शरणार्थी कौन?
शरणार्थी कौन?
"क्या हो रहा है सुषमा भाभी खाना बन गया ?" सिर की टोकरी नीचे उतार कर स्कूल के बरामदे में रखते हुए रेखा ने ऊंची आवाज में पूछा जबकि उसे सुषमा भाभी कहीं दिखाई नहीं दे रही थी। "भाभी ओ भाभी" आवाज लगाते हुए वह बगल के पेड़ों के झुरमुट तक गई तो सुषमा को एक पेड़ की टेक लगा कर गुमसुम बैठे देखा। चौंक गई सुषमा उसकी आवाज़ से उसने पल्लू से आँखें पोंछते हुए रेखा को बैठने का इशारा किया।
"क्या बात है भाभी ऐसे उदास क्यों बैठी हो तबियत तो ठीक है? भैया कहाँ हैं और बबलू वह तो ठीक है?" सुषमा सेे दो गज की दूरी रख बैठते हुए रेखा ने सवालों की झड़ी लगा दी।
आठ दिन हुए सुषमा को गाँव आये लेकिन गाँव के अंदर जाने की इजाजत नहीं मिली। गाँव बाहर इस स्कूल में चौदह दिन रहने का इंतजाम कर दिया गया है। घर परिवार से कोई हालचाल लेने भी नहीं आता। बस उसकी पड़ोसी रेखा ही है जिसे विधवा होने के बाद ससुराल वालों ने मायके भेज दिया उसका ही जी जुड़ा हुआ है सुषमा से इसलिए हालचाल पूछने सब्जी भाजी देने चली आती है।
"सो रहे हैं दोनों। दिन भर करें भी क्या ऐसा लगता है अपना घर छोड़कर यहाँ शरणार्थी बन गये हैं।" ये अकेलेपन और उपेक्षा का मिलाजुला दुख था।
सुषमा की बात सुनकर रेखा के होठों पर एक उदास सी मुस्कान तिर आई। "भाभी तुम तो हफ्ते भर में इस शरणार्थी जीवन से छूटकर अपने घर की हो जाओगी। मेरा सोचो जिसका पति न हो उसके न घर की छत कभी उसकी होगी और न ही कभी खून के रिश्ते अपने होंगे। मुझे तो मरते दम तक शरणार्थी ही बने रहना है।"
रेखा की बात सुनकर सुषमा अब अपनी स्थिति को एक अलग नजर से देखने लगी।