संस्कार
संस्कार


"बहुत दिनों बाद मिलने आई गुड़िया"
"आजकल नौकरी और बच्चों से ही फुर्सत नहीं मिल पाती चाची। मायके आने के लिए भी सोचना पड़ जाता है"
"जानती हूँ, शादी के बाद एक औरत पर कितनी जिम्मेदारी आ जाती है। तुम्हारे ऊपर तो नौकरी की भी जिम्मेदारी है। पर कभी-कभी फोन पर ही अपनी इस चाची का हालचाल पूछ लिया करो"
"हाँ चाची" यह बोलकर मैंने अपना सिर झुका लिया।
"कोई बात नहीं बिटिया। तू आई है, यही मेरे लिए बहुत है"
"अच्छा चाची, ये बताओ बाकी सब कैसा चल रहा है"
"क्या बताऊं बिटिया, ऐसे कपूत संतान को जन्म दिया है तो सजा तो मिलनी ही है" यह बोलकर चाची अपनी साड़ी की कोर से आँसू पोछने लगी।
चाची को रोते देख अपने गले से लगा कर उन्हें दिलासा दी और वहाँ से निकल कर अपने मायके वाले घर में आ गई जो उनके घर से महज कुछ सीढ़ियों की दूरी पर है।
जब चाची का मेरे चाचा से ब्याह हुआ था तो मैं तीन साल की थी। माँ बताती है कि चाची के आने के बाद उनमें और माँ में बहनों जैसा प्यार था। दोनों हर काम साथ मिलकर करती। माँ कहती हैं कि चाची स्वभाव की ठीक थी पर उन्हें गुस्सा बहुत तेज आता था। मेरी दादी जो मेरे लिए हमेशा किसी परी से कम नहीं थी उनके और चाची के बीच रिश्ते कभी अच्छे नहीं रहें। यहाँ तक मेरी माँ से भी दादी के रिश्ते बहुत मधुर नहीं थे। दरअसल मेरी दादी जैसी एक आम महिला होती है, ठीक वैसी ही थी। अपने खून से बेहद प्यार, बाकी दुनिया गैर। इसकारण दिल से वह अपनी बहुओं को कभी नहीं अपना पाई।
बहुएं चाहे कितना भी उनके और परिवार के लिए कर लें, पर दादी के मुँह से कभी उनके लिए तारीफ नहीं निकलती थी। अगर गलती हो जाये तो फिर जगह-जगह ढिंढोरा पीटने से नहीं चुकेंगी। दादी का अपनी बेटी मतलब मेरी बुआ के प्रति बेहद स्नेह का भाव था। इतनी अधिक कि हमेशा उनकी तुलना अपनी बहुओं से कर तारीफ़ की पुल बांधती रहती। मुझे हमेशा बुआ की परछाई कहती थी। उनकी दोनों बहुओं में से कोई भी अगर बीमार पड़ जाये तो कभी इस बात पर यकीन नही करती। उन्हें हमेशा ही आराम करने का बहु का कोई तरकीब नजर आता।
अपनी दोनों बहुओं को एक साथ मायके कभी नहीं भेजती ताकि घर के काम का बोझ उन पर नहीं पड़े। अगर हम बच्चे अपने नानी घर जाते तो वापस आने पर एक ही बात बोलती "पता नहीं कैसी जगह अपने बेटे का ब्याह कर दिया मैंने, जहां बच्चों को भी भर पेट आनाज नहीं देते। कितना कमजोर हो कर आयें है सब"। यह सुन कर माँ को गुस्सा आता पर दादी को कभी जवाब नहीं देती थी, पर यह बात चाची के मायके आने पर बोलती तो चाची गुस्से से पैर पटकते, चिल्लाते हुए अपने कमरे की तरफ रूख ले लेती।
मैं पूरे परिवार में सभी बच्चों में सबसे बड़ी थी इसलिए दादी का स्नेह मेरे ऊपर बहुत ज्यादा था, पर सारे बच्चे ही उनकी जान थे। बहुओं के आने के बाद चाहे वह घर कार्यों से रिटायरमेंट ले ली हों, पर हम बच्चे कुछ भी खाने की चीज उनसे बनवाने की जिद्द करते तो मजाल है कि दादी ना कर दें। मुझे उनके हाथ की बनी दम आलू की सब्जी बेहद पसंद थी। दादी जब तक जिंदा रही, चाहे सही से हाथ पैर चले या ना चले सिर्फ मेरे लिए दम आलू बनाने किचन में घुस जाती। बाद में जब मैं बड़ी हो गई तो उनकी सेहत को लेकर मना भी करती तो हंसते हुए कहती "खा ले गुड़िया जब तक जिंदा हूँ, बाद में इसी सब्जी को देख मुझे याद कर आँसू बहायेगी"।
हम तीन भाई बहन है। हम तीनों का ही दादी से बेहद स्नेह था, पर चाची के दोनों बच्चे कभी दादी के करीब नहीं आयें। ऐसा नहीं कि दादी ने उनसे प्यार नहीं किया, दादी का प्यार तो अपने सभी पोते पोतियों के लिए भरपूर था, पर चाची ने कभी अपने बच्चों को उनके करीब जाने ही नहीं दिया। दादा जी का व्यवहार कभी अपनी बहुओं के लिए बुरा नहीं रहा, पर दादी से गुस्सा होने के कारण चाची, दादा जी पर भी नाराज रहती। इसीकारण वह अपने बच्चों को दादा जी से भी दूर रखती। जब वो बेहद छोटे थे तभी से उनके मन में अपने दादा, दादी, बुआ सबके लिए नफ़रत भरा पड़ा था। इसके पीछे एक ही कारण था अपने अबोध बच्चों से उनकी दिनरात बुराई करना।
एक बार की बात है चाची का बड़ा बेटा सोनू एक छड़ी लेकर दादी को पीटने लगा। चाची उसे डांटने की जगह खुश होकर हंसने लगी। मम्मी ने जब उनसे सोनू को रोकने की बात कही तो हंसते हुए बोली "मारने दीजिये ना दीदी,ये हम दोनों पर हो रहे अत्याचार का बुढ़िया से बदला ले रहा है"। माँ ने उस दिन उन्हें बहुत डांटा था और सोनू से जबरदस्ती छड़ी भी छीन ली थी। इसकारण चाची माँ से नाराज होकर करीब दस दिन तक उनसे बात नहीं की थी।
माँ की एक चीज हमेशा मुझे पसंद आई। चाहे दादी से उनका कितना भी मनमुटाव हो, उन्होंने कभी भी हम बच्चों को दादी के करीब जाने से नहीं रोका। वो तो खुद हमें उनका सम्मान करने को कहती। दादा-दादी को मसले को लेकर माँ और चाची में मतभेद होने लगें। चाची को लगता कि माँ दुनिया को दिखाने के लिए अच्छी बहू बनने का ढ़ोंग करती है। दादा-दादी को लेकर उनका जो व्यवहार होता माँ उसे देख अक्सर उन्हें टोक देती और वह समझने की जगह उलटे माँ से उलझ जाती। एक समय ऐसा हुआ कि एक ही घर में रहते हुए भी किचन और घर बंट गया। चाची अपने परिवार सहित घर के ऊपर वाले माले पर शिफ्ट हो गई। दादा-दादी के खाने पीने का हिसाब भी बंट गया। एक हफ्ते वो लोग हमारे घर खाते तो दूसरे हफ्ते चाची के घर। एक दिन दादी माँ के पास आई और फूट-फूट कर रोने लगी। जब माँ ने कारण पूछा तो रोते हुए बोली
"क्या बताये दुल्हन, मोनू(चाची का दूसरा बेटा) बोलता है कि दूध बहुत महंगा हो गया है दादी। अब तुम दोनों चाय का मोह छोड़ दो। ऐसे भी इस उम्र में चाय नहीं पीते हैं"। उस दिन के बाद से माँ ने हमेशा के लिए दादा-दादी के खाने पीने का इंतजाम खुद की ही निगरानी में रखा।
पंद्रह साल पहले की बात है। दादी बहुत बुढ़ी हो चुकी थी। एक दिन सोनू ने दादी से कहा "कब मरोगी दादी। इतनी बुढी हो चुकी हो, इस उम्र तक कौन जीता है"।
यह बात सुन कर मुझे बेहद बुरा लगा और सोनू पर गुस्से ये चीख पड़ी।चाची वहीं थी। बेटे को इस बात पर डांटने की जगह उलट मुझ पर ही वार किया "क्या गलत बोल दिया सोनू कि इतना चिल्ला रही हो गुड़िया। ये बुढ़िया नहीं मरेगी तो क्या समय रूक जायेगा। इस उम्र में शायद ही कोई जीवित रहता है, पर यह तो अमर होकर आई है"।
चाची की बात का मैंने कोई जवाब नहीं दिया क्योंकि चाची दादी के नफ़रत में इतनी अंधी हो चुकी थी कि उन्हें और कुछ नजर नहीं आता था। माँ हम भाई-बहनों से अक्सर कहती "चाची गलत हैं। हम उनकी बात कभी ना सुने। हमेशा अपने दादा-दादी के लिए सम्मान का भाव रखें। उन दोनों के आशीर्वाद से ही हम जिंदगी की हर लड़ाई मजबूती से लड़ सकेंगे"।
माँ की बात हम तीनों भाई-बहन ने गांठ बाँध ली। अपने बड़ों का सम्मान हमेशा सर्वोपरि रखा। आज हम सफलता के जिस भी पड़ाव पर हैं उसमें माँ के दिये संस्कार और दादा दादी का आशीर्वाद का अहम भूमिका है। चाची के दोनों बच्चे घर के पॉलिटिक्स में ही फंसे रहें। पढाई से ज्यादा बड़े-बड़े सपने देखते रहें। उनके ऊंटपटांग सपनों के पीछे चाची, चाचा के सारे पैसे फेंकती रही। चाचा के पैसे जब कम पड़ने लगें तो एक-एक कर उनके लिए अपने गहने तक बेच दियें। अब चाचा की तबीयत खराब रहने लगी है। तीस पार गये उनके बच्चे अब पिता के पेंशन पर ही निर्भर है। पैसे कम पड़ते हैं तो माता-पिता को ही गाली देने लगते हैं। चाची को शायद अब अपनी गलती नजर आने लगी है। माँ बताती हैं कि जो चाची उनसे मुँह फेर बैठी थी अब आये दिन माँ के पास आकर अपनी पुरानी बात को लेकर पछताती है और माँ की परवरिश की तारीफ़ करते नहीं थकती।
मैं चाची से मिलने के बाद माँ के पास आकर बैठ गई और धीरे से अपना सिर उनकी गोद में रख दिया।
"क्या हुआ गुड़िया?" माँ ने अपना हाथ मेरे सिर पर फेरते हुए कहा।
"चाची को देखकर बहुत दया आ रही थी माँ। शरीर पर गहने के नाम पर कुछ भी नहीं। एक बेहद सस्ती पुरानी साड़ी लपेटे बैठी थी"
"सब उसके ही किये का नतीजा है वरना कमी कहाँ थी। पति की सरकारी नौकरी और अब पेंशन"
"चाची को अब अपनी गलती का पछतावा हो रहा माँ"
"पता नहीं, पछतावा है या समय का मार" माँ ने चाची पर तंज कसा।
उस दिन चाची की नई पुरानी बातें एक फिल्म की तरह दिमाग में घूमती रही। रात में हम सभी खाना खा ही रहे थे कि घर के दरवाजे पर चाची के चिल्लाने की आवाज सुनाई पड़ी। हम सभी भाग कर दरवाजे के पास पहुँचे।
"भैया, इनकी तबीयत बेहद खराब है। डाक्टर के पास ले जाना पडे़गा" चाची ने पापा को देखते ही कहा।
सोनू, मोनू क्या कर रहें हैं?" पापा ने चाची से सवाल किया।
"बोलते हैं हमारे पास कार नहीं है कि अस्पताल लेकर जायें। चाचा को बोलो"
"ठीक है" यह बोलकर भाई कार निकालने लगा। पापा भाई और चाची चाचा को लेकर अस्पताल निकल गयें। सोनू और मोनू घर में रहते हुए भी चाचा को देखने तक अस्पताल नहीं गयें। दूसरे दिन मैं और माँ भी चाचा को देखने अस्पताल गयें। उस समय तक चाचा की हालत स्थिर हो चुकी थी। तब तक भी सोनू और मोनू का एक बार भी अस्पताल आना नहीं हुआ था। पापा और मेरे दोनों भाई बारी-बारी से अस्पताल के चक्कर काटते रहें। चाचा की हालत सुधरने लगी थी। अस्पताल का पूरा खर्च पापा ने उठा रखा था। चाचा डिस्चार्ज हो कर घर आ गयें।
चाचा के घर आने के बाद पापा दुखी होकर माँ से बोलने लगें "कितने नालायक बेटे हैं दोनों। पिता को देखने तक अस्पताल नहीं आयें। बोलने पर कहते हैं कि हम डाक्टर नहीं कि हमारा अस्पताल जाना जरूरी था"
"उन दोनों से तो कोई उम्मीद करनी ही बेकार है। जिस इंसान के परवरिश में ही जहर भरा हो उससे अमृत की गुंजाइश रखना बेवकूफी है" माँ ने पापा को समझाते हुए फिर चाची को ही आड़े हाथ लिया।
माँ जब यह बोल रही थी तब अचानक से चाची सामने खड़ी दिखी। शायद बाहर का दरवाजा खुला था इसलिए चाची बिना आवाज दिये ही अंदर आ गई थी। हम सब चाची को देखकर कुछ पल के लिए चुप हो गयें।
"सही कह रही हो दीदी। अब दोष मैं बच्चों को नहीं दूंगी। असली गुनहगार तो मैं हूँ जो बच्चों में अमृत वालें संस्कार भरने की जगह जहर भरती रही। ये दिन तो देखना था। जब तुम्हें देखती हूँ, तब समझ आता है कि कितनी गलतियाँ की है मैंने। माँजी से आपका भी मनमुटाव था, पर उस मनमुटाव को आपने बच्चों पर नहीं थोपा। अपने बच्चों के दिमाग में दादा-दादी के लिए कभी जहर नहीं भरा। यहाँ तक हम सभी को लेकर भी। एक मैं थी जो पहले सास-ससुर से नाराजगी पाल कर बच्चों को उनके खिलाफ समझाती रही, फिर आपसे नाराज होकर इस घर के सभी लोगों के खिलाफ़। समझ तब आया जब अपने बच्चे अपने नहीं रहें। किसी ने सच ही कहा है अगर अफीम का पौधा लगाया जायेगा तो आम की उम्मीद बेवकूफी है। जब मैंने अफीम लगाया है, तो काटने भी मुझे ही पड़ेंगे" यह बोलकर चाची अपने घर के तरफ रूख ली। आज चाची को सही मायने में गलती का अहसास हो चुका था।