तबादले
तबादले
प्रशासनिक व्यवस्था में तबादलों की पावन-सरिता बहती है। जो नीति से कभी कभार ही बहा करती है बल्कि ”रीति” से अक्सर बहा करती है। तबादलों की बहती इस नदिया में कौन कितने और कहाँ तक हाथ धोता है ये तो भगवान, तबादलाकांक्षी, और तबादलाकर्ता ही जानता है। यदा कदा जानता है तो वो जो तबादलाकांक्षी, और तबादलाकर्ता के बीच का सूत्र हो। इस देश में तबादला कर्ता एक समस्या ग्रस्त सरकारी प्राणी होता है। उसकी मुख्य समस्या होती हैं...बच्चे छोटे हैं, बाप बीमार है, मां की तबीयत ठीक नहीं रहती, यानी वो सब जो घोषित तबादला नीति की राहत वाली सूची में वार्षिक रूप से घोषित होता है। अगर ये सब बे नतीज़ा हो तो तो अपने वक़ील साहबान हैं न.....! जो स्टे नामक संयंत्र से उसे लम्बी राहत का हरा भरा बगीचा दिखा लाते हैं। तबादले पहले भी होते थे अब भी होते हैं क्योंकि यह तो एक सरकारी प्रक्रिया है। होना भी चाहिये अब घर में ही लीजिये कभी हम ड्राईंग रूम में सो जाते हैं कभी बेड-रूम में खाना खाते हैं। यानी परिवर्तन हमेशा ज़रूरी तत्व है।
गिरी जी का तबादला हुआ, उनके जगह पधारीं देवी जी ने आफ़िस में ताला जड़ दिया ताक़ि गिरी जी उनकी कुर्सी पर न बैठे रह जाएं। देवी जी सिखाई पुत्री थीं सो वही किया जो गिरी के दुश्मन सिखा रए थे। अब इस बार हुआ ये कि उनका तबादला हुआ तो वे गायब और इस डर से उनने कुर्सी-टेबल हटवा दिये कि कार्यालयीन टाईंम पर कहीं रिलीवर नामक दस्यु आ धमका और उनकी कुर्सी पर टोटका कर दिया तो ?
इस तो भय से मोहतर्मा नें कुर्सी-टेबल हटवा दिये। बहुत अच्छा हुआ वरना दो तलवारें एक म्यान में।।?
तबादलों का एक और पक्ष होता है जिसका तबादला कर दिया जाता है उसे लगता है जैसे वो बेचारा या बेचारी अंधेरी गली से हनुमान चालीसा बांचता या गण्डा ताबीज़ के सहारे निकल रहा/रही थी... और कोई उसे लप्पड़ मार के निकल गया। ऐसी ही स्थिति होती है तबादला ग्रस्त की भी। अकबकाया सा ऐसा सरकारी जीव फौरी राहत की व्यवस्था में लग जाता है।
तबादलों को निस्तेज करने वाले संयंत्र का निर्माण भारत की अदालतों में क़ानून नामक रसायन से वकील नामक वैज्ञानिक किया करते हैं। इस संयंत्र को स्टे कहा जाता है। जिस पर सारे सरकारी जीवों की गहन आस्था है। वकील नामक वैज्ञानिक कोर्ट कचैरी के रुख से भली प्रकार वाकिफ होते हैं।
इन सब में केवल सामर्थ्य हीन ही मारा जाता है। सामर्थ्यवान तो कदापि नहीं। इसके आगे मैं कुछ भी न लिखूंगा वरना ..... आचरण नियम लागू होने का भय है ।
भरे पेट वाले मेरे जैसे सरकारी जंतु क्या जानें कि देश की ग़रीब जनता खुद अपना तबादला कर लेती है दो जून की रोटी के जुगाड़ में। बिच्छू की तरह पीठ पे डेरा लेकर निकल पड़ता है। यू पी बिहार का मजूरा निकल पड़ता है आजीविका के लिये महानगरीयों में। उधर वीर सिपाही बर्फ़ के ग्लेशियर पर सीमित साधनों के साथ तबादला आदेश का पालन करता देश के हम जैसे सुविधा भोगियों को बेफ़िक्री की नींद सुलाता है रात-दिन जाग जाग के।भूखा भी रहता ही होगा कभी कभार कौन जाने।
