टूटा हुआ 'फ्लाईओवर और मन'
टूटा हुआ 'फ्लाईओवर और मन'
मैं कमरे में आई, तो अभिमन्यु थरथरा रहे थे। मैंने झट से ए०सी० बढ़ाने के लिए रिमोट उठाया, देखा, ए०सी० फूल पर थी। बावजूद इसके पसीने से तर-ब-तर उनका शरीर, डर से व्याप्त कौंधती हुई आँखें, स्फटिक से सूखे होंठ, और पसरा हुआ सन्नाटा, ये सब किसी अनिष्ट की आशंका से मुझे घेरने लगे, मानो बिजली गिरने के पहले सारे बादल इकट्ठे हों रहे हों और कब किसके सिर गिर जाएँ, कहा नहीं जा सकता।
मैंने अभिमन्यु के कंधे पर हौले से हाथ रख दिया। वे अचकचा गए, उनकी बेखौफ आँखों में एक निरीह और अवश भरी कातरता दृश्यमान हो रही थीं, वे किसी बच्चे के जैसे लिपट गए मुझसे। बिना कुछ कहे, बिना सुने। फिर अचानक ड्राइंग रूम की ओर भागे।
मेरे मन में अजीब सा भय व्याप्त हो गया। अभिमन्यु, आज जैसे कभी दिखे ही नहीं थे मुझे। मैं भी उनके पीछे आ गयी। वे चैनल बदल रहे थे। उनकी अंगुलियाँ हवा की गति को छू लेना चाहती हों मानो। कि तभी उनकी अंगुलियाँ रुकीं, आँखें ठहर गयीं, और आगे जो मंजर उभरा था, उसे देख, वे खुद को संभाल न सके। मैं स्तब्ध नजरों से कभी चैनल तो कभी उन्हें देख रही थी। सुबह के 11 बज रहे थे। चहल-पहल, शोर, गाड़ियों की आवाजों और बच्चों की खिलखिलाहट से परिपूर्ण हमारा इलाका, किसी साँप का ग्रास बना लग रहा था। जिंदगी की अस्थिरता और आकस्मिकता एक साथ चिह्नित होने लगीं थीं। मेरा दिल दहल उठा।
अभिमन्यु की तरफ बढ़कर मैंने गले लगा लिया उन्हें। कभी-कभी ठिठुरती ठण्ड में, हल्की सी आँच भी, हमें कुम्हला जाती है। अभिमन्यु फूट-फूट कर रोने लगे। कुछ-कुछ देर में अपने भर्राए गले से विनीत का कोई हिस्सा कहते, और फिर खुद ही ढह जाते। मैं उन्हें लम्बे समय तक मूक सांत्वना देती रही।
पर क्या हम पा सकते हैं किसी के मन का कोना, वह भी तब, जब उसके अन्तःस्थल में निरीह अंधकार और अकेलापन व्याप्त हो ?
डोर बेल बजी तो हम कुछ सचेत हुए। शुचि थी। मैने गेट खोल के चाय बनाने को कह दिया। और खुद फ्लाइट की टिकट देखने लगी। अभिमन्यु अभी भी वैसे ही बैठे हुए थे।
"अभि, 4 बजे की फ्लाइट बुक कर दूँ? इसके पहले कोई फ्लाइट नहीं है अहमदाबाद की।" मैंने कहा।
अभिमन्यु ने मेरी तरफ देखा एक नजर और फिर कुछ सोचने लगा।
मैंने फ्लाइट बुक कर दी। अकेले अभिमन्यु की। मैं खुद भी जाना चाहती थी। लेकिन मेरी प्रेग्नेंसी के आठवें महीने में मेरा उसके साथ जाना, उसे सम्भालने के बजाय, उसे परेशानी में डाल सकता है, इसलिए मैंने पूछा भी नहीं।
मुझे वो दिन याद आने लगे जब विनीत पहली बार घर आया था। वो 6 फुट का हँसता-मुस्कुराता चेहरा, छोटी लेकिन आकांक्षाओं की लंबी फेहरिस्त से गढ़ी आँखें, लम्बा माथा और उस पर झुकते हुए उसके काले घने बाल उसकी पहली और प्रभावशाली झलक के परिचायक थे। उसकी सबसे खूबसूरत बात उसका बड़बोलापन था। जहाँ-तहाँ की हज़ार बातें तो उसके होंठों से बाहर आने को व्याकुल हुई रहती थीं। एक मोह, स्नेह, सम्मान, करुणा जैसे गुणों के साथ ही उसका आत्मविश्वास, उसका सूक्ष्म विश्लेषण करता नजरिया, उसके पैंतरे, उसके अनसुलझे बेताद हर्षोल्लास से भरे किस्सों के प्रति कौन ना आकृष्ट हो जाए!!
"भाभी आपको पता है, कॉलेज में अभि के क्या कारनामे थे?" विनीत ने कहा।
"नहीं, नहीं बताओ। ये तो फुर्सत ही नहीं पाते बताने को।" मैंने कहा और अभि की ओर देखने लगी।
वह भौंहे चढ़ाए हुए विनीत को देख रहा था।
इन दोनों में हमेशा ही ऐसे ही खींचातानी चलती रहती थी। कभी वो उसके कान पकड़ता, कभी वो उसके।
मैं और विनीत हँसने लगे। हम दोनों को हँसता देख, अभि लूप पर ग़ज़ल लगा कर सुनने लगा।
गम-ए-दिल को आँखों से छलक जाना भी आता है।–तड़पना भी हमें आता, है तड़पाना भी आता है।–2
"भाभी यही-यही, यही बता रहा था मैं। अभि काहे इत्ते गजल सुना करता है।" विनीत ने कहा और हम जोर-जोर से हँसने लगे।
दीदी, चाय निकाल दूँ? या...
शुचि बोली तो मैं आज में वापस आई। घड़ी देखा, 2 बज चुके थे। अभि वैसे ही अवश के साथ पड़ा हुआ था।
"नहीं, तुम जाओ मैं निकाल लूँगी।" मैंने शुचि से कहा।
किसी तरह अभिमन्यु ने चाय पी और एयरपोर्ट के लिए निकल सका।
मौसम विच्छिन्न हो गया था। हवाएँ बादलों को इतर-बितर कर, सनसनाती हुई बहती जा रही थीं। कभी एकाएक अँधेरा छा जाता, फिर दूसरे ही क्षण कोई आलोक बिखरने लगता। तरावट फैलती जा रही थीं। ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो मन की कशमकश ने दिशाओं को घेर लिया है।
मैंने मन कड़ा किया और न्यूज़ खोल ली। फिर वही न्यूज़, फिर वही दृश्य, फिर वही नाम
विनीत....
"अहमदाबाद में टूटा फ्लाईओवर, हजारों लोगों ने खोई जान।"
एक शख्स जिसे हॉस्टिपल ले जाया जा रहा है, उसकी आईडी में विनीत शर्मा नाम लिखा है, ऐसा एक पत्रकार बार-बार बोल रहा था।
अभी पिछले महीने ही विनीत का प्रमोशन अहमदाबाद की किसी ब्रांच में किया गया था। जाने से पहले अभिमन्यु की पसन्दीदा मिठाइयाँ और इस आने वाले नवजात के लिए खिलौने लेकर मिलने आया था।
मैंने जब कहा, "इतनी जल्दी खिलौनों की क्या जरूरत थी? तब नहीं आओगे क्या ?"
तो कहने लगा, "कल पता नहीं कहाँ रहूँ, आ पाऊँ भी या नहीं! इसलिए छोटी कहे ना, कि चाचू ने मेरे लिए कुछ नहीं लाया, पहले ही ला दिया ये सब।"
और फिर अपने बेफिक्री वाली हँसी में हँस दिया। हम भी हँसने लगे।
हमें क्या पता था कि वो शायद आज के दिन की ही बात कर रहा था ?
क्या होने वाली घटनाओं का अंदेशा पहले ही मिलने लगता है, जिसे हम अनमना कर दिया करते हैं!
8 बजने को आये थे। मन आशंकाओं से व्याप्त था। मैंने अभि को कॉल लगाई। तीसरी बार मे कॉल उठी।
"हलो, अभि!
विनीत ठीक है न ?"
मेरे इतना कहते ही अभि फिर फफक-फफक कर रोने लगा।
"विनीत अभी ICU में है। खतरा अभी टला नहीं है, कुछ भी हो सकता है।" उसने किस तरह यह बताया, यह बयाँ नहीं किया जा सकता।
विनीत के पापा पहुँच गए थे। अभिमन्यु की कंडीशन देखकर उन्होंने ही उसकी रिटर्न टिकट करा दी थी। सुबह आ जाए शायद वह।
रात भर इन्हीं विचारों के उहा पोह में गुजर गया। स्टडी रूम की लाइट ऑन ऑफ करते-करते कब नींद आ गयी, याद नहीं।
डोर बेल से ही नींद खुली। अभि थे। वही गिरा हुआ सा चेहरा, बेतरतीब बाल, खामोश नजरें और शिथिल पड़ा हुआ शरीर। मेरा मन बैठ गया।
कुछ दिन जिंदगी यूँ ही चलती रही। दो-एक दिन में अभि विनीत को देखने चले जाया करते थे। अभी कुछ भी सुधार नहीं हुआ था।
घर में मायूसी ने घर कर लिया था। लूप पर गजलें नहीं बजतीं थीं अब, बागबानी तो जैसे सदियों पुराना शौक हो गया हो। बगीचे के तरफ नजर जाती, तो लगता, वे खुद के आशिये में बुला रहे हैं।
अभिमन्यु ने काम पर जाना छोड़ दिया था। घर में बेसुध पड़े जाने क्या सोचता रहता है! मैंने उसके अकेलेपन में खुद को कभी भी शामिल नहीं होने दिया। मुझे हमेशा से लगता आया है, " कुछ घावों का इलाज अकेलेपन में डूबा रहता है, उसे ढूंढ लाने के लिए इसकी तलहटी में विचरण करना जरूरी है।"
इस घटना को महीनों गुजर गए थे। विनीत भी अब खतरे से बाहर था। सुधार भी होने लगे थे। मौसम भी बदलने लगा था। हवाएँ जरा सर्द हों, जहाँ मन को उत्फुल्ल कर देतीं थीं, वहीं अचानक से हो जाने वाली बारिश रोमांच पैदा करने लगीं थी। मेरी डेलीवरी के दिन भी अब कम ही बचे थे।
रेल का पटरी से उतर जाना फिर धीरे-धीरे चढ़ाए जाना, कितना व्यावहारिक नहीं है ?
बिल्कुल जिंदगी की तरह।
सकारात्मकता से अब सब अच्छा लगने लगा था। लेकिन अभिमन्यु का अब भी गुमसुम रहना, मुझे खलने लगा।
मैंने कितनी ही बार उसे समझाया कि अब उसे ऑफिस जाना चाहिए। विनीत इज फाइन नाउ। पर सब्जियां लाने या मुझे हॉस्पिटल ले जाने के अलावा उसने बाहर निकलना ही बन्द कर दिया था।
वह किसी और बात से अंदर ही अंदर घुट रहा है, जिसे इस स्थिति में मुझसे शेयर भी नहीं कर सकता। यह बात सोचकर मुझे खुद से चिढ़ होने लगी।
एक दिन न्यूज़ चैनल पर फ्लाईओवर के टूटने पर होने वाली डिबेट को तुरंत बंद कर देने की उसकी प्रतिक्रिया ने मेरे मन में उसकी उलझनों के तार खोल दिये। थोड़े ही। पर मैं कुछ-कुछ समझने लगी।
मैंने खोजबीन की, तो पता लगा कि, उस फ्लाईओवर को बनाने का आर्डर जिस व्यक्ति को दिया गया था, उन पर अभिमन्यु को प्रगाढ़ विश्वास था। साथ ही नए पुल जिसके निरीक्षण का काम, अभि को दिया गया है, उसमें भी यही कॉन्ट्रैक्टर है।
इस कॉन्ट्रैक्टर के खिलाफ सामानों में मिलावट कर और हल्की क्वालिटी के सीमेंट, लोहे वगैर इस्तेमाल करने के कारण जाँच बैठाई गयी है।
यानी
कहीं अभि विनीत के इस स्थिति का जिम्मेदार खुद को तो नहीं मान रहे ?
या
उनके नए प्रोजेक्ट में इस कॉन्ट्रेक्टर, जिन पर ये विश्वास के कारण उसके प्रस्तावों को बिना अधिक निरीक्षण के मंजूरी दे दिया करते थे, के भी ढह जाने और ऐसे ही किसी भयानक मंजर के घटित हों जाने की भय से डरे हुए हैं ?
मुझे खुद पर कोफ़्त हुई। मैंने इतने दिनों तक इन्हें अकेले ही घुटने दिया।
विनीत अब ठीक हो गया था बिल्कुल। कॉन्ट्रेक्टर के ऊपर भी केस चल रहा था। मैंने और विनीत ने अभिमन्यु से उसके प्रोजेक्ट में होने वाली सारी गतिविधियाँ पूछीं और उस कॉन्ट्रेक्टर की सारी धोखाधड़ी और पैसों के घाल-मेल के जाँच करके, सबूतों के साथ एक केस और कर दिया।
आखिर अभि को उस अपराधबोध से मुक्त करने का यही तरीका हम दोनों को सुझा!!
उस फ्लाईओवर मे सैकड़ों लोगों ने अपनी जान गँवाई थी, कितने ही परिवार बेघर और अनाथ हो गए ! कितनों की रोजी-रोटी छीन गयी। इस भयानक दृश्य के बाद जनता में आक्रोश था और सरकार के खिलाफ अविश्सनीयता। इस कारण यह मामला मीडिया में छाया रहा, तारीखें जल्दी-जल्दी लगीं। और अंततः उस कॉन्ट्रेक्टर सहित तमाम लोग जो इस भ्रष्टाचार के गिरोह में व्याप्त थे, सबको सजा और जुर्माना हुआ।
अभिमन्यु हर पेशी में गए थे। इस पक्ष के गवाह के रूप में। आज जीत के दिन भी गए वो। मौसम ने पहले ही हमें आश्वस्त कर दिया था इसके बारे में शायद। चूंकि रात भर की तेज बारिश के बाद आसमान खुल चुका था। सूरज अपना आलोक बिछाता हुआ मुस्कुराए जा रहा था, बगीचे में गुलाब, चमेली, गुलबहार, मोगरे के फूलों से उड़ती सौरभ मन को प्रसन्नता की हिलोरों से भर दे रही थी। विनीत ने सुबह उठकर आज लूप गजल लगा दी थी, वह कल रात ही बारिश में भीगते हुए आया था।
मीठी दही खिलाकर जब अभि और विनीत को बाहर तक छोड़कर अंदर आई, तो लगा, "दुःखों को सैलाब खत्म हो गया है और नयी किरणों, नए नीड़ के संचार की बेला के उदय का समय आ गया है।"
कुछ देर बाद न्यूज़ खोला तो फैसला हमारे ही पक्ष में था। अभि अपने भावनाओं के जंजाल से मुक्त हो गया था।
शुचि छुट्टियों पर गयी थी।
आज रात विनीत और अभिमन्यु ने ही खाना बनाया। गले लगकर रोते भी रहे दोनों। फिर खुद ही हँसने लगे अपने ऊपर।
खाना खाने के बाद मुझे दर्द शुरू हो गया। जल्दी ही मैं हॉस्पिटल की बेड पर थी। अभि मेरे पास खड़ा मुस्कुरा रहा था। और विनीत खिलौने लाना, नहीं भूला था।
