शहनाई
शहनाई


घर सजा हुआ था। पिछवाड़े में हलवाई ने अपना सामान जमाना शुरू कर दिया था। सामने टेंट वाले के मुलाज़िम लकड़ी की सीडी पर चढ़ कर बत्तियों की लड़ी लगा रहे थे। बरामदे के एक कोने में उस्ताद तबले और शहनाई को ठोक-बजा कर शाम के जश्न के लिए फ़ाइन-ट्यून कर रहे थे। आज अनवर मियाँ की शादी थी मगर उनका मन विचलित सा था… कुछ बरामदे में बजती शहनाई की तरह। शहनाई – जो शादी जैसे ख़ुशी के मौके को अपनी धुन से सजाती तो है पर अगर ध्यान से उससे निकलती आवाज़ को सुनें तो ऐसा लगता है कोई भटकती आत्मा रो रही हो।
अनवर ने यकायक कुर्ते की जेब से मोबाइल निकाला और दृढ़ उंगिलयों से शगुफ़्ता का नंबर मिलाया, मानो उसने फैसला कर लिया हो।
शगुफ़्ता अपना चेहरा हरा किये, आँखों पर कटे हुए खीरे के टुकड़े रखे, पारलर की कुर्सी पर, सर छत की ओर किये बैठी थी। फ़ोन की घंटी बजी तो उसने पारलर वाली लड़की को इशारे से फ़ोन उठाने को कहा। लड़की मोबाइल उठाकर शगुफ़्ता के कान से सटाकर खड़ी हो गयी।
अनवर – “शगुफ़्ता, मैं ये शादी नहीं कर सकता।”
शगुफ़्ता – “क्या ??”
अनवर – “हाँ, मैंने सोच लिया है।”
शगुफ़्ता – “तुम्हे लगता नहीं तुमने सोचने में थोड़ी देर कर दी। शादी के लिए हाँ बोलने से पहले क्यों नहीं सोचा? मैं पारलर में शाम के लिए
तैयार हो रही हूँ, शादी
की सब तैयारियां हो चुकी हैं, अम्मी-अब्बू, रिश्तेदारों को क्या जवाब देंगे?”
अनवर – “वो मैं नहीं जानता, बस इतना पक्का है की अब ये शादी नहीं होगी।”
शगुफ़्ता – “मुझे बताओ कि अब मैं क्या करूँ?”
अनवर – “कुछ नहीं, तुम वहीँ रुको मैं उधर ही आकर बताता हूँ।”
शगुफ़्ता ने लड़की के हाथ से अपना मोबाइल छीना और कुर्सी से उठ खड़ी हुई। खीरे के टुकड़े फर्श पर गिर गए। पेमेंट करके वो पारलर के बाहर ही बेसब्री के अनवर का इंतज़ार करने लगी।
दस मिनट बाद अनवर गाड़ी सड़क के किनारे लगा कर दौड़ता हुआ शगुफ़्ता की तरफ आया और रोते हुए उसे गले लगा लिया।
“मुझे माफ़ कर दो, मैंने तुम्हारा दिल बहुत दुखाया है” अनवर की आवाज़ में पछतावा था। “पर अब मुझे यकीन हो गया है। मैं अम्मी-अब्बू से साफ़ कहकर आ रहा हूँ – कि नहीं चाहिए मुझे इस खानदान का कोई वारिस। मैं सिर्फ तुम से मुहब्बत करता हूँ शगुफ़्ता और बच्चे के लालच में दूसरी शादी हरगिज़ नहीं करूँगा।”
कुछ देर उसी मुद्रा में दोनों बुत्त बने खड़े रहे, फिर गाड़ी में बैठे जो धीरे से उनके घर से उलट दिशा की ओर बढ़ने लगी।
“आगरा चलें ?” अनवर मियाँ ने पूछा। “हाँ, एक अरसा हो गया ताज महल देखे।” शगुफ़्ता ने मुस्कुरा कर हामी भरी।