रिजेक्शन

रिजेक्शन

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खिड़की के काँच के बाहर रात गहराने लगी थी। वो सोचने लगा, भीतर कौन सा उजाला है? वो तो कई रातों से सोया नहीं है। जाने क्या लिखता रहता है।

डायरी के कागज़ मन की स्याही से भरते जाते हैं। नैनीताल के इस छोटे से कॉटेज में आये उसे आज चार दिन हो गए। वो अभी तक अपने कमरे से बाहर तक नहीं निकला। कितना अजीब लगता है न सुनकर। पर वो इतना अजीब कब से हो गया था।


कुछ भरता जा रहा था उसमें शायद एक उदासी-सी। अपने पैंतीस साल के जीवन में उसने जो चाहा उसे मिला, भरपूर मिला। करियर से लेकर परिवार दोस्त सब। लेकिन उसके मन में एक टीस घर कर गयी थी। रिजेक्शन की टीस।

प्रिया ने उसे ना कह दिया था। उसे समझ नहीं आ रहा था कि वो इस रिजेक्शन को किस तरह हैंडल करे, कैसे संभाले। और इस सबसे भागकर वो यहाँ नैनीताल आ गया। माँ और बाबा को बिना कुछ कहे बस एक नोट छोड़कर आ गया था अपने स्टडी टेबल पर -" आई ऍम गोइंग माँ। कहाँ जा रहा हूँ पता नहीं। तुम चिंता मत करना। लौट आऊँगा"

माँ बहुत देर तक रोती रही थी उस कागज़ को सीने से लगाए।


"कह रही थी न वो ठीक नहीं है कुछ दिन से" उन्होंने बाबा की ओर शिकायत भरी नज़र से देखते हुए कहा।


"सॉरी यार मुझे ध्यान देना चाहिए था "


"जो हुआ प्रिया की वजह से हुआ " माँ बोलीं


"फॉर गॉड सेक। कब तक उसे ब्लेम करोगी। एक "ना" पर क्या कोई घर छोड़कर चला जाता है।" बाबा गुस्से में थे।


सब परेशान थे उसे लेकर। उसे प्रिया से कब प्यार हुआ वो नहीं जानता था। कॉलेज का आख़री दिन था जब उसने प्रिया के आगे अपना मन रख दिया था।


"प्रिया मैं, मैं तुमसे कुछ कहना चाहता हूँ..."


"कहो, मुझे लेट हो रहा है" उसने कुछ झुंझलाते हुए कहा


बहुत हिम्मत जुटा कर उसने एक साँस में कह दिया,"यू मीन द वर्ल्ड टू मी प्रिया, आई लव यू। विल यू मैरी मी "


प्रिया हैरान थी और गुस्से में भी "व्हाट! क्या हो गया तुम्हे। हैव यू लॉस्ट इट। मैं और तुमसे शादी। तुमने सोच भी कैसे लिया। आई लव समवन एल्स "


वो वही खड़ा रह गया। उसके पैर ज़मीन में धँस गए हो जैसे। प्रिया जा चुकी थी। पीछे रह गए थे उसके शब्द "आई लव समवन एल्स " जो आज तक उसके कानों में गूँज रहे हैं।


टिंग टोंग!! डोर बैल की आवाज़ से उसका ध्यान टूटा। उसने मेंज़ से उठकर अपने कमरे का दरवाज़ा खोला।


होटल स्टाफ था "सर रूम की क्लीनिंग करनी है, में आई ?"


"रहने दो। प्लीज लीव मी अलोन!” उसने झुंझलाते हुए जवाब दिया


चार दिन से उसने न कुछ खाया, न अपने कमरे से बाहर आया। डिप्रेशन में पड़ा इंसान अपने गले में तमगा लिए फिरता नहीं है कि उसके अपनों या आस पास के लोगों को पता चले की वो डिप्रेशन का शिकार हो गया है। यहाँ तक कि उसे ख़ुद भी कहाँ पता चल पाता है।


अगली सुबह वो अपने कमरे में मृत पड़ा मिलता है और उसकी आत्मा, मेज़ पर पड़ी उसकी डायरी में क़ैद हो जाती है। जिसे शायद फिर कभी रिहाई नसीब न हो।


  


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