रूठा सावन
रूठा सावन
आखिर वो चला गया। हमेशा के लिए। कहीं और। बेहतर भविष्य की तलाश में। पर मुझे क्यों फ़र्क पड़ना चाहिए। मैं तो वैसे भी उससे बचने के रास्ते ढूंढती थी।
पालक की पत्तियों को यंत्रवत तीन बार धो चुकी थी। आदत जो थी सालों से। अब पचास की उमर में पुरानी आदतें कहाँ जाएंगीं। जैसे पच्चीस की उमर में घर का सारा काम करते हुए अभ्यस्त हाथ चलते थे, अब भी चलते हैं। जैसे पच्चीस की उमर में हाथ ही काम करते थे, दिल और दिमाग तो उसी को सोचते, देखते थे, पचास की उमर में भी वही सिलसिला जारी है।
कॉलेज में साथ पढ़ते थे। हाँ वाकई में सिर्फ़ पढ़ते थे। उसकी आवाज़, उसकी आँखें, उसकी मुस्कुराहट जेहन से इतने सालों में भी ओझल नहीं हुई। उसकी कही हर बात आज भी कानों में गूंजती हैं। बातें भी क्या थीं, बेलन रोटियों पर अभ्यास दिखा रहा है, होठों पर मुस्कान आ गई। बातें भी क्या थीं . . . आपने केमिस्ट्री के नोट्स लिख लिए, मैं कल नहीं आया था तो अपना रजिस्टर दे दीजिए। मैं सवालिया निगाहों से देखती वो समझ जाता। हड़बड़ा कर कहता कि, पहले अपने दोस्तों से ही पूछा था, किसी ने पूरा नोट नहीं किया।
कितना प्यारा लगता था जब उसका झूठ उसके चेहरे पर झलक जाता था। हाथ एक क्षण को रुके। हमेशा की तरह होंठों की हंसी और आँखों के आँसू ताल से ताल मिला रहे थे। दिल दिमाग का साथ छोड़कर समझ नहीं पा रहा था कि, उन मीठी यादों को याद करके हंसे या बरसों से दीदार को तरसी बरसती आँखों के साथ रोए। आज भी रोज़ की तरह चश्मा और आँखें पल्लू से पुंछ चुके थे। हाथ फिर चल पड़े थे।
फाइनल ईयर की बात है। मैं पाँच दिन कॉलेज नहीं गई। मम्मी हॉस्पीटल में एडमिट थी। छठे दिन वो साइकिल पर घर आया। उसके हाव-भाव से लग रहा था कि, पता नहीं कितने टन हिम्मत जुटाई है घर आने के लिए। दरअसल उन दिनों मोबाइल तो थे नहीं। लैंडलाइन फ़ोन का भी सीमित इस्तेमाल होता था इसलिए किसी को पता नहीं था कि, मैंने छुट्टी क्यों ले रखी थी। घंटी बजी तो पापा ने दरवाज़ा खोला। उसे आँखों - आँखों में तौलते हुए पूछा,हाँ भई बताओ किससे मिलना है ? उसने बड़ी मुश्किल से गला खंखारा। मुझे तिरछी नजर से देख लिया फिर भी बोला, " नमस्ते अंकल ! नीरजा जी यहीं रहती हैं ? " पापा ने हाँ कहा तो बोला जी कुछ दिन पहले उनको फ़िज़िकल कैमिस्ट्री की एक बुक चाहिए थी। लाइब्रेरी में नहीं मिली थी। आज मैंने इश्यु करवाई है तो देने आया हूँ।" पापा ने कहा "लाओ मैं दे दूंगा। " बेचारा तीन किलोमीटर साइकिल चलाकर आया, पानी तक नहीं पिलाया। मैंने मन को झिड़क दिया था "नहीं पिलाया तो तुझे क्यूं फर्क पड़ रहा है। पिछले हफ़्ते भैया के दोस्त को भी तो बाहर से ही टरकाया था। " उस वक्त ऐसा ही होता था। गर्मी और घबराहट से लाल हुआ उसका चेहरा याद आया तो हाथ से पानी गमले के बजाय बाहर छिटक गया और होंठों पर फिर मुस्कान आ गई।
एम एस सी में आ गए थे हम दोनों। मुझे लगता था कि, हम एक दूसरे को ढूंढते थे, साथ रहते, बात करते तो अच्छा लगता था। हम दोनों ऐसे मध्यम वर्गीय परिवारों से ताल्लुक रखते थे जहाँ विवाह माता पिता की मर्ज़ी से ही तय होता था। हालाँकि, मेरे माता-पिता की तरह कई माता -पिता ऐसी कोई बात कहते नहीं ये पर ये एक सार्वभौमिक नियम था।
मुझे लगता था कि, लोग हमको नोटिस करने लगे थे। हम कहीं भी खड़े होकर बात करते, लोग अलग मुस्कुराहट से देखने लगते थे। पता नहीं क्या था हमारे बीच? हमने तो उस रिश्ते को कोई नाम देने की कोशिश नहीं की। शायद प्यार होगा पर हमने तो कभी कहा नहीं।
बहरहाल, मुझे और शायद उसे भी अपने -अपने परिवार की चिंता होने लगी। हम सिर्फ कॉलेज में पढ़ाई की ही बात करते थे पर शायद मेरे मन में ही कुछ और भावनाएं पनप रहीं थीं जिनकी गवाही अब उसकी आँखें भी देने लगीं थीं। मेरे मन का चोर ही शायद डराता था कि, जो लोग घूर घूर कर देख रहे हैं कहीं घर पर ना बता दें। कहीं मम्मी - पापा सदमे में न आ जाएं और उन दिनों की सबसे बड़ी चिंता, कहीं पढ़ाई छुड़वाकर शादी न करवा दें।
मैं उससे बचने लगी। पार्किंग में लूना रखकर सीधा क्लास और क्लास से घर जाने लगी। मन पढ़ाई में लगाने लगी। सहेलियों के पास आज ये रिश्ता आया आज वो रिश्ता आया, शादी के लंहगे, गहने आदि ही बातें थीं। मैंने खुद को एक खोल में समेट लिया, उसने भी घर की इज़्ज़त को ज़्यादा जरूरी समझ कर मुझसे बचना शुरू कर दिया।
एम एस सी के दो साल में कुल दस बार बात हुई होगी शुरु के एक महीने। उसके बाद जीवन में पूरी तरह खामोशी और सन्नाटा हो गया। हम समझते थे कि, ऐसे ही कुछ था हमारे बीच जो खत्म हो गया था और ये अच्छा ही हुआ। लेकिन पता नहीं ज़िंदग़ी में कैसा खालीपन था। मैं दिनभर पढ़ाई करती और घर का भी बहुत सारा काम करती।
मेरी मम्मी मेरी बहुत तारीफ़ करती, पापा भी गर्व करते कि मैं पढ़ाई और गृहकार्य में भी अव्वल थी। सब कुछ अच्छा था पर वो हर वक्त दिल और दिमाग में साथ - साथ चलता और हाथ अपने काम करते रहते। मेरी पी एच डी शुरू हो गई। पता चला वो पी एच डी करने दूसरे शहर चला गया, पता नहीं क्यूं या शायद मैं जानती थी क्यूं।
एक - दूसरे के बारे में दिन भर सोचना और एक दूसरे के सामने न आ जाएं इस कसरत में हमारे दिमाग़ पस्त हो गए थे। वो बिना कुछ कहे - सुने चला गया। मैंने सोचा अच्छा हुआ अब खुलकर सांस लूंगी। पर पता नहीं कैसी उदासी हर वक्त घेरे रहती और जैसे आज उस की छोटी छोटी बातें याद करके हंसी आ जाती है, पिछले सत्ताइस सालों से यही सिलसिला ज़ारी है
सुबह उठने से लेकर रात को सोने तक पचासों बार उन्हीं दो चार बातों को सोचती रहती हूँ। वे घटनाएं अभी भी उतनी ही ताज़ा हैं जितनी मेरे हाथ में पकड़ी ताजा पालक की गड्डी जिसका पापा के लिए सूप बनेगा।
पी एच डी के साथ रिश्ते आने लगे थे। मैं रोबोट की तरह चाय - नाश्ता ले आती, प्री रिकॉर्डेड ऑडियो की तरह लडके वालों द्वारा पूछे जाने वाले सवालों के जवाब देती। भैया की इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी हो गई थी। उनके लिए भी लड़की देखने का सिलसिला चलता रहा आखिर एक डॉक्टर लड़की पसंद आ गई। अब मेरा रिश्ता फाइनल होने का इंतज़ार था ताकि, दोनों शादियाँ साथ - साथ हो जाएं। मेरा फैशन से कोई रिश्ता नहीं था, न मुझे आनावश्यक हाव - भाव दिखाने आते थे। पता नहीं कब मैं काफी अंतर्मुखी हो गई थी। सारे लड़के मुझे रिजेक्ट करने। मम्मी-पापा,भाई को चिंतित देखकर मुझे दुख तो होता पर हर रिजेक्शन मुझे खुशी भी दे जाता अपनी उस दुनिया में लौट जाने की, जहाँ मेरे और उसके सिवा कुछ नहीं था। उस दुनिया में कुछ झूठ नहीं था, कुछ बनावटी नहीं था। उस दुनिया की हर बात मेरे लिए सच्ची थी उस दुनिया में विचरण करते मेरे होंठों पर आती हँसी सच्ची थी, मेरी आँखों के आँसू भी सच्चे थे।
पी एच डी पूरी कर में युनिवर्सिटी में असिस्टेंट प्रोफ़ेसर बन गई। स्टूडेंट्स की चहेती डॉ. नीरजा शर्मा। समय पंख लगाकर उड़ने लगा। मैंने अविवाहित रहने का निर्णय ले लिया था जिसे परिवार ने भारी मन से स्वीकार कर लिया था। भाभी घर आई। हम दोनों सहेलियों की तरह रहने लगीं। उनके काम के घंटे फ़िक्स नहीं थे इसलिए मैं पहले से भी ज़्यादा परफेक्शन के साथ घर संभालने लगी। देखते ही देखते भतीजी बाइस साल की हो गई और मेरी पक्की सहेली भी। बुआ के बिना उसका कोई काम नहीं चलता था।
एक दिन वो चहकती हुई आई और बोली बुआ आज टाउन हॉल में गीत - संगीत का प्रोग्राम है प्लीज़ चलो आप को और दादा - दादी को अच्छा लगेगा। मैंने कार की ड्राइविंग सीट संभाली, कटे हुए बालों में उँगलियाँ फिराईं,गोगल्स पहने और चल पड़े हम चारों ऐसे ही घूमते हैं आजकल। आज कल मेरा शुमार जड़ों से जुड़ी आधुनिक महिलाओं में होता है।
प्रोग्राम चालू हुआ।दस मिनट बाद कॉलेज से फ़ोन आया कि, सडन इंस्पेक्शन आने वाला है तो आप आ जाइये। मैंने मम्मी - पापा से कहा आप गुड़िया के साथ टैक्सी में घर चले जाना। मैं फ़ोन को बैग में रखकर जैसे ही चार कदम चली और मैंने सर ऊँचा किया तो पाँच फीट की दूरी पर वो खड़ा था। प्रोग्राम देखने के लिए अंदर आ रहा था। पहले की ही तरह फॉर्मल्स पहने थे। वही अंदाज़, वही झिझक। मेरे पैर जम गए। मुँह खुला रह गया, पलकें झपकना भूल गईं। गाना शुरू हुआ, ' जाने कितने दिनों के बाद गली में आज चाँद निकला।' वो भी मेरी ही तरफ़ देख रहा था और ठिठक कर खड़ा था।
फिर जैसी कि मेरी आदत थी, मैं संभल गई। सोचने लगी उसने कहाँ पहचाना होगा मुझे। मैं उसे नज़र अंदाज़ करके निकल गई। कार में बैठते ही आँसुओं का सैलाब फूट पड़ा। पर मैं तो रोबोट थी और अब पचास साल की रोबोट थी। तुरंत कमांड दिया आंसू रुक गए कार दौड़ने लगी, रोज़ का अभ्यास जो था,दिल दिमाग की जद्दोजहद के साथ काम करने का।
कॉलेज का काम भी निपटाया। आज पूरे टाइम दिमाग के किसी कोने में ठिठका हुआ सा वो खड़ा था, टाउन हॉल के ऑडिटोरियम में और लगातार मेरे कानों में बज रहा था, ' गली में आज चाँद निकला।' पर मेरे जैसी मशीन का क्या जिसके लिए चाँद निकले या सूरज उसे तो बस काम करना है।
घर पहुँची। चैंज किया। आज भाभी घर पर थीं। डिनर का जिम्मा उन्होंने लिया था वरना मैं तो दिल में चल रहे झंझावत के बावजूद किचन में खाना बनाने वाली थी। खैर मैं सिरदर्द और थकान का बहाना करके अपने कमरे में चली गई। बोला मुझे सोने देना, डिस्टर्ब मत करना।
कमरे की दीवारों से आज उसका वर्तमान अक्स झांक रहा था। जाने कब तक आँसू तकिये को भिगोते रहे, जाने कब तक मैं उस अक्स से भागती रही, जाने कब आँख लगी। मेरी आँख गुड़िया की आवाज़ से खुली। "बुआ ! कितना सोओगी। रात के नौ बजे हैं, खाना खा लो। " उसने मुझे हाथ मुँह धोने को कहा और मैं खाना खाने लगी।
गुड़िया मुझे प्रोग्राम की सारी परफोर्मेंसेज़ के बारे में बताने लगी। मेरी थाली रखकर आ गई। फिर बोली," बुआ! आपके जाने के बाद एक अंकल हमारे पास आए थे। दादा दादी के पैर छूकर बताया कि, वो करीब बत्तीस साल पहले हमारे घर आए थे आपको फिजिकल कैमिस्ट्री की बुक देने जो दादा ने रिसीव की थी। दादा को तो कुछ याद नहीं आया। दादी ने नाम पूछा तो नीरज नाम बताया। वो दादी की इजाज़त लेकर हमारे साथ बैठ गए। दादी ने परिवार के बारे में पूछा तो पता चला उनकी शादी नहीं हुई। कारण नहीं बताया उन्होंने। बाद में बाहर आकर उन्होंने मुझे अपने नंबर दिए तो मैंने फ़ोटो भी मांग लिया कि, क्या पता इतने सालों में आप भी भूल गई हों। उन्होंने कहा कि आप चाहें तो इस नंबर पर उन्हें कॉल कर सकतीं हैं। " गुड़िया ने मुझे व्हाट्स एप पर नंबर और फ़ोटो भेज दिया। जाते - जाते बोली, " बुआ! अंकल काफ़ी हैंडसम और डिसेंट हैं।"
उसके जाते ही मैंने दरवाज़ा बंद किया उसके नंबर और फ़ोटो को घूरती रही लगभग एक मिनट तक। उसके बाद . . . . उसके बाद डिलीट कर दिया। मुझे मशीन की तरह, रोबोट की तरह काम करने की आदत पड़ चुकी थी। परिवार जनों के अलावा किसी से ज़्यादा ताल्लुक़ ना रखने की आदत पड़ चुकी थी। काँटों पर चलना रास आने लगा था,गुलाबों पर चलना नॉनसेंस लगने लगा था।
पचास की उमर में बदलना मुमकिन नहीं होता खासकर तब जब बदलने की इच्छा भी न हो। आज के दिन मेरे जीवन में सिर्फ़ यही नया हुआ था कि, प्रतिदिन जिस यादों की दुनिया में उसकी चंद पुरानी तस्वीरों के साथ जीती थी उसमें दो तस्वीरें और जुड़ गईं थीं, एक में वो ठिठका खड़ा मेरी तरफ देख रहा था और दूसरी में व्हाट्स एप में मुस्कुरा रहा था।
हमेशा की तरह आज भी गहरी नींद सोऊँगी, हमेशा की तरह दिमाग में चलती उसकी तस्वीरों के साथ रोती- मुस्कुराती कल सुबह से रात तक सारे काम वैसे ही करूँगी।
सालों पहले का रूठा सावन अब मुझे आँखों से बरसते हुए ही भाता है। ये सच्चा सावन है, ये सच्ची बारिश है और सबसे बड़ी बात ये मेरा निजी सावन है, ये मेरी निजी बारिश है जो पूरे साल मेरे साथ रहती है और जिसका कोई भागीदार नहीं या शायद है जो दूर किसी शहर में बैठा है, जिसका नंबर और फ़ोटो मैंने अभी डिलीट किया है।

