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अभिषेक योगी रौंसी

Inspirational

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अभिषेक योगी रौंसी

Inspirational

"संघर्षों का सृजनहार: सीताराम"

"संघर्षों का सृजनहार: सीताराम"

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राजस्थान के एक छोटे से गांव में जन्मा सीताराम, अपने जन्म से ही गरीबी की चादर में लिपटा हुआ था। उसका परिवार अत्यंत पिछड़ा और गरीब था। घर में दो वक्त की रोटी का प्रबंध भी होना कठिन था, लेकिन सीताराम की मां हर दिन अपनी मेहनत से परिवार को जिन्दा रखने का प्रयास करती थी। 


सीताराम की उम्र करीब 9 साल की थी, जब उसने सरकारी स्कूल में दाखिला लिया। उसकी मां ने उसे एक पुराने कपड़े से नेकर सिलकर दी , जिसे अब वक्त ने कई जगहों से छेद कर दिया था। मगर सीताराम अपनी मां के इस उपहार को संभालकर रखता था। रोज़ सुबह तालाब के पास उगने वाले सफेद पदार्थ से नेकर को साफ करता, फिर अपनी लंबी नीली स्कूली कमीज़ में उसे छिपा कर पहनता। 


वह हर दिन नई ऊर्जा के साथ स्कूल जाता, लेकिन वहां बच्चे उसकी गरीबी का मजाक उड़ाते तो उसकी फटी हुई नेकर और पैबंद लगी कमीज़ पर हंसते, मगर सीताराम इन सब बातों को हल्की मुस्कान के साथ टाल देता। उसने कभी किसी के सामने अपनी गरीबी का रोना नहीं रोया, मगर उसकी आत्मा में एक गहरी चोट लगती । जब उसकी मां सामाजिक कार्यक्रमों में शरमाते हुए शामिल होती और अपने पुराने कपड़ों को छिपाती। यह दृश्य बार-बार उसकी आंखों के सामने घूमता और उसे अंदर से बेचैन करता। 


दिनों दिन उसकी पढ़ाई में मन नहीं लगता। गरीबी की यह बेड़ियां उसे और उसकी मां को जैसे जकड़ने लगी थी। एक दिन, सीताराम ने अपनी मां से कहा, "मां, मुझे दिल्ली जाना है। मैं हमारी आर्थिक हालत सुधारना चाहता हूं।" उसकी मां ने पहले तो बहुत समझाया, मगर सीताराम की जिद के आगे उसे झुकना पड़ा। 


दिल्ली पहुंच कर, सीताराम एक जगह पत्थर की मजदूरी पर लग गया। वह वहां दिन-रात मेहनत करता, मगर उसके भीतर अब भी एक सपना जीवित था - वह सपना, जो उसके परिवार की बेहतरी का था। मजदूरी के कठिन कामों के बावजूद, सीताराम अपने सपने को जीने की कोशिश में लगा रहा। वह जानता था कि यह संघर्ष उसकी मजबूरी नहीं, बल्कि उसकी जिम्मेदारी है।


सीताराम अब दिल्ली में पत्थर ढोने का काम कर रहा था। वह सुबह जल्दी उठकर काम पर निकल जाता। उसकी उम्र भले ही कम थी, लेकिन जिम्मेदारियों ने उसे वक्त से पहले बड़ा बना दिया था। पत्थरों के ढेर में घुसकर काम करते हुए उसकी छोटी-छोटी उंगलियां छिल जाती, मगर वह दर्द को सहते हुए काम करता।


एक दिन, रोज़ की तरह सीताराम अपने काम में लगा हुआ था, सेठ कश्यप अपने स्कूटर पर आए। सेठ जी का ध्यान सीताराम पर गया, जो उम्र से कहीं ज्यादा बोझ उठा रहा था। उसकी गरीबी और मासूमियत ने सेठ जी का दिल पिघला दिया। उन्होंने तुरंत सीताराम को अपने पास बुलाया। उसके सिर पर प्यार से हाथ फेरते हुए, उन्होंने अपनी जेब से कुछ पैसे निकालकर उसे देने की कोशिश की। 


लेकिन सीताराम, जिसने बचपन से ही गरीबी के साथ-साथ खुद्दारी भी सीखी थी, ने सेठ जी के पैसे लेने से मना कर दिया। सेठ जी को यह देखकर हैरानी हुई, लेकिन साथ ही वे उसकी खुद्दारी और मेहनत से प्रभावित हुए। 


सेठ जी ने सोचा कि इस बच्चे को उसकी मेहनत का सही फल मिलना चाहिए। उन्होंने अपने कर्मचारियों को बुलाया और कहा, "इस बच्चे को मेरे साथ काम करने का मौका दो, इसे सिखाओ और इसका भविष्य बेहतर बनाने में मदद करो।" 


सीताराम को अब पत्थर ढोने की जगह एक नई उम्मीद मिली। सेठ जी ने उसे अपने कार्यालय में छोटे-मोटे काम देने शुरू किए । वक्त के साथ-साथ सीताराम का व्यक्तित्व और ज्ञान दोनों ही बढ़ने लगे। उसकी मेहनत और ईमानदारी ने सेठ जी के दिल में खास जगह बना ली थी। अब सीताराम का सपना सिर्फ अपने परिवार की हालत सुधारने का नहीं था, बल्कि वह खुद को एक बेहतर इंसान और जिम्मेदार नागरिक के रूप में देख रहा था।


अब सीताराम सेठ जी के पास रहते हुए कार्य में निपुण हो गया और अच्छे पैसे भी कमा रहा था। वह बीच-बीच में अपने गांव जाता रहता, जहां उसकी मेहनत और लगन से सब प्रभावित होते। धीरे-धीरे उसने अपने रहने के लिए एक छोटी जमीन खरीदी और उस पर अपना घर बनाया। गांव के कुछ लोग, जो उसकी अपनी ही बिरादरी के थे, यह सब देखकर जलने लगे। जब उन्होंने देखा कि सीताराम, जो कभी साधारण कपड़ों में गांव से निकलता , अब शहर से सूट पहनकर अफसर सा आता है। 


मगर आज भी सीताराम का व्यवहार बचपन की तरह बहुत सहज और सरल रहा। उसे सफलता और पैसे ने कभी अहंकारी नहीं बनाया। वह गांव के हर व्यक्ति से उसी सरलता से मिलता, जैसे वह पहले मिला करता था। 


इसी बीच, सीताराम की शादी पास ही के गांव में एक गरीब परिवार की लड़की से हो गई। उसकी धर्मपत्नी भी बिल्कुल उसकी तरह दयालु और सहनशील थी। वह भी गरीबी की कठिनाइयों से भली-भांति परिचित थी, इसलिए उसने सीताराम के संघर्ष को समझा और उसका पूरा साथ दिया। धीरे-धीरे उनका जीवन बेहतर होने लगा, और वे गरीबी से बाहर आने लगे। उन्होंने गांव में एक अच्छा मकान बनाया, और अब उनके बच्चे भी हो चुके थे।


सीताराम ने अपने बच्चों को अच्छे से पढ़ाने का संकल्प लिया ताकि उन्हें वह कठिनाईयों का सामना न करना पड़े, जो उसने अपने जीवन में किया था। वह अपने बच्चों को मेहनत, ईमानदारी और आत्म-सम्मान के मूल्य सिखाता, जिससे वे भी अपने जीवन में सफल और सजग नागरिक बन सकें। 


गांव में सीताराम की बढ़ती प्रतिष्ठा के साथ ही उसके अपने जाति बिरादरी के लोगों में जलन और दुश्मनी बढ़ने लगी थी। उन्होंने सीताराम और उसके परिवार को नुकसान पहुंचाने की साजिशें रचना शुरू कर दीं। लेकिन सीताराम ने कभी भी अपनी नैतिकता और शांत स्वभाव का त्याग नहीं किया।


एक बार, साजिशकर्ता हरिया ने अपने साथी के साथ मिलकर सीताराम के बेटे को तालाब में डुबोने की कोशिश की। लेकिन भाग्यवश, उसी समय "गुर्जर एक साहसी और दयालु जाति" के गंगाराम नामक एक सज्जन व्यक्ति जो कि तालाब के पास से गुजर रहे थे कुछ अनहोनी का अंदेशा और हरिया के हाव भाव देख वहां गए और उन्हें धमका कर भगाया समय पर मदद मिलने से सीताराम का बेटा तो बच गया। किन्तु इस घटना ने सीताराम के परिवार को हिला दिया, परंतु उन्होंने हिम्मत नहीं हारी। सीताराम ने इस मुश्किल घड़ी में भी अहिंसा और मानवता का रास्ता चुना। 



समय के साथ, गांव में उसकी प्रतिष्ठा और बढ़ती गई, जिसके चलते विरोधी उसकी बढ़ती प्रतिष्ठा से जलते थे और उसके परिवार को मिटाने की साजिशें रचते रहे, सीताराम ने हमेशा धैर्य, शांति, और समझदारी से इन मुश्किलों का सामना किया। उसकी सज्जनता और जीवन के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण ने उसे गांव में एक आदर्श व्यक्ति के रूप में स्थापित किया। 


सीताराम ने न केवल अपने परिवार को गरीबी से उबारा, बल्कि समाज में अपनी एक अनूठी छवि भी बनाई। उसने अपने जीवन में जो कठिनाइयां झेली, वे उसके लिए चुनौतीपूर्ण थीं, लेकिन उसने हर मुश्किल का सामना एक सज्जन व्यक्ति की तरह किया, और कभी अपने मूल्यों से समझौता नहीं किया। 


इस प्रकार, सीताराम ने न केवल अपने परिवार को एक भरा-पूरा और खुशहाल जीवन दिया, बल्कि समाज में भी एक मिसाल कायम की। लोग उसे सम्मान की नजर से देखने लगे, और उसकी जीवन यात्रा ने कई लोगों को प्रेरित किया कि किस प्रकार धैर्य, ईमानदारी, और सज्जनता के साथ हर संघर्ष का सामना किया जा सकता है।


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