अपने सपनों की उड़ान
अपने सपनों की उड़ान
एक दिन फेसबुक पर नोटिफिकेशन आया, खोल कर देखी तो एक फ्रेंड रिक्वेस्ट था, प्रिया आनंद। पूरी प्रोफ़ाइल खोली तो किसी आईपीएस प्रिया आनंद की रिक्वेस्ट थी। एक आईपीएस की मुझे रिक्वेस्ट कुछ समझ नहीं आया! फ्रेंड रिक्वेस्ट का क्या करूँ सोच ही रही थी कि नजर प्रोफाइल पिक्चर पर जा टिकी। फिर एक-एक कर सभी फोटो देखने लगी। लेकिन यह वह प्रिया कैसे हो सकती है जिसे मैं कभी जानती थी! वो कितनी दब्बू थी और यह कितनी कॉंफिडेंट दिख रही है।
प्रिया शर्मा मेरे साथ इंटर में थी। बहुत शांत, सरल और पढ़ाकू लड़की। दसवीं का जब रिजल्ट आया था पूरे झारखंड में टाॅपरों की लिस्ट में दूसरे नम्बर पर थी। हम सब सहेलियों में पढ़ने में सबसे तेज़ थी। लेकिन बहुत ही ज्यादा डरपोक। कुछ भी अनहोनी सुन लेती तो सीधे आँखें बंद कर भगवान का नाम लेने लगती। एक बार पता चला काॅलेज के बाहर रोड पर कुछ लोग झगड़ा कर रहे हैं, मजाल है वह उस दिन काॅलेज से घर जाने का नाम भी ले। सबने बहुत समझाया पर क्लासरूम से भी नहीं निकल रही थी। बाद में घर तक कुछ सहेलियाँ उसे छोड़कर आयी।
उसके पापा नहीं थे। जब वह 3 महीने की थी, तभी उसके सिर से पिता का साया उठ गया था। माँ भी बहुत कम पढ़ी लिखी थी। दादाजी के छोटे से पेंशन पर घर चलता था। जहाँ इंटर में सभी यह सोचने में व्यस्त थे कि आगे किस विषय को लेकर पढ़ाई करनी है, वहीं प्रिया की शादी के लिए उसके दादाजी लड़का तलाश करने में लगे थे। वह इतनी पढ़ने में तेज़ थी कि मुझसे रहा नहीं गया। एक दिन उससे बोल बैठी "तुम इतनी पढ़ने में अच्छी हो, फिर शादी कर घर बसाने का क्यों सोचने लगी? पढ़ाई पूरी करो और फिर नौकरी।"
"दादा जी की उम्र हो गई है। वह सोच रहें है कि अपनी जिंदगी में ही मुझे शादी कर सेटल कर दे। माँ भी इतनी पढ़ी लिखी नहीं। ऐसे में घर पर क्या बोलूं। परिस्थितिवश समझौता तो करना ही होगा।"
उसकी बातें सुन मैं कुछ बोल नहीं पाई। "लड़की हो समझौता ही जिंदगी है" उस समय यही तो हम अपने बड़ों से सीखते आये थे। वह राँची में अपने बुआ के घर पर रह कर पढ़ाई कर रही थी। इंटर पूरा हुआ और वह वापस अपने घर गुमला चली गई। उसके बाद उसकी कोई खोज खबर नहीं मिली। किसी भी सहेली को उसकी कोई खोज खबर नहीं थी क्योंकि उसके फुफाजी का ट्रांसफर वाला जाॅब था इसलिए उसकी बुआ भी राँची छोड़कर जा चुकी थी। जिस माध्यम से उसका कोई भी न्यूज मिलता वह भी अब नहीं रह गया था। कुछ साल बाद उसे फेसबुक पर तलाश की तो भी वह वहाँ नहीं मिली। वह कैसी है कहाँ है मैं फिर से जान पाउंगी इसकी उम्मीद भी अब मैं खो चुकी थी। पर आज अचानक से ये रिक्वेस्ट, लेकिन वह वही हो यह यकीन कर पाना मेरे लिए बेहद मुश्किल लग रहा था।
चेहरा तो बहुत हद तक मिल रहा था पर वही प्रिया शर्मा यह प्रिया आनंद हो उम्मीद मुझे कम ही लग रही थी। जिस प्रिया शर्मा को मैं जानती थी वह लंबी से एक चोटी और साधारण से सलवार कमीज़ में रहती थी जिसका दुपट्टा हमेशा सेफ्टी पिन से पिनअप किया हुआ रहता था। दुपट्टे को कमीज़ से सरकने की जो लड़की इजाज़त तक नहीं देती थी वह लड़की जीन्स टीशर्ट में दिखे तो आँखें जल्द यकीन नहीं कर पाती। जिस लड़की को साइकिल चलाने के नाम से ही डर लगे उसका हाथ अगर कार के स्टेयरिंग पर नजर आये तो यकीन कर पाने में कठिनाई तो होगी ही। मैंने झट से मैसेंजर खोला और एक मैसेज किया "हाई, क्या तुम वही प्रिया शर्मा हो जो मेरे साथ इंटर काॅलेज में थी"
थोड़ी देर बाद एक मैसेज आया "प्लास्टिक सर्जरी तो नहीं करवाई जो तुम मुझे पहचान नहीं पाओ, वही हूँ।" मैसेज देख तुरंत ही रिक्वेस्ट एक्सेप्ट किया। तब तक उसका दूसरा मैसेज आया "फोन नम्बर दो"
मैंने जैसे ही फोन नम्बर भेजा, वैसे ही मेरा फोन रिंग करना शुरू हो गया"
तुरंत फोन रिसीव कर हेलो कहा तो उधर से आवाज़ आयी "बिलकुल भी नहीं बदली तुम। वैसी ही पतली दुबली, सुंदर पर बाल क्यों कटवा लिये? लंबे, घने, धुंधराले काले बाल पंसद नहीं आ रहे थे क्या तुम्हें? जिसके दीवाने लड़के क्या, लड़कियाँ भी थीं।"
"मैंने तो बाल ही कटवायें हैं पर तू तो पूरी की पूरी बदल गई। सच कहूँ तो यकीन ही नहीं कर पा रही कि तू है।"
"यकीन कर लो, मैं ही हूँ।"
"पर हुआ कैसे ये चमत्कार? तेरी तो शादी तय हो गई थी ना? उसके बाद तू पूरी तरह से ग़ायब हो गई।"
"हाँ यार! पर वह शादी मैंने किया नहीं, गई तो थी शादी करने ही पर ऐन वक्त पर रिश्ता तोड़ दी। मात्र सत्रह साल की तो थी ही मैं। कानून भी बालिग नहीं थी।"
"पर तुझ में इतनी हिम्मत आयी कैसे?"
"इंटर की परीक्षा के बाद घर गई। शादी दो महीने बाद था। लड़के ने मुझसे मिलने की इच्छा जताई। वह मिलने आया। उससे पूछी कि "मेरे दादा जी के बाद मेरी माँ का मेरे आलावा कोई नहीं। क्या मैं उन्हें कुछ साल के बाद अपने साथ रख सकती हूँ ?" इस बात पर वह साफ इंकार कर दिया। उस दिन के बाद से मुझे अपना भविष्य माँ जैसा दिखने लगा। जब पापा ने हमारा साथ छोड़ा था तो माँ की उम्र महज अठारह साल थी। चाहते तो दादा जी माँ को पढ़ा लिखा कर उसे अपने पैरों पर खड़ा कर सकते थे पर पढ़ाना जरूरी नहीं समझें। छोटी-छोटी ख़ुशियों से समझौता करना सही लगा उन्हें पर बहू को पढ़ाना जरूरी नहीं।
मेरे होने वाले पति की सोच भी कुछ ऐसी ही लग रही थी। माँ से बोली तो वह फिर एक मजबूर और लाचार औरत की तरह चुपचाप शादी कर लेने की ही सलाह दी। पर उस दौरान मुझे लग रहा था मुझे माँ नहीं बनना। अगर कल को जो माँ के साथ हुआ वह मेरे साथ हो गया तो फिर मैं माँ की तरह मजबूर हो कर अपने बच्चे को भी जिंदगी से समझौता करने को बोलूंगी। दिल से आवाज़ आई 'नहीं'। साहस बटोरी, जिद्द पर अड़ी और वह शादी ना करने का फैसला घर पर सुना दिया। बहुत बवाल हुआ पर मैं भी जिद्द पर अड़ी रही। कुछ समय बाद ही सही माँ ने भी मेरे उस फैसले का समर्थन किया। अपने जो गहने माँ ने मेरी शादी के लिए रखे थे उसे बेच दिये मेरी पढ़ाई पूरी करवाने के लिए।
मामा जी के पास दिल्ली चली गई और पूरा ध्यान पढ़ाई पर लगा दिया। फिर दादा जी ने भी कुछ पैसे पढ़ाई के दौरान दिये। धीरे-धीरे कंफिडेंस लाई। आईएएस बनना चाहती थी पर पहले अटेम्प्ट में रैंक उतना नहीं आ पाया कि आईएएस मिल सके इसलिए आईपीएस का चुनाव करना पड़ा। सोची अगले बार फिर यूपीएससी की परीक्षा दूंगी पर पुलिस की ट्रेनिंग के दौरान जो कन्फिडेंस आया वह लगा कि बस यह कन्फिडेंस ही तो मेरा सपना था जो खुद में कहीं भीतर छुपा कर रखी थी। बस समर्पित हो गई अपनी उसी नौकरी में। माँ ने मेरी पढ़ाई के लिए अपने गहने बेचे थे इसलिए सबसे पहले नौकरी से माँ के लिए गहने बनवाये। दादा जी को भी भरोसा हो गया उनके जाने के बाद भी मेरी जिंदगी अच्छे से चलेगी। उसके बाद उन्होंने शादी के लिए कभी जिद्द नहीं किया। लेकिन मैंने शादी उनकी जिंदगी में ही की। वह भी उनके आशीर्वाद से, पर उस लड़के से जिसने मेरी माँ को अपने साथ रखने की इजाज़त दी। आज भी सोचती हूँ अगर उस समय यह फैसला नहीं लिया होता तो कैसी जिंदगी जी रही होती मैं।"
"सही की.. यही होता है, सही समय पर लिया गया सही फैसला। मैं तुम्हारे लिए बहुत खुश हूँ।"
"हाँ यार! उस समय मेरा दिल बस यही कह रहा था अब नहीं जियेगी अपने सपनों को तो ताउम्र पछतायेगी और सच्चाई यह है कि अपने सपनों के लिए हमें ही लड़ना पड़ता है। थोड़ी देर से ही सही, पर हिम्मत को जुटाया मैंने। बहुत कठिन था मेरे जैसी लड़की के लिए वह फैसला करना पर पता नहीं अचानक कैसे इतनी हिम्मत आ गई थी। थोड़े से नाराज़गी के बाद माँ ने भी तो भरपूर सहयोग दिया। जानती हो! जब माँ अपने गहने बेच रही थी, सभी उसे मना कर रहे थे पर माँ ने भी यही कहा कि वह गहने नहीं बेच रही है बल्कि इस गहने से बेटी के सपने पूरे कर रही है।
"और प्रिया शर्मा, प्रिया आनंद कैसे हो गई?"
"पति का नाम आनंद है तो फेसबुक पर उसे ही लगा लिया है, ऐसे ऑफिशियल प्रिया शर्मा ही हूँ।
"गुड, पतिव्रता नारी"
"हहहह, पतिव्रता नारी नहीं! बस पति को खुश करने का तरीका। एक तो पुलिस अधिकारी, दूसरी पत्नी। घर और बाहर दोनों जगह अपनी ही हुक़ूमत चलाती हूँ इसलिए थोड़ा तो उन्हें खुश करना पड़ेगा ना?"
"हहहह, अब शैतान भी हो गई है"
"हहहह, मजाक कर रही थी। पति इतने अच्छे और सहयोगी हैं कि उनका नाम अपने नाम के जोड़ना अच्छा लगता है"
"हमेशा ऐसे ही खुश रहो" यह बोल उस दिन प्रिया का फोन रख दिया, पर उस दिन प्रिया से बात कर इतना तो समझ आया कि इंसान को अपने सपनों के लिए खुद ही लड़ना पड़ता है। परिवार वाले दे सकते हैं, पर अपने सपनों के लिए आवाज़ तो हमें खुद ही उठानी होगी।