sneh goswami

Drama Inspirational

4.5  

sneh goswami

Drama Inspirational

तुम्हें पहाड़ होना है

तुम्हें पहाड़ होना है

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श्यामपट्ट पूरा भर कर अचला ने गहरा साँस लिया और सभी बच्चों को नकल करने की हिदायत दे कुर्सी पर बैठ गयी। सुबह के साढे़ सात बजे से लगातार चिल्ला चिल्ला कर पढ़ाते हुए अब दो बजने को आए। अभी छुट्टी होने में पन्द्रह मिनट बाकी हैं। उसने कमरे में निगाह घुमाई। मझोले आकार का कमरा। बीचोबीच दो पंखे घूम रहे हैं। हवा कम दे रहे हैं, घुटन ज्यादा हो रही है। दीवारों पर एक ही आकार के कई चार्ट लगे हैं जो अधिकांश उसके अपने हाथ से बने हैं। कुछ रति के हाथ के हैं और कुठ शशि के। बीचोबीच पीले और लाल रंग का फर्नीचर है, आयताकार तीस मेज और उनके इर्द गिर्द सजी कुर्सियाँ। कक्षा में पैंतालीस विद्यार्थी हैं। सब चार – पाँच साल की आयु के। इस समय सभी बच्चे कापी खोले व्यस्त दिखने की कोशिश कर रहे हैं जबकि वह साफ देख रही है, लिख तो मुश्किल से दो चार रहे हैं इसलिए बीच बीच में हिदायत देते रहना जरुरी है।

लड़कियों का काम लगभग पूरा होने वाला है। अरुण ले चुपके से अपनी कापी संध्या को सरका दी है और उसकी कापी पकड़ कर बैठा है। वह भी आज्ञाकारी बच्ची की तरह फटाफट उसका काम पूरा करने में जुट गयी है। अनु आखिरी लाइन लिख रही है। पंकज एक अक्षर लिख लेता है, तुरंत इरेजर से मिटा देता है। पीछे बैठे अनुज और मनु किसी बात पर गुत्थमगुत्था हुए ही चाहते है। 

उसने मनु को आवाज दी – “ मनु बेटा ! अपनी नोटबुक लेकर इधर आओ। देखें तुमने क्या लिखा है। “ 

मनु ने बेमन से कापी, पैंसिल, रबड़ समेटी और उसकी मेज पर आ गया है। अनुज की आँखों में विजेता के भाव हैं। 

अचला ने मनु को अपने पास खड़ा कर लिया। वह अपनी बची दो लाइनें जल्दी से जल्दी पूरी कर अपनी सीट पर भाग जाना चाहता है। समय बिताने के लिए वह मनु से पूछ बैठती है - 

 “ मनु बेटे जब तुम बड़े हो जाओगे तो क्या बनोगे ? “ 

“ पापा “

अचला को लगा, मनु ने उसका सवाल समझा नहीं। उसने अपना प्रश्न दोहराया – “ मनु बड़े हो कर क्या बनोगे। “

मनु का चेहरा उत्त्तेजना से लाल हो गया – “ मैं जब बड़ा हो जाऊँगा तो मैं पापा बनूंगा। “ 

 “ ठीक है पर पापा बन कर क्या करोगे, वह तो बताओ। “

“ मैं सब की पिट्टी करूँगा। मम्मी की, दीदी की, दादी की सबकी। मैम जो पापा होते हैं न, वे सबकी पिट्टी करते हैं। मुझे भी पापा ही बनना है। “ अचला को अवाक देख वह लगातार बोले जा रहा है।

“ नहीं बेटे, बच्चे बड़े होकर पायलट बनते हैं, टीचर बलते हैं, डाक्टर भी बन सकते हैं। तुम क्या बनोगे ? “

उसने थोड़ी देर सोचा – “ मैं बड़ा होकर फौजी अंकल बनूँगा फिर मैं बंदूक से सबकी पिट्टी करूँगा। मेरे पापा भी रोज सबकी पिट्टी करते हैं। “

इतने में छुट्टी की घंटी बज गयी और सब बच्चे घर भागने को उतावले हो उठे। उसने सब बच्चों को कतार में खड़ा किया और उनकी वैन में बिठा आई। पर जो सवाल मनु छोड़ गया था वे अचला के साथ उसके घर तक चले आये थे और बचपन की कई यादें ताजा कर गये। 

अचला का बचपन जिन गलियों में बीता, वहाँ ज्यादातर कामगर लोग रहते थे। लोहार, कुम्हार . धोबी, पासी, राज मिस्त्री सब जाति के लोग थे। सब अपने अपने हुनर में माहिर। सबके सब शोषित, पीड़ित, गरीब। सुबह रात का बचा- खुचा आधा पेट खा कर काम पर निकलते तो अंधेरा हुए ही वापिस आते। कभी काम ही नहीं मिलता। कभी काम मिलता तो मजदूरी ही नहीं मिलती। मिलती भी तो आधी अधूरी। परिवार की जरूरतें अलग मुँह बाए खड़ी रहती। माँ या पत्नी इस इंतजार में दरवाजे पर खड़ी मिलती कि मर्द लौटे तो चार पैसे हाथ आएं। वें चार पैसे ले वह बनिए की दुकान पर जा थोड़ा बहुत राशन लाएँ। राशन आए तो शाम का खाना बने। 

ऐसे में खाली हाथ लौटा मरद अपनी खीज, अपना गुस्सा घर की औरतों को पीट कर उतारा करते। एक तो भूख से बेहाल काया, उस पर खाली बटुआ और घर भर की सवालिया आँखें। इन्हें झेल पाना मरदों के बस का न होता तो लड़ते –झगड़ते। जब बुरी तरह से थक जाते तो चौपाल में जा बैठते। मन का सारा दरद हुक्के या बीङी के कश में उङा देने की नाकाम कोशिश होती। जेब में दो पैसे आते तो दारु पी गम गलत करते। जो टोकता तो दे जूता, दे चप्पल। 

शाम में अक्सर हर दूसरे घर से चीखने चिल्लाने, गाली गलौज, रोने धोने की आवाजें आती। जो घंटे दो धंटे में शांत हो जाती। फिर सब अपने अपने दड़बों में दुबक जाते, गुदङ में लिपट सो जाते या सोने का नाटक करते। अगले दिन फिर से जिंदगी का युद्ध जो लड़ना है। कोई किसी की लड़ाई में बेवजह दखल नहीं देता, यहाँ तो हर रोज का काम है, कोई कहाँ तक सुलझाए। 

औरतों ने इसे नियति मान लिया है, वे इसे रोते गाते झेल रही हैं। हाँ परिवार को रोटी देने के लिए मजदूरी करने, कोठियों में झाडू पोंछा करने जैसे काम उन्होंने भी पकड़ लिए हैं। बदले में कुछ पैसे और रोटी का जुगाड़ होने लगा तो मरदों का शराब पीना सुलभ हो गया। अब वे निश्चिंत हो शराब, बीड़ी और जरदे में डूबने लगे थे। औरतें जो कमा कर लाती, अक्सर स्वेच्छा से मरद को थमा देती। जो नहीं थमाती, पति नाम का जीव छीन झपट ले जाता। रोटी पहले की तरह मुश्किल से ही नसीब होती। 

फिर एक दिन चमरटोले की नगीनी के घर से दिन के उजाले में लड़ने की आवाजें तीन टोले पार कर अचला के घर तक पहुँची। यह पहली बार हुआ था। रमेसर को पैसे की तलाश में सामान ऊपर नीचे करते बैंक की पासबुक मिल हयी थी और उसमें सात हजार रुपया जमा था। शरबती ने तीन कोठियों में कां करते करते पटेल नगर की मलिक आंटी के कहने पर खाता खुलवाया था जिसमें वक्त बेवक्त या किसी तीज - त्यौहार पर मिले पैसे पिछले तीन ताल से जमा करवा रही थी।

रमेसर घायल कुत्ते सा भौंक रहा था – “ छिनाल ये क्या है ? मुझे तो कहती है, पैसे नहीं हैं। सारी की सारी कमाई मुझे दे दी। ये कौन से यार के लिए संभाल के रखे हुए थे। ऐसा कौन सा धंधा करने लगी है जो छिपाने के लिए पैसे मिल जारगते हैं। 

वह बोलता जाता और शरबती को लातों थप्पड़ों से पीटे जाता। शरबती चुपचाप पिट रही थी पर यह इल्याम नहीं सह पाई। तड़प गयी। सुबकते सुबकते बोली – “ दाड़ीजार तुझे तो गाछ हुई जाती लड़कियाँ कभी दिखी नहीं। सारी कमाई शराब में उड़ा देता है। इनके शादी ब्याह करने बैं कि नहीं। जीन साल में दिन रात मेहनत करके इकट्ठे किए हैं मैंने। “

रमेसर शरबती के तेवर देख डर गया या थक गया या बक्से के कोने से पचास का नोट पा गया था इसलिए ? कौन जाने पर फिलहाल वह घर से चला गया। रात को लौटा तो सुर बदले हुए थे – “ रानी तू क्या मुझे गया गुजरा समझती है। मुझे इनकी चिन्ता नहीं है क्या ? अपनी बिमला का रिश्ता तय कर दिया मैंने । परसों आठ-दस लोग आएंगे ब्याह करने। “ 

“ इतनी जल्दी। एक ही दिन में। वैसे भी अभी तो इस जेठ में सोलह पूरे किए ङै। “

“ लो कर लो बात, अभी सुबह तो लड़ रही थी .। मैं कुछ करता नहीं। अब कर आया तो भी परेशान .। चुपचाप सुन लो सब। मरद की जबान है। कोई डरामा नहीं चाहिए परसों। “ 

“ पर ये लोग हैं कौन “ 

“ आएंगे तो खुद ही देख लीजो। इतना समझ ले रोटी की कोई कमी ना है उस घर में। पेट अघा खाएगी। “

और वह करवट बदल खर्राटे भरने लगा था पर शरबती को सारी रात नांद न आई। पूरी रात डूबती उतराती रही। सुबह उठी तो आँखें सूजी थी और बदन टूट रहा था। काम करने गयी तो सारी मालकिन से अपनी बीती सुनाते सुनाते कितनी बार रो पड़ी । अगले दो दिन वह काम पर जा नहीं पाई। झोंपड़ी की, उसके आंगन की साफ सफाई करनी थी। और भी कई छोटे मोटे काम करने थे। सभी कोठियों से दो दो साड़ी, पाँच बरतन, एक बिस्तर और घर का सामान मिला था। उसे भी संगवाना था। नियत समय पर बराती आए तो कितना देर तो बह दूल्हा चीन्ह नहीं पाई। जब रस्म के लिए उसके सामने लाया गया तो वह सदमा खा गयी थी। वर चालीस को पहुँचा था। पहली पत्नी के चार बच्चे भी साथ आए थे।

 पड़ोसनों ने हौसला दिया था – “ सब नसीबों का खेल है शरबती। जो किस्मत में लिखा हो वही मिलता है। तू तो काम पर चली जाती थी, तेरे पीछे तीनों भाई- बहनों को यही रोटी पका कर खिलाती थी न अब वहाँ उन चार को खिला लेगी। “ 

 शरबती मशीन की तरह सारे कारज करती रही। बेटी विदा हो गयी तो चारपायी ऐसी पकड़ी कि महीना भर बीमार पड़ी रही। धीरे धीरे फिर से काम पर जाने लगी। हाँ कभी कभार लोग जीभ दबा फुसफुसा जरूर लेते – “ रमेसर ने बेटी के बदले पूरे पाँच हजार गिन कर रखवाए। “ 

टोलों में सबके मुँह मानो सिल गये थे। चौपालों में लोग एक दूसरे के सवालों से बचते रहते। हां इतना हुआ कि औरतें बच्चियों को काम पर ले जाने लगी थी।

 अगले दिन शांति अचला को भी अपने साथ कोठी में ले गयी तो अचला के सामने एक नया संसार खुल गया। कितना बड़ा घर। बाप रे बाप। सबके लिए अलग कमरे। तीन लोग हैं घर में और कमरे पाँच। मेम साहब का अलग कमरा। बाबा लोगों के अलग कमरे। मेहमानों का अलग कमरा। रसोई का अलग कमरा। यहाँ तक कि नहाने का भी अलग कमरा। उनकी तरह नहीं कि जहाँ मन करे, वहीं दो ईंट खड़ी करके रोटी सेक ली। जहाँ मन किया, खाट खड़ी कर नहा लिए। एक ही कमरे में टेढ़े मेंढ़े आड़े तिरछे होकर पाँच सात लोग सो लिए। टीन की छत गरम हो, ठण्डाए या टपके सब बराबर। यहाँ तो भर गरमी में भी कंपकपी है। बह भौचक्की सी एक एक चीज को देखती रही। पहली बार उसने मशीन यानि फ्रीज का ठंडा पानी पिया। फिर धीरे धीरे यह आना उसका रोज का क्रम हो गया। 

कितना सुकून था यहाँ। न भूख की चिंता, न काम का झंझट। यहाँ न लड़ाई थी न चीखना चिल्लाना। काम करने के लिए दो लोग, उसकी माँ झाडू –पोंछा करती और कपड़े धोती। खाना बनाने के लिए और बरतन के लिए एक अलग नेपाली बहादुर। मैम सुबह चाय पीते पीते बङे से कागज जिसे अखबार कहती हैं, पढ़ती है। सुंदर सुंदर कपड़े पहनती हैं। प्यारी सी जूतियाँ पहन ठक ठक करती परस पकड़ के कार में बैठ जाती हैं तो शाम को लौटती हैं। बड़ी सी मेज पर कितने सारे फल रखे हैं। उसने तो ये किसी रेहड़ी में ही देखे थे। यहाँ खाने को भी मिले है। 

उसने डरते डरते कोहली मैम से पूछा था – “ आप भी काम पर जाते हो। “

“ हाँ ! काम पर तो जाना होता है। “

“ आपको भी पगार में पाँच सौ मिलते हैं। “ 

वे हो हो कर हँसी थी – “ उससे ज्यादा।“

“ दो पाँच सौ ? “ 

वे पेट पकड़े देर तक हँसती रही थी और वह मुँह बाए एकटक उन्हें कि माँ भीतर से झपटती हुई आई थी कि “ क्या अनाप शनाप बकती रहती है। चल डस्टिंग कर। “ 

भीतर ले जा उसने कान खींचे थे – “ बेवकूफ ! ये बड़ी अफसर हैं। बहुत पढ़ी लिखी हैं। सौ कोठी में काम करके भी हमें जितने पैसे मिलेंगे, उससे कहीं ज्यादा पैसे मिलते हैं मैम को। “ - दर्द से ज्यादा हैरानी हुई थी उसे। 

“ इत्ते सारे ! ” उसने अपनी दुबली पतली दोनों बाजू फैला कर जानना चाहा था। 

“ हाँ इत्ते। चल अब दरवाजे पर कपड़ा मार। “ 

तो एक और बात उसे पता चली कि इतनी शांति से जीने के लिए पढ़ा लिखा होना बहुत जरूरी है। 

अगले दिन बाहर से अखबार उठाकर भीतर लाने से पहले उसने वहीं फर्श पर फैला लिया था। कागज पर कुछ था तो सही पर क्या उसके पल्ले नहीं पड़ा। इसमें से कहानी कैसे दिखती हैं ? - वह बैठी सोच ही रही झी कि बहादुर आया और अखबार छीन कर ले गया। अब अंदर हँस हँस कर उसकी नकल उतार रहा था। 

“ मैं पढूंगी। “ अपमान से आहत उसके मुँह से निकला था।

“ पढ़ना चाहती हो लड़की भई शांति सुन, मेरी एक सहेली है मालती। हर रोज शाम को पाँच बजे से साढे़ छ बजे तक पानी की टंकी के पास पार्क में मजदूरों के बच्चों को पढ़ाती है। किताबें वगैरह भी देते हैं। इसे ले जाना। मैं फोन कर देती हूँ। “

शाम को वह माँ के साथ पार्क में गयी थी। उसके जैसे कई बच्चे दरी पर बैठे पढ़ रहे थे। वह भी उनका हिस्सा हो गई। उसकी लगन और मेहनत के साथ साथ कुछ बनने का संकल्प देख कर ही मालती मैम ने उसे अचला नाम दिया था वरना वह तो तब तक पुतलीदेवी पुकारी जाती थी। 

अचला ने इस नये नाम को सही साबित करते हुए दिनों में ही अक्षर ज्ञान, गिनती सीख ली तो मालती ने ही सरकारी स्कूल में उसका दाखिला करवा दिया। धीरे धीरे कदम रखते, उसने दसवीं अच्छे अंकों से पास कर जे बी टी में दाखिला ले लिया। एक बार फिर से कोहली मैम उसकी तारक बन आई थी। 

“ सुन शांति ! लड़की का दाखिला करवा देते हैं। आज से तेरी तनख्वाह बंद। इसकी जितनी भी फीस होगी, मैं दे दूँगी। तुम माँ बेटी पहले की तरह काम करती रहो। इसका कोर्स हो गया तो तुम दोनों की जिंदगी बन जाएगी।“ 

शांति तो श्रद्धा से दूहरी हो गयी थी। 

दो साल कैसे बीत गये, पता ही नहीं चला। अचला ने यह परीक्षा भी पार कर ली थी। उसके बाद कई जगह इंटरव्यूह दिए। अब जाकर यह प्राइवेट नौकरी मिली है। पाँच हजार ही सही पर इज्जत से मिल रहा है। उसके पास भी अब कई साड़ियाँ, सूट हो गये हैं और दो जोड़ी सैंडल भी।

पर इतना वह समझ गयी है कि अभी लड़ाई बहुत लंबी है। उसे टोले की हर लड़की को पढ़ाना है, इस काबिल बनाना है कि वह हिंसा का प्रतिकार करने में समर्थ हो सके। अभी खुद बहुत पढ़ना है कि एक मुकाम हासिल कर सके। 

वह अब भी हर रोज पार्क जा रही है। अचला बनने और बनाने की मुहिम जारी रखने के लिए। मिश्रा मैम ने बताया था न – अचला माने पहाड़ या पहाड़ जैसा मजबूत। वह अपने आप को रोज यह वाक्य याद दिलाती रही है। चारों टोलों के बच्चे अपना पाठ याद कर रहे हैं। 



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