पहली बारिश

पहली बारिश

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जून का महीना, यानि कि जब गर्मियाँ अपने पूरे शबाब पर होती है और ऐसी गर्मी में रात के समय जब पूरे दिन की जद्दोज़हद के बाद आप सुकून की नींद सोना चाहें और बत्ती आपको अंगूठा दिखाकर चली जाए, तो कोई क्या करे ??

    बस फिर क्या था, बालकनी का रूख किया और मैं कुर्सी पर जाकर बैठ गई। आँखें कुछ बंद.. कुछ खुली.. कुछ नींद में डूबी..

तभी अचानक गाल पर कुछ फिसलता-सा महसूस हुआ।


"अरे! ये बूंदें!" आज साल की पहली बारिश की बौछार ने मेरे अंर्तमन को छू

लिया...     

बारिश से हम सबकी कोई न कोई यादें जुड़ी होती हैँ।

यादें, कुछ अच्छी, कुछ बुरी, कुछ प्यार से सहला देने वाली..तो कुछ दर्द से रुला देने वाली।

   मैं भी हर बच्चे की तरह अपने दादा-दादी, नाना-नानी की चहेती या यूँ कहिए कि फेवेरिट थी। खासकर अपने दादा जी की। हम दोनो में खूब पटती थी। बचपन में जब दादा जी के कंधे पर बैठकर बाज़ार जाती तो उनके कान खा जाया करती थी -


"दद्‌दु मुझे चूडियाँ दिला दो, बालियाँ दिला दो, पायल दिला दो..."


न जाने क्या-क्या फरमाईशें..जो कभी खत्म ही न होती और दादा जी बड़े प्यार से कहते-


"मेरी रानी बिटिया दिला दूंगा, दिला दूंगा।"


    दादा जी की ऊँगली थामकर ज़िँदगी के मुश्किल रास्तो पर चलना सीखा।रात को उनकी कहानियो का पिटारा खुल जाया करता था, जिसका मुझे बेसब्री से इंत्ज़ार

रहता।


 वे अकसर मुझसे कहते


"एक दिन सफेद घोड़े पर तेरा राजकुमार आएगा और तुझे ब्याह कर हम सब से दूर ले जाएगा.."


 "दादा जी! मै आपको छोड़कर कही नही जाऊँगी.."  ये कहकर मै उनसे

कसकर लिपट जाती।

  

  जब कभी छुपन-छुपाई का खेल होता, दादा जी अपनी आँखे बंद करके गिनती गिनते और मै आँगन मे खड़े बरसो पुराने बड़े-से बरगद के पेड़ के पीछे छिप जाया करती। वही अतीत का साक्षी पेड़, जिसके पीछे कभी पहले दादा जी, फिर पिता जी और फिर मै छिप जाया करते।


कुछ दिनो से दादा जी की तबीयत बिगड़ रही थी। अब वे बहुत कम मेरे साथ छुपन-छुपाई खेला करते और हर रोज़ की तरह रात की कहानियो का पिटारा भी अब बंद-सा हो चला था। उनका कमज़ोर शरीर अब उनका साथ नही दे पा रहा था।

      

    और एक रोज़ मैँने देखा, दादा जी बिस्तर पर लेटे है, उनके पास खड़े पिता जी

और माँ बड़ी ही उम्मीद की नज़रो से डाक्टर की ओर देख रहे थे। जो दादा जी की जाँच कर रहा था। तभी दादा जी ने मुझे हाथ से ईशारा करते हुए अपने पास बुलाया। मै कुछ डरी-सहमी सी उनके पास पहुँची। दादा जी ने मेरा हाथ अपनी हथेली में कसकर भींच लिया..देखते ही देखते उनकी पकड़ ढीली होती गई और उनका हाथ मेरे हाथो से छूट गया..हमेशा के लिए..


मैने खिड़की से बाहर देखा,साल की पहली बारिश बरसने लगी थी , कुछ आसमान से..कुछ मेरी आँखोँ से...


   आज भी उस रोज़ की तरह पहली बारिश की बौछारेँ पड़ रहीँ थीँ। मै बाहर आँगन मे खड़े उसी बरसो पुराने, अतीत के साक्षी बड़े-से बरगद के पेड़ के पीछे दादा जी को ढूँढ़ने लगी..और आखिर.. मैँने उन्हे ढूँढ़ ही लिया, एक नए रूप मे।

ऐसा लगा,पहली बारिश की बूँदो मे उनका स्पर्श और आर्शीवाद बरस रहा हो..



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