा रहा है ना ? अच्छी ‘बेस’ है वो, मैं था वहाँ पर।’’ मदन ने कहा।
‘‘‘सरकार्स’ पर तबादला हुआ है तो इतना परेशान क्यों है ?’’ गुरु ने पूछा।
‘‘अपना एक अच्छा गुट तैयार हो गया था रे। अब वह बिखर जाएगा। इसके अलावा हमें जो एक–दूसरे का मानसिक एवं वैचारिक सहारा प्राप्त था वह अब समाप्त हो जाएगा। एक–दूसरे से दूर जाने पर शायद हममें शिथिलता आ जाए।’’ यादव ने कहा।
''Be hopeful. हम एक–दूसरे से दूर जा रहे हैं इसलिए इस बात से न डर कि हमारा आन्दोलन कमजोर पड़ जाएगा। अब हम नौसेना में इधर–उधर बिखरने वाले हैं और मुझे पूरा यकीन है कि हममें से हरेक एक–एक गुट का निर्माण कर सकेगा। यदि हम एक–दूसरे के सम्पर्क में रहें तो हमारे लिए एकदम विद्रोह करना आसानी से सम्भव होगा।’’ मदन ने एक अलग ही विचार रखा।
गुरु और मदन ‘तलवार’ पर प्रविष्ट हुए तो ‘तलवार’ का वातावरण एकदम
बदला हुआ था। युद्ध समाप्त होने के कारण नौसेना से शीघ्र ही मुक्त होने वाले सैनिक ‘तलवार’ पर ही थे। सिग्नल स्कूल के शिक्षकों, वहाँ के सैनिकों, दैनिक प्रशासन सम्बन्धी विभिन्न शाखाओं के सैनिकों की भीड़ ही ‘तलवार’ पर जमा हो गई थी। नौसेना छोड़कर जाने वाले सैनिक सिविलियन जीवन में प्रवेश करने के मूड में थे और उन्हें नौसेना के रूटीन एवं अनुशासन की ज़रा भी परवाह नहीं थी। इन सैनिकों के अनुसार काग़जात समय पर प्राप्त न होने के कारण उनकी संख्या बढ़ती ही जा रही थी। पानी की, रहने की जगह की, भोजन की
कमी बढ़ती जा रही थी।
‘‘दत्त का कलकत्ते से ख़त आया है,” मदन कह रहा था।
‘‘क्या कहता है ?’’ गुरु ने पूछा।
‘‘वह फिर से शेरसिंह से मिला था। उन्होंने भूषण को कराची भेजा है। आर. के. की और उसकी पहचान होने के कारण यादव को उसकी सहायता ही मिलेगी। हुगली में सैनिकों को एकत्रित करने का काम खुद दत्त ही कर रहा है।’’
‘‘शेरसिंह ने क्या सूचनाएँ दी हैं ?’’
‘‘ठोक–परखकर साथीदार चुनो और समय गँवाए बगैर संगठन स्थापित करो!’’ मदन ने जवाब दिया।
‘‘संगठन तो करना ही पड़ेगा। इस समय नौदल में चार प्रकार के सैनिक हैं। पहले - नौसेना छोड़ने की तैयारी में लगे हुए सैनिक। उन्हें नौसेना से बाहर निकलकर जिन्दगी में स्थिर होना है। जाते–जाते इस विद्रोह के झमेले में वे पड़ना नहीं चाहते। उनके हृदय में देशप्रेम तो है, परन्तु विद्रोह के लिए यह समय उचित नहीं, ऐसा वे सोचते हैं। दूसरा गुट ऐसे सैनिकों का है जिनके मन में अंग्रेज़ों के प्रति नफरत है। वे अंग्रेज़ी हुकूमत से मुक्ति पाना चाहते हैं, परन्तु उनमें आत्मविश्वास की कमी है। यह विद्रोह कामयाब होगा इसका यकीन नहीं। अब तक नौसेना में सात बार विद्रोह किए गए; भूदल में हुए; हवाई दल में भी विद्रोह हुए। सभी अल्प समय में समाप्त हो गए और असफल रहे। विद्रोह के असफल होने के बाद उसमें शामिल सैनिकों का क्या हाल होता है ? फाँसी के फन्दे को छोड़कर और कोई अन्य सहारा उन्हें नहीं मिलता - यह बात वे देख चुके हैं। ये सैनिक ‘बागड़’ पर बैठे हैं। यदि विद्रोह को सफ़ल होते देखेंगे तो वे कूदकर हमारे आँगन में आ जाएँगे। तीसरा गुट है ‘कट्टर देशभक्तों’ का। जान की परवाह किए बिना विद्रोह के लिए तत्पर सैनिकों का। मगर इनकी संख्या कम है। और चौथा गुट है गद्दारों का। उनकी संख्या कम होने के बावजूद इनसे सावधान रहना चाहिए।’’ गुरु परिस्थिति समझा रहा था।
‘‘बँटा हुआ समाज दुर्बल हो जाता है। वह स्वयं का विकास नहीं कर सकता।’’ मदन अपने आप से पुटपुटाया।
‘‘शेरसिंह द्वारा दी गई सूचना एकदम सही है। हम इन गुटों को कैसे इकट्ठा करेंगे।’’