उधारी

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मैं विवेक !

कईं दिनों की कश्मक़श के बाद, मैं रूही के कमरे में अकेला बैठा था, दिल्ली में, उसके गेस्ट हाउस पर। अक्टूबर का आधा महीना बीत चुका था, पर सुबह आज भी गरम थी। कल की तरह आज भी जैसे-तैसे कॉलेज से जल्दी निकल कर मैं उस से आख़िरी बार मिलने पहुंचा था। दोपहर १२ बजे का समय था और रूही तैयार हो कर कमरे में आयी ही थी कि मुझसे कहा, “चलो, चलते हैं।”

अभी कुछ देर पहले ही बाहर जाना तय हुआ था। सुबह से कमरे में कैद, वो ऊब चुकी थी और बाहर कुछ देर घूमना चाहती थी। उसके कानपूर से दिल्ली आने का मुझे छः महीने से बेसब्री से इंतज़ार था और उसे दिल्ली आना समय की बर्बादी और एक बुरी योजना लग रहा था। कुछ था जो नहीं करने को।

थोड़ा सोचने के बाद मैंने उस से कहा, “क्या हम थोड़ी देर में चल सकते हैं?”

“क्या हुआ?” रूही हैरान थी।

“मुझे कुछ ज़रूरी बात करनी है। शान्ति में, अकेले। क्या हम आधे घंटे में चलें?”

दूर कुर्सी पे बैठे, मेरी धड़कन तेज़ हो रही थी। रूही जानती थी मैं क्या सवाल पूछना चाहता था। पर, फ़िर भी ऐसे दिखा रही थी जैसे कुछ पता न हो। “नथिंग ”, “कुछ नहीं” से हमेशा से सवालों को टालना उसकी आदत थी और आज भी शायद वही कोशिश थी।

एक लम्बी सांस लेकर, मैंने आख़िर पूछ ही लिया,“पिछले एक साल में तुमने कई बार हमारे बारे में उलझनों का ज़िक्र किया है। पर, उन पर कभी बात नहीं की।”

“मतलब? अरे कुछ नहीं है। मुझे नहीं करनी बात।”

“मेरा मतलब, ऐसा क्या हुआ जो उस सवाल के लिए तुम्हारा जवाब एक दम से ना आया, जो एक साल से तुम्हारे सामने था। क्या थी वो उलझनें या कुछ और, जिस प्रक्रिया में ये तय किया? क्या ये एक दम से लिए फैसला था या फ़िर, बहुत सोच विचार कर लिए हुआ?”

रूही चुप थी। कुछ कहना चाहती थी, पर शायद शब्द नहीं थे। मैं कुर्सी पे बैठा उसके जवाब का इंतज़ार कर रहा था, और वो कभी मुझे तो कभी बंद टीवी को देख रही थी। इस हफ्ते मैं जान बूझकर अपने घर से दूर, एक दोस्त के घर रुका था, ताकि मैं रूही की साथ ज़्यादा समय बिता पाता। उस हफ्ते, और कुछ प्लान नहीं किया था। तो, मेरे पास समय था जितना भी वो लेना चाहे। बहुत टालने के बाद चुप्पी तोड़ते हुए उसने कहा

“नहीं। बहुत सोचा। ऐसे निर्णय एक दम से थोड़ी न लिए जाते हैं। हम एक दुसरे के लिए नहीं हैं। अलग जीवनचर्या, प्राथमिकताएं, आकांक्षाएं। कुछ कमी है। चाहने, और पूरी ज़िन्दगी साथ रहने में फ़र्क़ है। मुझे तुम बहुत पसंद हो, पर भविष्य के बारे में सोच कर डर लगता है कैसा होगा?। मैंने जब ख़ुद से पूछा तो जवाब हाँ आकर भी नहीं आया और अचानक से भावनाएं ख़त्म ही हो गयीं।”

मेरी साँसे लगातार भरी हो रही थीं। आँखें नाम थीं, पर चेहरे पे हमेशा की तरह बड़ी मुस्कान। अंदर ही अंदर हंस रहा था। मैं उस से हमेशा कहता था, निर्णय सिर्फ़ तुम्हारा ही होगा और वो जो भी हो, मुझे मंज़ूर होगा। बिना किसी सवाल या शिकायत के। और वो कहती थी “मेरे अकेले का क्यों? हम दोनों का होगा!” और आज वो निर्णय अकेले ही ले लिया। अपने दिन का सारा हाल विस्तार से सुनाती थी। माँ के कपड़ो से लेकर सहेली की शादी और उसके बॉयफ्रेंड तक। पर अपनी उलझनें? एक बार बात तो की होती। पर, नहीं। सब कुछ खुद ही निर्धारित कर लिया।

फ़िर सोचा, इसमें उसकी भी क्या ग़लती थी? फुकरा, यही तो था मैं। हमेशा सच ही तो कहती थी वो। उसे खो देने के डर से कभी कुछ जताया ही नहीं और सीधे से कुछ कहा भी नहीं। सीधे से पहली बार कुछ कहा भी, तो ये सवाल। कल रात सुनील के साथ खाने पर भी तो उसने सही कहा था, “विवेक, तुम कभी थे ही नहीं।” दिल को झंझोर-सा दिए था उस पल ने।

आज भी याद है वो दिन जब हम पहली बार मिले थे। एक महीने के लिए साथ में, एक ही प्रशिक्षण दल में। पर उस पूरे महीने में कभी खुल कर बात हुई ही कहाँ। तीन-चार बार बात हुई भी तो बस, छोटे मोटी छींटाकशी। नकचढ़ी। गुस्सा तो जैसे हमेशा नाक पर रहता था। इन सबके बावजूद, कुछ था उसमे तो उसकी तरफ खींचता था और मैंने भी ऐसे ही, एक रात फ़ोन पे सन्देश भेज दिया। दो घंटे बात हुई थी। सामने तो उसकी शक्ल हमेशा गुस्से से भरी रहती थी। पर दिल की साफ़, दयालु, देखभाल करने वाली और खूबसूरत थी और बच्चों से ख़ास लगाव था और सभी उसे माँ कह कर बुलाते थे। मैं भी।

संदेशों का सिलसिला चलता रहा। उस एक महीना गुज़र जाने के बाद हमारी मुलाक़ात अक्टूबर में हुई थी। पता लगा, वो कानपूर से दिल्ली मुझसे मिलने आयी थी। बहुत गुस्सा हुआ था मैं, जब पता लगा था। मुझे नहीं पसंद की कोई मेरी वजह से कैसी भी मुसीबत सहे और मुझसे मिलने घर से इतना दूर आये। इतना भी महत्वपूर्ण नहीं किसी के लिए मैं। फरवरी के महीने में उसके कॉलेज की सम्मलेन के बारे में पता लगा। मुझसे उस सम्मलेन का कुछ ख़ास लेना देना तो नहीं था, पर मैंने अर्ज़ी दे दी ताकि उस से मुलाक़ात हो। चार दिन कानपूर  में।

बातों-बातों में मैंने कईं बार शादी का प्रस्ताव भी उसके सामने रखा था, मज़ाक में। पर कब वो मज़ाक मेरे लिए सच बन गया, पता ही नहीं लगा। वो भी हर बार मज़ाक में ही, हंसकर हाँ कह देती थी। उसे मैं पसंद था और वो मुझे दोनों ही ये जानते थे। और दोनों ही किसी हद तक पारम्परिक शादी के ख़िलाफ़ थे। दोनों की अपनी ख़्वाहिशें थी जो पूरी करना चाहते थे। पर सारी ख़्वाहिशें किसकी पूरी हुई हैं? उसके साथ बिताये हर पल में, एक पूरापन (अगर सच में कुछ ऐसा होता है) महसूस होता था। लगता था बस यूं ही उसके साथ रहूँ।

उसको शायद पता भी नहीं था, पर वो ज़िन्दगी की एक अहम प्राथमिकता थी। उसको सुनना, साथ देना और उसके चेहरे की खिलखिलाती मुस्कान को बरकरार रखना। शायद आकांक्षाएं वहीं तक सिमट कर रह गयीं थीं। अपने लिए कुछ चाहिए था तो बस शान्ति और उसके साथ दुनिया की सैर कम बजट में। हमें नए लोगो से मिलना बहुत पसंद था, और कहानियां सुनाना मेरा पसंदीदा शौंक। कितनी हंसी बिखर जाती है ज़िन्दगी के छोटे-छोटे किस्सों से।

मैं एक दोहरी ज़िन्दगी जीता रहा था। एक, जिसमे था मैं पागल, लापरवाह, साहसी, दुनिया को सिर्फ अपनी नज़र से देखने वाला, हज़ारो ख़्वाहिशें लिए खुली आँखों से सपने देखने वाला उदास इंसान। जिसको सिर्फ अपनी परवाह थीं और किसी से कुछ लेना देना नहीं। अपना समय, अपनी प्राथमिकताएं, अपने सपने। दूसरा वो, जो जीना चाहता था किसी के साथ, किसी के लिए, सबको समझ कर साथ चलने वाला, ज़िम्मेदार, सजग, प्यार को जताने वाला इंसान जो हर पल खुद से बेहतर बनाना चाहता था। कुछ वैसा, जैसा रूही चाहती थी। वैसे ही तो बदला था मैं पिछले महीनों। लेकिन मैं डरता था, कहने से और उस से कईं ज़्यादा, करने से।

“तुम्हारी आंखें बहुत खूबसूरत हैं। मुझे पसंद हैं। गहरी, जिनमे अक्सर खो जाता हूँ मैं।” इतनी सी बात कहने में भी एक साल लगा दिया। और जब कल रात कहा, तो कहा भी क्या “तुम्हारी आँखें बहुत गहरी हैं। मतलब, अच्छी हैं। बड़ी। काली। अच्छी लगती हैं।” तारीफ़ करना तो जैसे कभी सीखा ही ना हो।

उन दोनों इंसानो में काफ़ी अंतर था। लोग और रूही सिर्फ उस पहले इंसान से ही रू ब रू हुए थे। हमेशा से अकेला रहा, ख़ुद से ही बात करने वाला, ख़ुद ही सब कुछ सोच फैसला करने वाला। वो ग़लत भी तो नहीं था। किसी का साथ क्या होता है, और प्यार क्या होता है, उसने कभी जाना ही नहीं था। दूसरा, वो तो अभी एक साल पहले ही जन्मा था। शायद रूही से मिलने के बाद। मैं इन दोनों इंसानों से कुछ महीनो पहले ही रू ब रू हुआ था। उदयपुर में, कुछ बहुत ही गहन, गंभीर और आतंरिक चर्चाओं के दौरान। फिर वो दस दिन का विपस्सना में एकांत। ज़िन्दगी जैसे एक खुली किताब बनकर सामने आ रही थी। उसको पढ़कर मैं टूट गया था, और किसी के साथ की बहुत ज़रूरत थी। उस किताब को किसी से पढ़ने के लिए कहना? शायद किसी को उसमे रूचि ही नहीं थी। उस प्रक्रिया के दौरान, शायद रूही का साथ होना, मुझे समझना और शायद उसकी बातों में छिपा वो आंशिक प्यार और स्वीकृति, मेरी उम्मीद और शक्ति बन सामने आया था खुद को फिर से ढूंढने के लिए और ज़िन्दगी को एक नयी शुरुआत देने के लिए। जहाँ हम पहले सुबह के तीन बजे तक बात किया करते थे, काम के चलते, वक़्त के साथ, बातें कुछ मिनटों तक ही सिमट कर रह गयी थी।

कानपूर के बाद, परसो पहली बार मिला था उससे। पूरे आठ महीने बाद। इस बीच मेरी ज़िन्दगी में बहुत कुछ बदला था। शायद, पूरा मतलब ही बदल गया था। मिल कर ऐसा लगा, जैसे किसी अजनबी से मिल रहा हूँ। वो वहां हो कर भी नहीं थी। एक अजीब सी झुंझलाहट थी। नकली मुस्कराहट का मुखौटा पहने ना जाने किसे पागल बना रही थी। मुझे, या खुद को? पिछले दिनों बात भी उस से कम ही हुई थी। हमारे बारे में तो बिलकुल नहीं। वो बात कम, फ़ोन और टीवी पर ज़्यादा ध्यान दे रही थी। शायद कुछ बेचैन भी थी। बहुत सवाल थे, पर एक भी पूछने की हिम्मत ही नहीं हुई।

कल सुनील से मिली तो उसकी हंसी लौट आयी थी। १६ महीनो बाद तीनो साथ थे। खूब मज़ाक किया, लम्बी सैर पर गए और साथ खाना खाया। फिर रात को प्लान किया कि सर्दी में हिमालय पर जाएंगे, घूमने। “शादी के बाद पता नहीं जा पाऊं, या नहीं। कैसी फैमिली मिले। कौन जाने, कैसा पति हो?” समय निकालना मुश्किल था, पर वो कैसे भी जाना चाहती थी। मैंने भी उसे समर्थन दिया ताकि योजना बना सकें।

कल और आज में कुछ ज़्यादा बदला नहीं था। अपने जवाब को ज़ारी रखते हुए उसने कहाँ, “मुझे अभी आज़ादी चाहिए। अपने लिए समय देना चाहती हूँ। जीना चाहती हूँ। दुनिया देखना चाहती हूँ। बेफिक्र। बेपरवाह। अभी शादी जैसे बंदिश की ज़रूरत नहीं। मम्मी-पापा परेशान हैं, समझ जाएंगे। मिलूंगी लड़कों से। शायद अगले साल तक शादी भी हो जाए।”

ठीक यही सब मैं उससे देना चाहता था। कुछ भी करने की आज़ादी, अपना पूरा समय और समर्थन। साथ में बेइंतहा प्यार। मन किया के उसे बाहों में समेट लूँ और कभी जाने न दूँ। अब वो हक़ कहाँ था? पर वो किसी के साथ १५ मिनट में संगतता बना कर अपनी ज़िन्दगी बिताना चाहती थी। जिसमे वो इस बात को लेकर तैयार थी की जो उसे चाहिए शायद वो उसे ना भी मिले। दुनिया का सारा विज्ञान पढ़ने के बाद भी ज़िन्दगी का ये अजीब गणित, मेरे लिए आज भी समझना बहुत मुश्किल है। मैं खुश था की वो जानती थी वो क्या कर रही थी। दुःख इस बात का था, उसका हिस्सेदार अब मैं नहीं था।

शाम को उसकी ट्रैन थी। उदयपुर के लिए, जहां आज भी मेरा एक अंश रहता है। क्या संजोग था। जहां मैंने खुद को और उसके साथ को समझा और पाया था, आज वहीं मैं उसे खो रहा था। ट्रैन तक छोड़ने का प्लान तो नहीं था। बस कुछ और पल उसके साथ बिताना चाहता था जितना भी हो सके।

वहां मैं दोनों हाथों में अपनी पूरी ज़िन्दगी लिए बैठा था, और तभी वो बोली “पिछले दो दिनों में अपना इतना सारा समय देने के लिए, बहुत शुक्रिया!”

मुस्कुरा कर मैंने कहा ट्रैन चलने वाली कुछ खाने के लिए लेना है तो अभी लेलो। बाहर आकर चिप्स का पैकेट लिया और मैं चलने लगा। काश वो ट्रैन वहां से कभी चलनी ही न होती। मैं वहीं रहता। जाने से पहले उससे गले लगाया और कहा “तुम आज भी मेरी प्राथमिकताओं और आकांक्षाओं के बारे में नहीं जानती। चीज़ें बदलती हैं। लोग बदलते हैं। उदयपुर में अपना ख्याल रखना।” वो कुछ हैरान थी। इस से पहले वो और कुछ कह पाती मैंने चलते हुए उससे कहा “मेरा किस तुम पर उधार रहा।”

वो हंसकर ट्रैन में चढ़ गयी और मैं पूरा एक हफ्ता दिल्ली में ही बाहर बिताने के बाद, अपने घर की और। अकेला, और ना जाने क्यों, भारी मन के साथ ज़ोर से हँसता हुआ।


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