तकनीकी पृष्ठभूमि से आने के बावजूद मुझे कभी यह नहीं लगा कि तकनीकी ज्ञान को आत्मसात करने के लिए केवल अंग्रेज़ी ही एकमात्र माध्यम है। वर्ष 1991-93 के आसपास जब मैं पॉलिटेक्निक में इलेक्ट्रॉनिक इंजीनियरिंग पढ़ रहा था, तब तकनीकी पुस्तकें हिंदी में भी उपलब्ध थीं। हम कैपेसिटर को "संधारित्र", रेजिस्टेंस को "प्रतिरोध" और करंट को "धारा" कहकर पढ़ते थे। नाम चाहे अंग्रेज़ी में लें या हिंदी में, ज्ञान की उपयोगिता वही रहती है।
वर्तमान में, जब मैं केंद्रीय विद्यालय संगठन में एक तकनीकी शिक्षक के रूप में अपनी सेवा के अंतिम चरण में हूँ, पीछे मुड़कर देखता हूँ तो पाता हूँ कि हिंदी भाषा के प्रति लोगों की सोच में एक सकारात्मक बदलाव आया है। अब लोग अंग्रेज़ी जानने के साथ-साथ हिंदी को भी आत्मगौरव से बोलते हैं। यह देखकर संतोष होता है कि अब हिंदी को लेकर संकोच नहीं, बल्कि सम्मान का भाव है,रोजगार के अवसर की भी कमी नहीं है।इंटरनेट माध्यम ने भी भाषाओं की दूरियों को काफी हद तक कम किया है।
इस पूरे सफर में एक नाम ऐसा है जिसने मेरे जीवन को एक नया मोड़ दिया — श्री राजीव कुमार मिश्रा, जो केंद्रीय विद्यालय बीरपुर में हिंदी के स्नातकोत्तर शिक्षक थे,अब दिल्ली में कार्यरत हैं। उनसे हुई मेरी मित्रता केवल संवाद की नहीं, बल्कि अभिव्यक्ति की चिंगारी की मित्रता थी।
राजीव सर ने एक दिन मुझसे आग्रह किया कि मैं कुछ पंक्तियाँ लिखूं — एक कविता। मैंने हिचकिचाते हुए कहा, “सर, मैं तो तकनीकी शिक्षक हूँ, मेरे लिए यह थोड़ा कठिन है। विद्यालय में कई अच्छे लेखक हैं, उनसे लिखवा लीजिए।” लेकिन उनका जवाब था, “हमें नई सोच चाहिए, विविधता एक अलग दृष्टिकोण चाहिए – और वह आप दे सकते हैं।विद्यालय मैगज़ीन के लिए ही तो लिखना है। ” वो सब तो लिखते ही रहते हैं।
उनकी सराहना और विश्वास ने मेरे भीतर कुछ उम्मीद जगा दिया। मैंने हिम्मत करके कुछ पंक्तियाँ लिखीं, और जब उन्होंने उस कविता को बिना किसी काट छांट के मूल स्वरूप में ही,विद्यालय की पत्रिका में प्रकाशित किया — वह पल मेरे लिए अविस्मरणीय व ऐतिहासिक था। कभी भी छात्र जीवन व उस समय तक इतने वर्षों में, पहली बार लगा कि भीतर कुछ और भी है, जो शब्दों में आकार ले सकता है।
उस एक प्रोत्साहन ने मुझे मंच पर भी पहुंचा दिया — 48 वर्ष की आयु में पहली बार मैंने मंच से अपनी कविता पढ़ी। विषय था – भ्रष्टाचार,कविता सराही गई, और संचालक महोदय ने सुझाव दिया कि विषय के साथ समाधान भी जोड़ें तो प्रभाव और बढ़ेगा। वह सुझाव मेरे लेखन को और भी गहराई देने वाला बना।
फिर राजभाषा हिंदी दिवस, हिंदी पखवाड़ा और विद्यालय की पत्रिकाओं के लिए मैं लगातार लिखने लगा। कोविड काल में जब ऑनलाइन मंच उपलब्ध हुए, तो मैंने अपने भीतर की भावनाओं को कविता और कहानियों में ढालना शुरू किया। उस एक प्रेरणा ने मेरे भीतर के लेखक और कवि को जन्म दिया। उसी प्रेरणा के कारण केंद्रीय विद्यालय संगठन की हिंदी पत्रिका “काव्यमन्जरी” में मेरी कविता प्रकाशित हुई। क्रमशः ऑनलाइन प्लेटफार्म ,अमर उजाला के ऑनलाइन माध्यम पर पर अनेकों कविताएं लिखी ,जो सफर अभी तक जारी है, एक सही मार्गदर्शक के कारण।
अब पीछे मुड़कर देखता हूँ तो लगता है — बस एक चिंगारी चाहिए थी। वह चिंगारी थी — किसी का विश्वास, किसी का प्रेम से किया गया आग्रह, किसी की यह बात कि "तुम कर सकते हो।"
अपने छात्रों के लिये भी ऐसा कुछ करना चाहता हूं, किसी प्रसंग ,संस्करण में ,कोई मुझे भी राजीव सर की तरह कभी याद करे।