SUDHA SHARMA

Drama Tragedy

2.5  

SUDHA SHARMA

Drama Tragedy

श्यामा मौसी

श्यामा मौसी

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वरुणा ने जल्दी-जल्दी अपना सूटकेस तैयार किया और ऑटो रुकवाकर रेलवे स्टेशन की ओर चल पड़ी। प्लेटफार्म पर गाड़ी आ चुकी थी, अत: जल्दी से ऑटो वाले को पैसा देकर वह तेज कदमों से टिकट खिड़की पर जाकर नागपुर के लिए टिकट ली और ट्रेन में सवार हो गई, कुछ समय बाद ट्रेन अपनी रफ़्तार से गंतव्य की ओर अग्रसर थी।

आज वरुणा वर्षों बाद नागपुर जा रही थी, अपनी श्यामा मौसी के घर। उसका मन अत्यधिक पुलकित हुआ जा रहा था। कितने वर्षों बाद वह समय निकाल पाई थी, मौसी हमेशा बुलाती थी और समय-समय पर सुख-दुख में हमेशा साथ रहीं, परंतु वरुणा को अपनी दुनियादारी में कभी समय नहीं मिल पाया कि वह कुछ दिन मौसी के घर रह आती। उमेश से शादी के बाद वह ऐसे व्यस्त हुई कि जीवन के दस वर्ष कैसे बीत गए, पता ही नहीं चला और विगत दिनों की स्मृतियाँ आँखों के आगे परछाई की तरह छाने लगीं।

श्यामा मौसी वरुणा की सगी मौसी न थी, उसकी माँ की सहेली थी। दोनों में बहनों से भी बढ़कर प्यार था। श्यामा मौसी के पति एक शिक्षक थे, वरुणा के पिता जमींदार थे। वे वरुणा के बचपन में ही खत्म हो गए थे। गाँव में आस-पास हाईस्कूल नहीं था, अत: वरुणा की आगे की पढ़ाई को लेकर उसकी माँ चिंतित थीं, ऐसे में श्यामा मौसी ने ही माँ को हौसला दिया था और कहा कि वरुणा उसके पास रहकर पढ़ाई करेगी। माँ इतनी दूर नागपुर में वरुणा को भेजने की इच्छुक नहीं थीं, परंतु आगे भविष्य का सोचकर उसने हामी भर दी।

श्यामा मौसी के घर वरुणा को कोई असुविधा नहीं थी। मैट्रिक तक की पढ़ाई उसने वहीं पूरी की। वरुणा की माँ ने खर्चे-पानी के लिए कुछ रकम देना चाहा, तो मौसी ने स्पष्ट मना कर दिया, “भई ऐसी परायी बनाकर बिटिया को रखना है, तो वापस ले जाओ।” माँ क्या कहती श्यामा मौसी के प्यार के आगे नतमस्तक थी।

वैसे भी मौसी की कोई बेटी नहीं थी, अत: उनके घर सभी उसे ख़ूब प्यार से रखे थे। उनके दो बेटे अविनाश और चंदर जो बाहर सर्विस करते थे, कभी-कभी छुट्टियों में आते, तो घर की रौनक बढ़ जाती थी। मौसा जी बुजुर्ग हो गए थे। एक दिन वह सोये, तो सुबह हमेशा के लिए उनकी आँखें बंद हो चुकी थी, उनको हृदयघात हो गया था। सात जन्मों तक साथ निभाने की कसमें और उमर भर का संग जीने-मरने का वादा, जाने किस पल टूट गया। सब अप्रत्याशित-सा घट गया मौसी के जीवन में। मौसी पर तो मानों वज्रघात हो गया। दुखों के इस अवर्णित समय में वरुणा ही उसके पास रही, उसकी माँ भी खबर सुनकर आ गई थी।

वरुणा की वार्षिक परीक्षा चल रही थी। परीक्षा खत्म होने के कुछ महीनों उपरांत ही माँ के साथ वापस लौट आई और घर में रहकर स्वाध्यायी छात्रा के रूप में आगे कॉलेज की पढ़ाई स्नातक तक की। इसी बीच वरुणा की घनिष्ठता उमेश से हुई। माँ ने लड़के का आचरण परखकर उससे वरुणा की शादी कर दी। इसके बाद से वरुणा अपनी गृहस्थी में ही रम गई। माँ के पास ही आना-जाना होता था और मौसी का समाचार भी मिल जाता था।

एक बार माँ ने बताया था कि श्यामा मौसी बिलकुल अकेली रहती है। मौसा जी के गुज़रने के बाद बच्चे स्वयं ही अपनी ज़िंदगी के कार्यों के निर्णायक थे, अत: उन्होंने अपनी-अपनी पसंद की विजातीय लड़कियों से शादी कर ली। स्वभाविक ही था कि श्यामा मौसी अपने संस्कारों से विपरीत संस्कारों वाली लड़कियों से वांछित गुणों की अपेक्षा तो न करती थी, अत: बहुओं से तालमेल नहीं बैठा पाईं। ऐसा नहीं था कि उन्होंने कोशिश नहीं की, परंतु जाने क्यों दोनों बेटों ने ज्यादा ही छूट दे रखी थी। कहते हैं ना “पूत के पाँव पालने में ही दिखाई दे जाते हैं।” वैसे ही दोनों बहुओं के साथ उपेक्षित होकर और साथ में बेटों का उपेक्षापूर्ण व्यवहार ने श्यामा मौसी का हृदय छलनी कर दिया।

माँ की आँखों में आँसू भर आए थे। बोली थी, “बेटी ! दोनों बेटे पिता के जाने के बाद से मिलने वाली पेंशन में और सुरक्षा निधि के रुपयों की माँग किया करते थे, जिसे श्यामा ने फिक्स करवा दिया था। बात यहीं तक नहीं थी, उन्होंने मौसी को खर्चा देना भी बंद कर दिया था। बहुएँ ताने मारा करती थीं, खाना भी रुखा-सूखा ही देती थीं। भले ही घर में मिष्ठान रखे हों, पर मजाल है मौसी धोखे से माँग भी लेती, तो दूसरे समय के खाने की तीन रोटियाँ में एक रोटी कम हो जाती, बात-बात में टोका-टाकी, जवाब-तलब और तो और बाहरी व्यक्तियों के सामने भी अपमानित होना पड़ता। पर क्या करे श्यामा ! वे बच्चे ही तो उसके जीवन आधार थे। सब कुछ तो उन्हीं लोग के लिए था। रहा सवाल रुपयों का, तो वह केवल भावुकतावश कि पति की जमा की गई पूँजी, उसका आत्म बल और आड़े समय में काम आएगी, सोचकर उसने चालू खाता में नहीं रखवाया, परंतु बच्चों पर न जाने कैसा लालच सवार था।

वे कहा करते, “अपने दवा-दारु, मंदिर-देवाला का जो खर्च है, अपने पैसे से करो। हम तुम्हें एक रुपया नहीं देंगे।”

मौसी को पाँच सौ रुपए मिलते थे पेंशन के, पर क्या यह उनके गुज़ारे के लिए पर्याप्त था ?

श्यामा इस उमर में भी घर के सारे काम करती थी। जिस बेटे-बहू के पास रही वहाँ कामवाली या तो नागा करती थी या काम छुड़ा दी जाती थी। फिर भी श्यामा उफ़ न करती थी। धीरे-धीरे घर का झाड़ू-बर्तन सब कर लेती। यदि कोई मेहमान आते तो चाय-नाश्ता भी बनाती। एक बार तो हद हो गई जब बाहरी व्यक्ति के आगे किसी बात पर छोटी बहू ने उसे धक्का दे दिया और उसका सिर दीवार से टकराकर फूट गया। वह जल्दी से भीतर जाकर हल्दी लगाई, शाम को बेटे ने आकर उसे लापरवाह होने का खिताब पहना दिया क्यूँकि पत्नी ने असलियत कुछ और बताया था और श्यामा ने तो खामोशी की चादर पूरे जीवन के लिए ओढ़ रखी थी। आख़िर साथ चलना-चलाना जो था। मौसी अपनी ही मर्यादाओं में लिपटी अपने रिश्तों की अस्मिता को बचाए रखना चाहती थी। जो शायद उनके बच्चों की समझ में नहीं आ रहा था।

परंतु एक बार तो हद हो गई। माँ ने आगे बताया, “किसी बात पर मानसिक तनाव ज्यादा बढ़ जाने से श्यामा मंदिर गई, तो शाम तक न लौटी। रात में जब वो वापस आई, तो बेटे-बहू ने दरवाजा ही नहीं खोला। सुबह तक मौसी दरवाजे पर ही बैठी रही।

सुबह बेटे ने ये कहते हुए हाथ पकड़ बाहर निकाल दिया, “तुम जगह-जगह हमारी बेइज्जती करती हो। आज से तुम कहीं भी रहो, हमें कोई मतलब नहीं।”

“बेचारी श्यामा क्या करती ! वह पड़ोस में जा किराए से रहने लगी। सोचा बच्चे कुछ दिनों में वापस बुला लेंगे, परंतु ऐसा अभी तक नहीं हुआ।”

इतना कहते-कहते माँ फफककर रो पड़ी। स्वाभिमान और मर्यादाओं में बँधी मौसी, माँ के कहने पर भी साथ आने को तैयार नहीं हुईं। बोलीं, “मेरे मरने पर अंतिम संस्कार तो करेंगे न।”

वरुणा को सुनकर बहुत दुख हुआ। वह अपने भाई-भाभियों के प्रति आक्रोश से भर उठी, परंतु वह चाहकर भी कुछ न कर पाई। दो वर्ष बीत गए। माँ का अचानक स्वर्गवास हो गया। माँ के कार्यक्रम में मौसी न आ पाईं। वरुणा ने पत्र तो भेजा था, पर शायद मौसी अपनी समस्याओं में कुछ ज़्यादा ही घिरी थीं। अभी पिछले महीने वरुणा ने अपनी बेटी की शादी की थी। अब की बार भी उसने बड़ी हसरत से मौसी को शादी का कार्ड भिजवाया था। शायद मौसी से इसी बहाने मुलाकात हो जाए, वैसै स्थिति जानते हुए उम्मीद तो कम थी।

शादी का माहौल था। मेहमानों की चहल-पहल थी। बारात आने की तैयारी थी। तभी सबने देखा एक रिक्शावाला सूटकेस लिए आ रहा है। पीछे-पीछे एक वृद्ध महिला अपने शरीर का सारा बोझ एक पतली-सी छड़ी पर डाले धीरे-धीरे चली आ रही थीं। वरुणा ने देखा तो वह दौड़ पड़ी। अरे ! ये तो श्यामा मौसी हैं और वर्षों बाद दोनों एक-दूसरे से लिपट पड़े। भावातिरेक में दोनों के नयन छलछला उठे। मौसी दोनों हाथों से वरुणा का चेहरा थामे एकटक उसे देखती रहीं और अनायास फफककर रोती हुईं, उस पर चुम्बनों की झड़ी लगा दीं, बड़ा ही मार्मिक दृश्य था। एक पल के लिए जैसे वक़्त ठहर-सा गया था। फिर श्यामा मौसी ने उसका हाथ पकड़कर मंडप के एक कोने में ले गई, सारे मेहमान द्रवित हृदय से खामोश देख रहे थे।

मौसी ने किसी से अपना सूटकेस मँगाया और एक परात मँगवाई, फिर वरुणा को अपने करीब बैठाकर अपना सूटकेस खोल उसमें रखा सामान बाहर निकाल-निकाल दिखाने लगी और परात में रखने लगी, “ये बहू के लिए, ये उमेश के लिए, ये तेरी देवरानी के लिए।”

ऐसा कहते वह वरुणा के परिवार के सभी सदस्यों के लिए कुछ-न-कुछ भेंट लेकर आई थीं। वह सब बताने लगीं और-तो-और वरुणा की नन्ही-सी पोती के लिए मौसी खिलौने, चांदी की गिलास और पायल आदि लेकर आई थीं। न जाने मौसी ने अपनी नन्ही-सी पोटली में क्या-क्या छुपा रखा था। वस्तुओं से ज्यादा उसका प्यार-दुलार आँखों से झर-झर बहे जा रहा था।

इधर वरुणा रोए जा रही थी। वह जानती थी मौसी की माली हालत इन दिनों ठीक नहीं है, पहले की तरह, परंतु मौसी का विशाल हृदय अभी भी अपनी सारी गरिमा के साथ ज्यों-का-त्यों है।

वरुणा रोते हुए बोली, “मौसी क्यूँ बेकार ये सब लाई। तुम्हारा आना ही सभी तोहफों से बढ़कर है।”

मौसी मुस्काने का प्रयत्न करते आँसू पोछकर बोलीं, ”बेटा ! आज मेरी सहेली रहती, तो क्या वह खाली हाथ आती। तेरा और कौन है रे मेरे सिवाय, इसलिए तो मरते-खपते आई हूँ।”

वह अपनी सहेली को यादकर बार-बार सिसक उठती। मौसी ने तो हद तब कर दी जब वह वरुणा के हाथ में सोने के झूमके दे गई और बोली, “किसी से कहना मत ये बिटिया के लिए लाई हूँ। उसकी नानी हूँ ना।”

पर मौसी तुम इतना सब क्यों ले आईं। वरुणा ने कहना चाहा तो मौसी ने टोक दिया बोली, “तेरी माँ कहा करती थी मैं अपनी वरुणा की बिटिया को झूमके ही दूँगी। वह न रही तो क्या हुआ, उसकी जगह मैं हूँ ना।” फिर मुस्काते हुए बोली, “जा बेटा, बारात के स्वागत की तैयारी कर।”

शादी के बाद श्यामा मौसी एक महीने वरुणा के घर रुकीं। अकेली रहने के बाद भी वह घर जाने की जिद करने लगी। मौसी स्वतंत्र रहकर भी अपनी सामाजिक दायरों का निर्वाह करतीं। विचारों से बंधन मुक्त न हो पाई थीं।

इस बीच वरुणा के बहुत पूछने पर मौसी ढके-छूपे शब्दों में बताई, “नहीं बेटी, मैं अलग रहकर भी अलग नहीं हूँ। बहुत ख़ुश हूँ। तेरे भाई लोग आते-जाते मेरी पूछ-परख करते रहते हैं। तीज-त्यौहार में मुझे ले जाते हैं। अत: मुझे कोई तकलीफ नहीं है।”

वरुणा ने सोचा, “ठीक ही तो है साथ रहकर खींचातानी से बेहतर है दूर रहकर व्यवहार बनाएँ रखें।”

इस प्रकार मौसी दशहरा का त्यौहार निकट आने पर वरुणा के घर से लौट गईं। जाते समय मौसी कोई उपहार भी नहीं ले गईं। ये कहकर, “बिटिया के घर से उपहार लूँगी, तो ऊपर क्या जवाब दूँगी।” दुआओं का अंबार लगाते अश्रुपुरित आँखों से मौसी ट्रेन की खिड़की से हाथ हिलाते आँखों से ओझल हो गईं।

आज वरुणा अपनी मौसी के लिए सुंदर कश्मीरी शॉल, कोसा की साड़ी और एक गीता की प्रति खरीद कर ले जा रही थी। वह सोच रही थी कि अचानक मौसी मुझे देखकर कितनी ख़ुश हो जाएगी। तुरंत चाय-नाश्ता बनाने लग जाएगी। अड़ोस-पड़ोस के लोगों को बुलाएगी और कहेंगी, “देखो, देखो मेरी बिटिया आई है।”

जाने किन-किन कल्पनाओं में खोई वरुणा को पता ही न चला कब नागपुर आकर ट्रेन रुक गई। खोमचे वाले की आवाज़ सुनकर उसकी तंद्रा भंग हुई, तो देखी गाड़ी प्लेटफार्म पर खड़ी है। वह तुरंत उतर पड़ी और ऑटो रिक्शा लेकर मौसी के बताए पते पर पहुँच गई। ऑटो का किराया देकर जैसे ही वरुणा ने दरवाजे की ओर देखा तो धक से रह गई। वहाँ ताला लगा हुआ था। पड़ोसियों से पता चला की श्यामा मौसी की आज तेरहवीं है। उनके बच्चे लोग पास के धर्मशाला में कार्यक्रम को संपन्न कर रहे हैं।

वरुणा पर मानो बिजली गिरी। बड़ी मुश्किल से स्वयं को सँभालते हुए पूछी, “ये अचानक कैसे हुआ।”

पड़ोसियों ने बताया, “किसी शादी से आने के बाद मौसी की तबियत खराब हो गई। उनका शुगर बढ़ा हुआ था। मौसी अपने बेटों को खबर भिजवाईं। पता चला बड़ा बेटा पत्नी के साथ ससुराल गया था। उसके सास की तबीयत खराब थी और छोटे बेटा-बहू बाहर कहीं टूर पर गए हुए हैं। दो दिनों बाद दशहरे का त्यौहार था। मौसी को लगा था कि त्यौहार में आ ही जाएँगे, इसलिए वह अपने बेटों का रास्ता देखती रहीं।”

आगे वरुणा को पता चला, “दशहरा के दिन सुबह से ही श्यामा मौसी अपने बच्चों की आने की ख़ुशी में पूजा की तैयारी में जुट गईं। मिठाइयाँ, पान आदि मँगाकर जाने क्या-क्या तैयारियाँ कर रही थीं। चौक पूर कर वह शाम से दरवाजे पर बैठी रही रात दस बज गए, मौसी उठी ही नहीं। उनकी आँखें अपलक दरवाजे की ओर ही लगी रहीं।

जब पड़ोसियों ने कहा, “मौसी रात बहुत हो गई अब सो जाओ, आपके बेटे नहीं आएँगे।”

तो मौसी ने कुछ नहीं कहा। पास जाकर देखा तो मौसी की पलकें सदैव के लिए पथ ताकते रह गई थीं। उनेक प्राण-पखेरु उड़ गए थे।

वरुणा का हृदय तार-तार हो गया। वह धर्मशाला की ओर गई, जो थोड़ी ही दूर पर था। वहाँ सारे मेहमान खाने-पीने में व्यस्त थे। मौसी के दोनों बेटे-बहू अपने परिचितों के साथ हँस-बोल रहे थे। ऐसा लग रहा था जैसे मृत्युभोज नहीं जन्मोत्सव हो रहा हो। नाना प्रकार के व्यंजनों से सजा स्टॉल आज मौसी के हिस्से की रोटी कम नहीं कर पा रहे थे।

भाइयों ने देखा, वरुणा से हँसकर गले मिले। वरुणा का मन कहीं अंदर तक वितृष्णा से भर गया। उसने देखा, हाल के एक कोने में स्टूल पर श्यामा मौसी का फोटो, फ्रेम के बीच मुस्करा रहा था। अगरबत्ती की ख़ुशबू फैल रही थी और मौसी का फोटो बड़े-से हार से सज्जित था। वह करीब गई और फोटो को प्रणाम कर अपने बैग में रखा शाल, गीता और साड़ी को स्टूल में रख दिया। दो बूँद आँसू लुढ़ककर गालों तक आ गए। अगरबत्ती का ख़ुशबूदार धुँआ उसके गालों को छूते ऊपर उठ गया। उसे लगा मौसी ने अपनी उँगली के पोरों से उसके गालों को सहलाया है। मौसी फोटो में अब भी मुस्करा रही थी।

सचमुच आज मौसी का जन्मदिवस हुआ था। और वह उल्टे पाँव लौट गई। सभी मृतक भोज में व्यस्त थे।


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