यादों के गलियारे से...
यादों के गलियारे से...
यूँ तो शादी के साथ ही लड़की का वो घर, जहाँ उसका जन्म होता है,छूट जाता है लेकिन वो उसका मायका तो होता है न... जहाँ कभी-कभी ही सही... वो कुछ समय तो अपने मधुर स्मृतियों के पल फ़िर से जी आती है। फ़िर से अपने बचपन में तो कभी नवयौवना पलों को जैसे पलकों से छू आती है। लेकिन कुछ हम जैसे भी होते हैं जिनका, भले ही किसी भी वजह से वो जन्म-स्थान सदा के लिये छूट जाता है, लेकिन कदम जाने-अनजाने उसी जगह पर ले जाते हैं। मैंने अपने ऐसे ही अनुभव को अपने प्रथम काव्य-संग्रह... "कहाँ है मेरा आकाश"... में एक बिना शीर्षक की कविता जिसका शीर्षक "ये दीवार"ही हो सकता है में लिखा है कि किस प्रकार के भाव मेरे मन में आए... जब मैं अपने बचपन के उस घर के सामने खड़ी उस दीवार को देख रही थी,जिसके पार मेरा वो मधुर स्मृतियों को अपने सीने में दफ़न किये हुए मेरा जन्म-स्थान था... मैं वहाँ सूनी आँखों से उस दीवार को एकटक देख रही थी। जिसके पार मेरा बचपन खेल रहा था... वो मेरा घर, आँगन, कमरे, अलमारियां, झूला, वो छत, वो हर कोना जिससे जाने कितनी यादें जुडी हुई थीं।भारी मन से मैं लौट तो आई थी लेकिन जैसे बहुत कुछ वहीं छूट गया था जो पल-पल मुझे खींच रहा था। उस दिन को कई वर्ष बीत चुके हैं।कुछ समय पहले जब अपने मनोभावों को कविता का रूप देना शुरू किया तभी वो याद भी कब एक कविता के रूप में आकार ले गई मालूम ही नहीं पड़ा.... लेकिन इतना ज़रूर हुआ कि अब जब कभी अपने शहर जाना हुआ तो अपने जन्म-स्थान ज़रूर जाकर आऊँगी।वो भी तो मुझे याद करता ही होगा न, जब मैं उसे याद करती हूँ। उस दिन मैं और वो ज़मीं, वहाँ की हवा, वहाँ का आकाश तक एक साथ खुल कर खिलखिलाएंगे... वो पल जल्द ही आएगा...जल्द ही....।