समय की आहट
समय की आहट
"देखो न भाभी,अब तो सब तुम्हारे सामने है, यही थे न तुम्हारे श्रवण कुमार से बेटे, जिनको सब कुछ सौंप देने की ज़िद थी तुम्हारी, और इसी ज़िद के सामने बड़े भैया भी झुकने को तैयार भी हो गए थे,. कितना बोझ था उस समय उनके दिल पर, भाभी तुम तो सदा से ही भोले मन की थीं, लेकिन बड़े भैया सब समझ रहे थे पहले से ही,।" सत्यवती सब सुन रही थी, साथ ही उसकी आँखों से अविरल अश्रुधारा बहे जा रही थी, कितना कठिन समय देखा था उन दोनों ने जब अपना पुश्तैनी मकान बेचकर दोनों बेटों को आगे पढ़ाई के लिये विदेश भेजने के लिये पैसों का इंतज़ाम किया था,
सुमित और शोभित दोनों जुड़वाँ थे, एक जैसी शक़्ल सूरत और एक जैसे मेधावी, हमेशां अच्छे अंक अर्जित करने के साथ माँ, पापा और गुरुजन के भी आँखों के तारे थे दोनों भाई,. पिता सरकारी नौकरी में थे, किसी प्रकार गुज़ारा कर रहे थे, बच्चों की पढ़ाई और अन्य ज़रूरतें दिनों दिन महंगी होती जा रही थी, बस मकान ज़रूरत पुश्तैनी था इसलिये उसमें दिन ठीक कट रहे थे, न किराए का बोझ न हर दूसरे दिन सामान बांधकर कहीं नया आशियाना ढूँढने की चिंता, माँ सत्यवती और पिता श्यामसुन्दर सरल जीवन जीने के आदी थे ही, जब दोनों बच्चों ने एक साथ विदेश में जाकर इंजीनियरिंग करने की इच्छा ज़ाहिर की तो माता-पिता दोनों सोच में डूब गए, कोशिश भी की समझाने की कि भारत में भी उच्च शिक्षा की गुणवत्ता में कोई कमी नहीं है लेकिन पता नहीं क्यों बच्चों ने ज़िद पकड़ ली, माता-पिता से वादा किया कि वो शिक्षित होकर आएँगे यहीं और फ़िर उनके सारे सपने पूरे करेंगे,माता-पिता तो माता-पिता ही होते हैं,
किसी तरह पुश्तैनी मकान बेचकर पैसों का इंतज़ाम किया और भेज दिया अपने लाडलों को विदेश, बच्चे पढ़ने में तो अच्छे थे ही तो वहाँ भी अच्छा प्रदर्शन रहा उनको और वहीं अच्छी कम्पनियों में दोनों को नौकरी भी मिल गई, माता-पिता अपने आंसू पीकर रह गए, किराए के मकान में जैसे-तैसे समय बीत रहा था, और अब समय आ गया श्यामसुन्दर जी के सेवानिवृत्त होने का, बेटों को भी बुलाया उन्होंने,
वे चाहते थे कि अब बेटे अपनी जिम्मेवारी समझें और माता-पिता की सुध भी लें,उन्होंने कई बार फ़ोन पर बात भी की लेकिन बेटों की बातों में अब एक बेरुखी सी थी,हाँ आने का कार्यक्रम दोनों का था, पिता को बेटों का बदलाव साफ नज़र आ गया था,माँ ने भी बेटों से कई बार बात की थी और हर बार बेटों ने इच्छा ज़ाहिर की थी कि वे माता-पिता को अपने साथ ले जाना चाहते हैं, भोली माँ मीठे सपने देखने लगी थी, बेटे आए भी लेकिन बस 2 दिन के लिये, एक दिन तो सेवानिवृत्ति की औपचारिकता में ही बीत गया, छोटी सी पार्टी भी रखी गई थी, ज़्यादा खर्च की गुंजाइश भी तो नहीं थी न,.
और बेटे तो मेहमान बनकर आए थे, दूसरे दिन सुबह ही दोनों बेटों ने पिता के सामने इच्छा ज़ाहिर की कि वो उन दोनों को अपने साथ विदेश ही ले जाना चाहते हैं, वे दोनों को बारी,-बारी से अपने साथ रखेंगे,बस पिताजी अपनी रिटायरमेंट पर मिला पैसा उन्हें दे दें, जिससे वो जल्दी ही उन दोनों के वहाँ जाने के कागज़ात तैयार करवा लें और 2-3 महीने बाद वे उन्हें अपने साथ लिवा ले जाएंगे, श्यामसुन्दर जी ने स्पष्ट इनकार कर दिया, अब बेटे माँ के पास पहुंचे, भोली माँ क्या समझ पाती, पति से ही नाराज़ हुई, लेकिन इस बार उनकी नाराज़गी का भी श्यामसुन्दर जी पर कोई असर न हुआ, बेटे जलते-भुनते वापिस चले गए, उसके बाद न कोई फ़ोन न कोई और सम्पर्क, माँ रोती रही कि क्या हो जाता जो बच्चों के साथ चले जाते।
माँ को पिता का यह व्यवहार सिर्फ बूढ़े की सनक ही लगता, इधर पिता ने सेवानिवृत्ति से मिले पैसों से एक छोटा सा घर बनाया जिसमें वो दोनों रह सकें तथा एक प्राइवेट कम्पनी में अपने अनुभव के आधार पर एक नौकरी ज्वाइन कर ली जिससे घर खर्च चलने लगा,. सत्यवती कितनी ही बार पति से कहती कि वे बेटों से बात करें और अपनी ये बुढ़ापे की सनक छोड़ें लेकिन उनपर कोई असर नहीं था, समय गुजर रहा था कि एक दिन अचानक की श्यामसुन्दर जी को दिल का दौरा पड़ा और उन्होंने ये नश्वर शरीर त्याग दिया, बेटों को भी ख़बर दी गई और वो लोक दिखावे के लिये आए भी,
लेकिन सिर्फ मेहमान की तरह, श्यामलाल जी के परम मित्र सांवर जी ने ही सभी प्रबन्ध किये, अंतिम संस्कार से 12 वें दिन तक सभी सांवर जी ने जैसा कि उनके अनुसार श्यामसुन्दर जी की इच्छा थी वैसे ही सब किया,कोई भी लोक दिखावे का रीति-रिवाज नहीं किया गया, 12वें दिन एक संक्षिप्त सी पूजा के बाद माँ और दोनों बेटों की उपस्थिति में सांवर जी ने अपने एक अन्य वक़ील मित्र को बुलाकर उन्हें श्यामसुन्दर जी की वसीयत सुनाई, जो अपनी पत्नी के नाम एक पत्र के रूप में थी, उसमें लिखा था कि सेवानिवृत्ति के समय ही वे अपने दोनों बेटों की मंशा जान गए थे कि वे यहाँ सिर्फ़ पैसे बटोरने आए थे और फ़िर उनसे साथ रखने की उम्मीद ही क्या की जा सकती थी, उनकी वसीयत के मुताबिक़ उनके बेटों का न उस घर पर कोई हक़ है न ही उनके जीवन बीमा के मिले पैसों पर।
पैसे से माँ अपना जीवन यापन करेगी और घर जीते जी उनका है और जब वो न रहेंगी तो उनके मित्र को अधिकार है कि यह प्रबन्ध करे कि उनके बाद यह घर किसी उन्हीं के नालायक बेटों जैसे बेटों के माता-पिता को ही रहने को दिया जाए, पत्र के अंत में उन्होंने अपनी पत्नी से क्षमा मांगी थी कि उन्होंने कभी उन्हें अपने बेटों के बदले व्यवहार के बारे में सिर्फ इसलिये नहीं बताया था कि कहीं उसे दुःख न हो, ये उनकी सनक नहीं थी, उन्होंने तो बस बदलते समय की आहट को समय से पहचान लिया था।
माँ को अब अपने बूढ़े की सनक के पीछे का कारण समझ आ गया था और उनकी आँखों से झरते आंसू मानो पति को पुष्पांजलि अर्पित कर रहे थे।