Saroj Verma

Thriller

4.7  

Saroj Verma

Thriller

रहस्यमयी टापू....

रहस्यमयी टापू....

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काला घना अंधेरा, समुद्र का किनारा, लहरों का शोर रात के सन्नाटे में कलेजा चीर कर रख देता है, तभी एक छोटी कश्ती किनारे पर आकर रूकती है, उसमें से एक शख्स फटेहाल, बदहवास सा नीचे उतरता है, समुद्र गीली रेत में उसके पैर धसे जा रहे हैं, उसके पैरों में जूते भी नहीं है, लड़खड़ाते से कदम, उसकी हालत देखकर लगता है कि शायद कई दिनों से उसने कुछ भी नहीं खाया है, उसके कपड़े भी कई जगह से बहुत ही जर्जर हालत में हैं।

उसे दूर से ही एक रोशनी दिखाई देती है और आशा भी बंध जाती है कि यहां कोई ना कोई तो मिलेगा ही।

वो धीरे धीरे उस रोशनी वाली दिशा की ओर बढ़ने लगता है, आकाश में तारे भी इक्का-दुक्का ही नजर आ रहे हैं और चांद भी बादलों में कभी छुपता है तो कभी निकलता है, वो शख्स बस उस रोशनी की ओर बढ़ा चला जा रहा है।

       कुछ टीलों को पार करके वो आगे बढ़ा, बस अपनी धुन में बेखबर उसे तो बस उस रोशनी तक पहुंचना है, इधर जंगल की ओर झींगुरों की झाय-झाय और उधर समुद्र में उठ रही लहरों का शोर, बहुत ही भयावह दृश्य हैं, तभी उसने देखा उस रोशनी की ओर अंदर जंगल की तरफ एक पतली सी पगडंडी जा रही है जो अगल-बगल घनी झाड़ियों से ढकी हुई है, उस शख्स का ध्यान सिर्फ उस रोशनी की ओर है तभी उसे महसूस हुआ कि उसके पैर ने शायद किसी को कुचल दिया, उसने नीचे की ओर देखा तो एक कीड़े को उसने कुचल दिया था, जिसमें से कुछ सफ़ेद, गाढ़ा और लिबलिबा सा पदार्थ निकल रहा था, उसने अपने पैर को देखा तो उसके पैर में वो लिबलिबा पदार्थ लग गया था जिससे उसका मन घिना गया, उसने अपने पैर को सूखी रेत में रगड़ा जिससे वो पदार्थ पैर से छूट गया, अब उसका ध्यान फिर रोशनी की ओर गया और वो फिर से उस ओर बढ़ने लगा।

        वो उस रोशनी तक बस पहुंचने ही वाला था, वो चलता ही चला जा रहा था, बस रोशनी अब उससे ज्यादा दूर नहीं थी, उसे अब एक घर दिखाई दे रहा था और वो रोशनी, उस घर के आगे लगे लैंप पोस्ट में जल रही मोटी सी मोमबत्ती की थी, अब उसके दिल को कुछ राहत थी कि चलो ठहरने के लिए एक छत तो मिली, इतना सोचते सोचते वो घर तक जा पहुंचा।

       इसने डरते डरते दरवाजे को खटखटाया, साथ में पूछा भी कि कोई है?

    तभी किसी ने दरवाज़ा खोला_

वह देखते ही चौंक पड़ा, एक बूढ़ी, बदसूरत सी बुढ़िया दरवाजे पर खड़ी थी_

     घबराओ नहीं, कौन हो तुम? बुढ़िया ने पूछा।

  मैं एक व्यापारी हूं, मेरा नाम मानिक चंद है, जहाज से सफर कर रहा था, कम से कम एक साल से बाहर हूं, व्यापार के सिलसिले में, पन्द्रह सालों से मेरा जीवन जहाज पर ही व्यतीत हो रहा है, एक दिन समुद्र में बहुत बड़ा तूफ़ान आया, पूरा जहाज डूब गया लेकिन पता नहीं मुझे कहां से एक छोटी कश्ती मिल गई और मैं उस पर सवार हो गया, दो तीन से ऐसे ही समुद्र की लहरों के साथ थपेड़े खा रहा हूं, दो तीन दिन का भूखा प्यासा हूं, आज इस किनारे पर कश्ती खुद-ब-खुद रूक गई, तब आपके घर के सामने लगे लैंप पोस्ट की रोशनी दिखाई दी और मैं उसी के सहारे यहां तक चला आया, मानिक चंद बोला।

      मैं चित्रलेखा इस घर की मालकिन, वर्षों से यहां अकेले रह रही हूं, हर रोज किसी का इंतज़ार करती हूं लेकिन वो आता ही नहीं, आज तुमने दरवाजे पर दस्तक दी तो लगा वो आया है, चलो अंदर आओ मैं तुम्हें कुछ खाने को देती हूं।

         चित्रलेखा ने कुछ भुना मांस और पीने का पानी मानिक चंद को दिया।‌

   मानिक बोला, लेकिन मैं मांसाहारी नहीं हूं!!

लेकिन यहां तो यही मिल सकता, जंगल में जो मिलता है, खाना पड़ता है, घर के पीछे एक कुआं है लेकिन उसका पानी पीने लायक नहीं है, पीने का पानी भी मैं एक झरने से लाती हूं।

    मानिक बोला, कोई बात नहीं!!

और दो तीन से भूखा रहने के कारण उसने वो भुना हुआ मांस खा लिया और पानी पीकर चित्रलेखा का धन्यवाद किया।

       चित्रलेखा ने मानिक को एक बिस्तर दिया और बोली__

  तुम यहीं सो जाओ और कोई भी आवाज हो, ध्यान मत देना, मैं तुम्हें विस्तार से तो नहीं बता सकतीं लेकिन कुछ भी हो खिड़की से मत झांकना, फिर मत कहना कि मैं ने आगाह नहीं किया।‌

      मानिक बोला, ऐसा भी क्या होता है रात को यहां?

चित्रलेखा बोली, मैंने जो कहा, उस पर ध्यान दो ज्यादा बहस मत करो।

   मानिक बोला, ठीक है जो आप कहें।

और मानिक बिस्तर बिछाकर आराम से हो गया।

     करीब आधी रात को कुछ आवाजें सुनकर उसकी नींद खुली, कोई मीठी धुन में मस्त होकर गाना गा रहा था फिर उसे चित्रलेखा की बात याद आई लेकिन अब उससे रहा नहीं गया और उसने पीछे वाली खिड़की खोलकर देखने की कोशिश की।

      क्या देखता हैं कि एक खूबसूरत सा लड़का, चार सफेद घोड़ों के रथ पर सवार हवा में आसमान से उतर कर गाना गाते हुए चला आ रहा, नीला आसमान तारों से जगमगा रहा और चांद की खूबसूरती भी देखने लायक है।

     लड़के की पोशाक देखकर लग रहा है कि जैसे वो कोई राजकुमार हो और घर के पीछे के कुएं से एक खूबसूरत सी लड़की गाना गाते हुए निकली, देखकर ये लग रहा था कि दोनों प्रेमी और प्रेमिका हैं लेकिन जैसे ही उन लोगों ने मानिक को देखा तो देखते ही देखते राख में परिवर्तित होकर उड़ गए और उसी राख का एक झोंका जोर से मानिक के चेहरे पर लगा जिससे मानिक दर्द से चीख उठा।

    मानिक की आवाज सुनकर चित्रलेखा भागकर हाथों में लैंप लेकर आई और पूछा___

    कि क्या हुआ?

मानिक फर्श पर मुंह के बल पड़ा था, चित्रलेखा ने मानिक को सीधा किया और बोली।

     मना किया था ना कि किसी भी आवाज पर ध्यान मत देना, अब भुगतो, उस राख ने तुम्हारा सारा चेहरा झुलसा दिया, मना करने के बाद भी तुम नहीं माने।

     अब चलो मेरे साथ, तुम्हारा इलाज करती हूं___

और चित्रलेखा ने रसोईघर से कुछ लेप लाकर मानिक के चेहरे पर लगा दिया जिससे मानिक को कुछ राहत हुई__

         

मानिक ने चित्रलेखा से पूछा,

आखिर ऐसा क्या राज है ? और वो लोग कौन थे, ?कोई भटकती रूहें या कोई अंजानी ताकतें, जो इंसानों को देखकर इस क़दर वार करती है, कौन सी सच्चाई छुपी है इस जगह में जो आप मुझसे छुपाने की कोशिश कर रही हैं।

      चित्रलेखा बोली, रहने दो, बहुत लम्बी कहानी है, सुनोगे तो तुम्हारा दिल दहल जाएगा, राज जब तक राज रहे तो अच्छा है।

       अभी तुम सो जाओ, रात का तीसरा पहर खत्म होने वाला है और सुबह होते ही तुम अपनी कश्ती को देखो, अपनी जगह है कि नहीं और वापस लौट जाओ, बाक़ी बातें सुबह करेंगे।

       सुबह सुबह नाश्ते में चित्रलेखा ने किसी पौधे की कुछ भुनी हूं जड़ें, मानिक के सामने खाने को रख दी।

    मानिक ने वो जड़ें खा लीं और चला समुद्र के किनारे जहां उसकी कश्ती थी, वो धीरे धीरे बढ़ता चला जा रहा था, रास्ते में उसे नारियल के ऊंचे ऊंचे पेड़ दिख रहे थे, उसने जमीन पर से एक कच्चा नारियल उठाया और अपने पास मौजूद चाकू की मदद से उसमें सुराख करके पानी पी लिया।

     मौसम बहुत ही खूबसूरत लग रहा था, रात को जो रास्ता भयानक और डरावना लग रहा था, दिन के उजाले में वही रास्ता शांत प्रिय लग रहा था____

    वो अब जंगल पार करके समुद्र किनारे की रेत पर आ पहुंचा था, नीचे कुनकनी रेत, आसमान से आ रही सूरज की सुनहरी धूप, आसमान में घूम रहे परिंदे और दूर दूर तक फैला नीले समुद्र का खारा पानी, समुद्र में उठती हुई लहरें मन को एक अजीब सी तसल्ली दे रही थी।

      मानिक समुद्र तट पर नज़ारों का आनन्द उठा रहा था तभी उसकी नज़र बहुत दूर एक टीले पर पड़ी___

   मानिक वो नज़ारा देखकर हैरान रह गया, उसे दूर से बस यही दिख रहा था कि कोई लड़की अपने घने भूरे बालों को अपनी पीठ की तरफ करके टीले पर बैठी है।

     अब मानिक ने सोचा, इस सुनसान टापू पर भला कौन हो सकता है? फिर उसने सोचा क्यों नहीं हो सकता, जब उस सुनसान जंगल में बिना किसी सुविधा के चित्रलेखा रह सकती है तो यहां इस सुनसान टापू पर इस लड़की का होना कौन सी बड़ी बात है?

   मानिक ने सोचा जरा पास जाकर देखूं तो आखिर वो लड़की कौन है भला!!

      अब मानिक उस दिशा में चल पड़ा जहां उसे वो सुनहरे बालों वाली लड़की चट्टान पर बैठी दिखाई दे रही थीं, वो धीरे धीरे चट्टानों पर चढ़ता हुआ चलता चला जा रहा था।

     वो उस लड़की तक बस पहुंचने ही वाला था कि वो लड़की पीछे की ओर मुड़ी और उसने जैसे ही मानिक को देखा तो समुद्र के पानी में उतर गई।

     अब मानिक भागकर गया कि शायद उसे रोक पाएं, उससे मिल पाएं, उससे पूछ पाएं कि आखिर वो कौन है?

     मानिक जब तक उस ओर पहुंचा, वो बस उसकी एक झलक ही देख पाया, समुद्र का पानी बहुत ही साफ और पारदर्शी था उसने जो देखा, वो देखकर मानिक आश्चर्य में पड़ गया, उसे अपनी आंखों पर भरोसा नहीं हो रहा था कि जो उसने देखा वो सच था या सपना, मतलब उसे समझ नहीं आ रहा था कि जो उसने अभी देखा वो सच में एक जलपरी थी वो भी असली की, जो कि अब तक उसने सिर्फ किस्से और कहानियों में ही सुनी थी।

        उसने उसे आस पास के और भी चट्टानों पर जाकर ढूंढा लेकिन वो कहीं नहीं मिली।

       मानिक दिन भर बदहवास सा समुद्र के किनारे टहलता रहा फिर उसे भूख लगी उसने कुछ मछलियां पकड़ी और कुछ लकड़ियां इकट्ठी करके पत्थरों की मदद से आग जलाई फिर मछलियां भूनी और पत्तों पर रख कर खा लीं, नारियल में चाकू की मदद से सुराख करके पानी पिया।

       उसने सोचा, क्या करूं, कहां जाऊं, मेरे पास तो छोटी सी कश्ती है, इस पर लम्बी यात्रा नहीं हो सकती, शाम को फिर से चित्रलेखा के घर पर ही रूकना पड़ेगा।

     शाम होते ही मानिक उदास मन से फिर से चित्रलेखा के घर लौट चला, वो सोच रहा था, क्या कहेगा चित्रलेखा से कि अभी कुछ दिन यहां रहने दो, अगर किसी दिन कोई जहाज समुद्र किनारे दिखाई दिया तो उसी जहाज से चला जाएगा।

         पगडंडी वाले रास्ते से मानिक फिर से चित्रलेखा के घर चला, सामने देखा तो चित्रलेखा ऊपर के माले की बालकनी पर खड़ी होकर लैंपपोस्ट की मोटी मोमबत्ती को जलाकर उसे शीशे से ढक रही थी, मानिक को देखकर बोली__

    ठहरो, नीचे आती हूं!!

और नीचे आकर उसने दरवाज़ा खोला।

    मानिक बोला, माफ कीजिए, मुझे आज रात फिर से आपके यहां रूकना होगा लेकिन आप मेरे खाने की चिंता ना करें, मैं अपने साथ कुछ भुनी हुई मछलियां लाया हूं अगर आपको जरूरत है तो आप भी ले सकतीं हैं।

    चित्रलेखा बोली, कोई बात नहीं, ये जगह ही ऐसी है जो एक बार यहां आ जाता है वो आसानी से फिर यहां से जा नहीं पाता, कोई भी साधन नहीं है ना! यहां से वापस जाने का।

      मानिक अंदर पहुंचकर चित्रलेखा से बोला, क्या हर रात वो दोनों यहां आकर गाना गाते हैं? क्या आज रात भी आएंगे?

      चित्रलेखा बोली, हां !! सालों से हर रात यहीं होता आया है, इसके पीछे एक कहानी है ‌‌।

    मानिक बोला तो आप सुनाइए वो कहानी मुझे भी सुननी है।

सुनना चाहते हैं तो सुनो, चित्रलेखा ने कहा ,

    और चित्रलेखा ने कहानी सुनाना शुरू किया।

तभी जोर की बिजली कड़की और बारिश शुरू हुआ गई।

चित्रलेखा बोली, वो लोग आज रात नहीं आएंगे क्योंकि बारिश हो रही है, ऐसी ही तूफ़ानी रात थी जब उस रात राजकुमार शुद्धोधन यहां नीलाम्बरा से मिलने आया तो था लेकिन मृत अवस्था में , नीलाम्बरा उस रात बहुत दुखी हुई।

         राजकुमार शुद्धोधन, नीलगिरी राज्य का राजकुमार था, एक दिन घोड़े पर सवार वो अपने राज्य का मुआयना करने निकला, तभी उसे अपने राज्य में जाकर पता चला कि उसके राज्य के लोग बहुत बड़े संकट से जूझ रहे हैं और उस संकट का कारण था एक जादूगरनी, जो वहां के पुरुषों को अपने जादू के दम पर अपने झूठे प्यार में फंसा लेती थीं फिर उस जगह ले जाती थीं जहां वो जादू सीखा करतीं थीं, वहां उन पुरुषों को ले जाकर उनके हृदय निकाल लेती थी फिर कुछ जादू करके उन सबके हृदयों को अपनी उम्र बढ़ाने में इस्तेमाल करतीं थीं।

      अब राजकुमार शुद्धोधन ने अपने राज्य को उस जादूगरनी से मुक्त कराने की सोची और वो जादूगरनी को ढूंढने निकल पड़ा, जंगल में जादूगरनी को खोजते हुए उसकी मुलाकात नीलाम्बरा से हुई और वो उसे प्यार करने लगा, नीलाम्बरा भी शुद्धोधन को पसंद करने लगी थी फिर एक दिन शुद्धोधन को पता चला कि नीलाम्बरा ही उस जादूगरनी की बेटी है।

      रोज रात को शुद्धोधन, नीलाम्बरा से मिलने आने लगा, नीलाम्बरा भी हर रात शुद्धोधन का बेसब्री से इंतज़ार करती लेकिन एक ऐसी ही तूफ़ानी बारिश की रात थीं, उस दिन भी नीलाम्बरा , शुद्धोधन का इंतज़ार कर रही थी, उस दिन शुद्धोधन घोड़े पर सवार आया तो लेकिन मृत अवस्था में, नीलाम्बरा ने इस बात से दुखी होकर कुएं में कूदकर जान दे दी।

       तब उन दोनों की आत्माएं ऐसे ही भटक रहीं हैं।

कहानी सुनकर मानिक को बहुत डर लगा और उसने चित्रलेखा से पूछा कि उस जादूगरनी का क्या हुआ?

          चित्रलेखा बोली, फिर एक रोज राजकुमार शुद्धोधन का छोटा भाई सुवर्ण अपने भाई को खोजते हुए उस जादूगरनी तक पहुंच गया और उसने जादूगरनी को मार दिया।

       फिर मानिक ने चित्रलेखा से कहा कि आज मुझे चट्टान पर एक जलपरी बैठी हुई दिखी लेकिन जब तक मैंने उससे बात करनी चाही उसने तब तक पानी में छलांग लगा दी।

 ये बात सुनकर चित्रलेखा थोड़ी डर सी गई और मानिक से बोली, कभी भूलकर भी उससे बात मत करना, हो सकता है वो कोई छलावा हो।

चित्रलेखा की बात सुनकर मानिक ने सोचा, वो कहां आकर फंस गया है, यहां से जाने का कोई रास्ता भी नहीं दिख रहा, जहां देखो वहीं छलावा दिख रहा है।

 

मानिक चंद को लग रहा था कि वो कौन सी अजीब जगह आकर फंस गया, जो है नहीं वो दिखता है और जो दिखता है वो है नहीं, समुद्र के किनारे वो यहीं बैठा सोच रहा था।

     फिर उसने सोचा ऐसे बैठने से काम चलने वाला नहीं है चलो कुछ करता हूं, तभी यहां से निकल पाऊंगा,तभी उसे दूर पत्थरों के पीछे एक बड़ी सी नाव दिखी, उसने पास जाकर देखा तो अभी नाव की हालत इतनी खराब नहीं थी कुछ ना कुछ मरम्मत करके उसे ठीक किया जा सकता था।

    तभी उसे लगा कि दूर चट्टान पर कल की तरह आज भी कोई बैठा है उसने सोचा अगर ये वहीं कल वाली जलपरी है तो आज तो मैं इसे पकड़ कर ही रहूंगा, हो सकता है इससे मुझे कुछ सवालों के जवाब भी मिल जाएं।

    और मानिक आज फिर उस चट्टान की ओर बढ़ चला, आज मन में ठान कर बैठा था कि चाहे जो भी हो आज तो वो पता लगाकर रहेगा कि आखिर वो जलपरी ही है या के छलावा, मानिक के कदमों की रफ़्तार तेज थी और वो जल्द से जल्द उस जगह पहुंचना चाहता था।

        वो जल्द ही उस जगह पहुंच गया और कल की तरह उस जलपरी ने उसे देखते ही पानी में फिर छलांग लगा दी लेकिन मानिक ने तो जैसे आज ठान ही ली थी उसे पकड़ने की और उसने भी पानी में छलांग लगाकर उस जलपरी को पकड़ लिया और चट्टानों पर ले आया।

          चट्टान पर पहुंच कर मानिक ने सवालों की झड़ी सी लगा दी, उसने पूछा__

     तुम कौन हो?

  तुम चित्रलेखा को जानती हो?

   ये कैसी जगह?

    वो जादूगरनी कौन थीं?

    शुद्धोधन और नीलाम्बरा को जानती हो?

  वो जलपरी हैरान होकर मानिक को देखते रह गई लेकिन किसी भी सवाल के जवाब ना दे सकीं।

     तभी पता नहीं एक बहुत बड़ा सा पक्षी वहां आ पहुंचा और जलपरी को दबोचकर पानी में छोड़कर ना जाने कहां उड़ गया।

    ये सब देखकर मानिक चंद के तो जैसे होश ही उड़ गए, एकाएक उसके दिमाग ने तो जैसे काम करना ही बंद कर दिया था, उसकी समझ से सब कुछ परे था।

     लेकिन मानिक ने अपने होश खोए बिना ही एकाएक फिर से पानी में छलांग लगा कर उस जलपरी को दोबारा पकड़ लिया और इस बार, समुद्र के पानी से बहुत दूर ले आया ताकि ये दोबारा वापस पानी में ना जा सकें।

       अब तक मानिक का दिमाग बिल्कुल चकराया हुआ था, उसने फिर से सवालों की झडियां लगा दी।

    जलपरी फिर से परेशान अब तो उसके भागने के लिए कोई रास्ता भी नहीं बचा था, वो हैरान-परेशान सी चट्टान पर बैठी थी और सोच विचार में थी क्या उत्तर दे।

         मानिक ने फिर पूछा___

बताओ! कौन हो तुम? कुछ बोलोगी! कोई जवाब दोगी?

    मेरा नाम नीलकमल है और ये जो मेरा हाल है किसी ने जादू से किया है, जलपरी बोली।

     वहीं तो मैं जानना चाहता हूं कि ये सब क्या हो रहा है और यहां सब इतना अजीब क्यों है? मानिक चंद की बातों में एक अजीब सी खिझाहट थीं।

     कृपया मुझे मेरे सवालों के जवाब दो, उलझकर रह गया हूं, मैं यहां, निकलना चाहता हूं इस जंजाल से और तुम ही कोई रास्ता सुझा सकती हो, मानिक चंद ने परेशान होकर नीलकमल से कहा।

         तुम्हारी तरह मैं भी यहां बस उलझी हुई हूं और ना जाने कब से इस क़ैद से आजाद होना चाहती हूं लेकिन तुम्हारे बिना मेरा आजाद होना सम्भव नहीं है, तुम ही कुछ मदद कर सकते हो, नीलकमल बोली।

     ये तो तभी सम्भव होगा ना, जब तुम मेरे सवालों के सही सही जवाब दोगी, मानिक ने नीलकमल से कहा।

     हां, पूछो, सब बताती हूं, नीलकमल बोली।

क्या तुम सच में जलपरी हो, या कोई छलावा, मानिक चंद बोला।

       बहुत लम्बी कहानी है, शुरू से सुनाती हूं, नीलकमल बोली।

   तो सुनाओ, मानिक चंद बोला।

     नीलकमल ने कहानी कहना शुरू किया__

    बहुत समय पहले की बात है, पहले इस जगह बहुत ही रौनक हुआ करती थी, यहां एक मछुआरा रहता था उसकी बहुत खूबसूरत सी दो बेटियां थीं।

      वो साल के छ: महीने इस जगह रहता था बाकी छ: महीने वो अपने गांव में रहा करता था, उसकी पत्नी नहीं थी, किसी बीमारी से चल बसी थीं, मछवारा बहुत ही अच्छे दिल और अच्छे स्वभाव का था, हर किसी पर आसानी से भरोसा कर लेता था।

          तभी एक दिन उसे इसी जगह एक सुंदर लड़की दिखी, जिसे वो प्रेम करने लगा और बाद में उससे विवाह भी कर लिया लेकिन बाद में पता चला कि वो औरत अच्छी नहीं थी, पता नहीं आधी रात को उठकर कौन कौन से टोने-टोटके करती थीं, एक रोज मछुआरे ये पता चल गया कि वो कोई साधारण औरत नहीं कोई जादूगरनी थीं।

        अब मछुआरे ने उसकी जासूसी शुरू कर दी, मछुआरे को पता चला कि वो तो कोई जादूगरनी है, अब मछुआरा उससे जल्द से जल्द छुटकारा पाना चाहता था लेकिन एक दिन मछुआरे की लाश यहीं समुद्र किनारे मिली।

         और मछुआरे की दोनों बेटियों का क्या हुआ, मानिक ने पूछा।

   मछुआरे की दोनों लड़कियों को उस जादूगरनी ने घर में गुलाम बना कर कैद कर लिया, वो उन्हें कहीं भी नहीं जाने देती किसी से भी नहीं मिलने देती।

       अब लड़कियां जवान हो चुकी थीं लेकिन जादूगरनी को तो और ही कुछ मंशा थीं, वो तो बस उन्हें क़ैद करके खुद के काम निकलवाना चाहती थीं।

        वो चाहती थी कि वो हमेशा जवान और खूबसूरत रहें, इसके लिए उसे जवान पुरुषों के दिलों की आवश्यकता होती थीं, जिससे वो एक तरह का तरल तैयार करती थी और पीकर हमेशा जवान बनी रहना चाहती थीं।

उस जादूगरनी ने बहुत से पुरुषों के साथ ऐसा किया था, सब कहते थे कि उसने अपनी आत्मा को कहीं और कैद कर रखा था, शायद किसी गिरगिट में, उसे ऐसे तहखाने में कैद कर रखा था जहां के दरवाज़े पर कई बड़े सांप उसकी रक्षा करते थे ।

        इस तरह से पुरुषों के गायब होने की ख़बर से लोग परेशान होने लगे थे लेकिन किसी को कुछ समझ नहीं आ रहा था कि बात क्या है?

      नीलगिरी राज्य के लोगों का इस क़दर गायब होना, वहां के राजा को कुछ अजीब लग रहा था, उन्होंने इस विषय में अपने बड़े बेटे राजकुमार शुद्धोधन से चर्चा की, राजकुमार ने कहा पिताश्री आप चिंता ना करें मैं जल्द ही उस कारण का पता लगाकर रहूंगा और एक रोज राजकुमार शुद्धोधन उस कारण का पता लगाने अपने राज्य से निकल पड़ा।

           शुद्धोधन उस जगह एक लकड़हारे का वेष बनाकर पहुंचा, उसने उस जगह का मुआयना किया और जादूगरनी के विषय में कुछ जानकारी हासिल कर ली, अब उसने सोचा कुछ ना कुछ करके जादूगरनी के रहने वाली जगह का पता लगाना होगा।

         शुद्धोधन को ये तो पता चल गया था कि उस जादूगरनी की दो जवान और खूबसूरत बेटियां हैं लेकिन वो उसकी खुद की नहीं है उसके स्वर्गवासी पति की पहली पत्नी से हैं, शुद्धोधन ने सोचा, अगर मैं उनमें से किसी एक से प्रेम का अभिनय करूं तो उनसे कुछ जानकारी हासिल हो सकती है।

             और शुद्धोधन चल पड़ा अपने मक़सद को पूरा करने के लिए, उसने दूर झाड़ियों से छुपकर देखा था एक खूबसूरत सी लड़की हाथों में मटका लेकर चली आ रही थी, शायद वो पास के झरने से पीने का पानी भरने आ रही थी।

      शुद्धोधन ने कभी इतनी खूबसूरत लड़की नहीं देखी थी, नीली बड़ी बड़ी आंखें, कमर से नीचे घने बाल, पतली कमर और उजला रंग, शुद्धोधन उसे देखते ही उसकी खूबसूरती का कायल हो गया।।

        और उसे दिखाने के लिए कुल्हाड़ी लेकर लकड़ी काटने का अभिनय करने लगा, वो लड़की आई उसने भी शुद्धोधन को अनदेखा कर झरने से जल भरा और सामने से एक नज़र शुद्धोधन को देखा और निकल गई।।

     शुद्धोधन को लगा कि लगता है ये तो बात करने वाली नहीं है, मुझे ही इसे टोकना पड़ेगा और उसने उस लड़की को टोकते हुए कहा___

      जरा सुनो, शुद्धोधन बोला।

   क्या है? उस लड़की ने शुद्धोधन से पूछा।

    मुझे जरा प्यास लगी है, पानी पिला दोगी, शुद्धोधन बोला।।

 झरना बह रहा है, वहां जाकर पानी क्यों नहीं पी लेते, मुझे क्यों परेशान कर रहे हो, उस लड़की ने उत्तर दिया।।

     पानी तो मैं पी लूंगा झरने से लेकिन तुम्हें देख कर तुमसे बात करने का मन हुआ इसलिए दिमाग में ये बहाना आ गया, शुद्धोधन ने अपने सर पर हाथ फेरते हुए कहा।।

       वो तो मैं जानती थी और ये सुनो...सुनो....क्या लगा रखा है, मेरा नाम नीलाम्बरा है और मुझे मेरा नाम लेकर ही पुकारो, नीलाम्बरा बोली।

‌      ठीक है, जैसा तुम कहो! शुद्धोधन बोला।

तुम भी क्या इस जंगल में रहते हो? क्या नाम है तुम्हारा? नीलाम्बरा ने पूछा!!

   हां, मैं यही जंगल में रहता हूं, शुद्धोधन नाम है मेरा, लकड़ियां काटकर पास वाले गांव में बेचता हूं, शुद्धोधन बोला।

   अरे, नाम तो ऐसा है तुम्हारा, जैसे कि तुम कोई राजकुमार हो, नीलाम्बरा बोली।

  बस, ऐसा ही कुछ समझ लो, शुद्धोधन बोला।

 अच्छा, तो तुम खुद को किसी राजकुमार से कम नहीं समझते, है ना! नीलाम्बरा बोली।

   और क्या? इस जंगल में मैं अकेला लकड़हारा, तो हुआ मैं यहां का राजकुमार, शुद्धोधन बोला।

   हां.. हां.. बड़े आए राजकुमार, कभी शकल देखी है, नीलाम्बरा बोली।

   हां, देखी है ना !! शकल, मुझे पता है मैं सुंदर हूं, शुद्धोधन बोला।

 वाह!!अपने मुंह से खुद की तारीफ, बड़े ही घमंडी लगते हो और इतना कहकर नीलाम्बरा जाने लगी।

      अरे, प्यासे को पानी तो पिलाती जाओ, भला होगा तुम्हारा, शुद्धोधन बोला।

      झरने से पी लो, नीलाम्बरा बोली।

तुम पिला देती तो बात ही कुछ और होती, शुद्धोधन बोला।

    इतना कहने पर नीलाम्बरा बोली__

अच्छा!!लो पिओ पानी और बेमतलब की बातें मत करो।

      नीलाम्बरा ने अपने मटके से शुद्धोधन की अंजलि में पानी डाला, शुद्धोधन ने पानी पीकर कहा___

   धन्यवाद!! प्यासे को तृप्ति मिल गई।

नीलाम्बरा मुस्कराई, फिर से मटका भरा और जाने लगी।

   शुद्धोधन बोला___

  कल फिर मिलोगी।

  नीलाम्बरा मुस्कराते हुए बोली__

 कह नहीं सकती!!

और नीलाम्बरा चली गई।

     शुद्धोधन के गुप्तचर भी उस जंगल में थे जो समय समय पर शुद्धोधन को सभी आने जाने वालों की सूचना देते रहते थे, शुद्धोधन ने अपने रहने के लिए एक गुप्त गुफा भी ढूंढ ली थी जहां जीवन यापन के साधन भी थे, उसके सैनिक भी समय समय पर उसके राज्य में सूचनाएं पहुंचाते रहते थे।

       उस रात शुद्धोधन आराम करने अपनी गुफा में पहुंचा लेकिन उसकी आंखों से तो जैसे नींद ही गायब थीं, बस एक ही चेहरा उसकी आंखों में घूम रहा था, वो नीलाम्बरा को पसंद करने लगा था और यही हाल नीलाम्बरा का भी था, सालों बाद उसके चेहरे पर आज मुस्कुराहट आई थी, शुद्धोधन को देखकर।

      नीलाम्बरा को देखकर उसकी छोटी बहन ने पूछा भी__

कि दीदी बड़ी खुश नजर आ रही हो ।क्या बात है?

    लेकिन नीलाम्बरा हंसते हुए टाल गईं।

 रात भर नीलाम्बरा और शुद्धोधन सुबह होने का इंतज़ार कर रहे थे, दोनों की ही आंखों से नींद गायब थीं।

 अगले दिन दोनों ही उस जगह पहुंचे, शुद्धोधन तो पहले से ही नीलाम्बरा का इंतज़ार कर रहा था, नीलाम्बरा को दूर से देखते ही पेड़ को काटने का बहाना करने।

       नीलाम्बरा भी शुद्धोधन को अनदेखा कर झरने की ओर बढ़ गई, मटके में पानी भरकर जाने लगी।

      शुद्धोधन ने सोचा नीलाम्बरा तो कुछ बोली ही नहीं, मैं ही कुछ बात करूंगा तभी बोलेगी, शायद।

     शुद्धोधन ने नीलाम्बरा को टोकते हुए कहा___

   ऐसे ही निकल जाओगी, इस प्यासे को पानी नहीं पिलाओगी।

   नीलाम्बरा ने भी अभिनय करते हुए कहा___

     अरे, तुम!! माफ करना मैंने देखा ही नहीं।

अच्छा!! सच बोल रही हो या ना देखने का अभिनय कर रही हो,

   शुद्धोधन ने नीलाम्बरा से कहा।

  लेकिन तुम अभी तक प्यासे क्यों बैठे हो, झरने से पानी पी सकते थे ना, नीलाम्बरा बोली।

      लेकिन तुम्हारे हाथों से ही पानी पीने से ही मेरी प्यास बुझेगी, शुद्धोधन बोला।

      ऐसा भी क्या है, नीलाम्बरा बोली।

  पता नहीं, कौन सा जादू है तुम में और तुम्हारे मटके के पानी में कि देखकर ही प्यास बुझ जाती है, शुद्धोधन बोला।

     चलो हटो!! ज्यादा बातें मत बनाओ, मुझे जाना है देर हो रही है और इतना कहकर नीलाम्बरा चल दी।

     शुद्धोधन ने नीलाम्बरा को जाते हुए देखा तो बोला__

  कल फिर से आओगी..!!

     नीलाम्बरा ने भी जाते हुए बिना मुड़े जवाब दिया__

   पक्का नहीं कह सकती__

     और नीलाम्बरा चली गई__

नीलाम्बरा को जाते हुए शुद्धोधन देखता रहा, जब तक वो बिल्कुल ओझल ना हो गई।

                

नीलाम्बरा, शुद्धोधन से बिना बात किए आ तो गई लेकिन अब उसे अफ़सोस हो रहा था कि अगर थोड़ी देर ठहर कर शुद्धोधन से बात कर भी लेती तो क्या बिगड़ जाता, बेचारा कितनी आश लिए बैठा था।

     सारे काम धाम निपटा कर बिस्तर पर गई लेकिन आंखों में नींद कहां थी, आंखें तो बस शुद्धोधन को ही देखना चाहती थी फिर वो चाहे खुली हो या बंद, शायद शुद्धोधन के प्रेम जाल में क़ैद हो चुकी थी नीलाम्बरा।

      उधर शुद्धोधन का भी वही हाल था, हर घड़ी आंखें बस नीलाम्बरा को ही देखना चाहतीं थीं, दिल में बस एक ही नाम बस चुका था और वो था नीलाम्बरा।

       अब धीरे-धीरे नीलाम्बरा और शुद्धोधन के प्रेम ने गहराई का रूप ले लिया था, दोनों एक-दूसरे को देखें बिना, मिले बिना रह नहीं पाते, अब दोनों रोज ही जंगल में मिलने लगे, एक-दूसरे से अपनी भावनाएं व्यक्त करने लगे।

    इसी तरह एक दिन बातों बातों में नीलाम्बरा ने अपनी सौतेली मां का सच, शुद्धोधन से कह सुनाया, शुद्धोधन ने भी अपनी सच्चाई नीलाम्बरा को बता दी, सारी बातें सुनकर नीलाम्बरा बोली,

मां को तुम कहीं क़ैद कर देना लेकिन मारना मत।

    शुद्धोधन बोला, वो तो आगे देखा जाएगा लेकिन मुझे पहले सारा राज तो पता चलने दो, अगर तुम बता दोगी तो कुछ आसान हो जाएगा।

    लेकिन मुझे भी सारी बातें कहां मालूम है, नीलाम्बरा बोली।

    तो मालूम करके मुझे बताओ, मासूम लोगों की जान का सवाल है, मुझे बहुत से लोगों की जान बचानी है, शुद्धोधन बोला।

    ठीक है, मैं कोशिश करती हूं, नीलाम्बरा बोली।

 ऐसे ही नीलाम्बरा और शुद्धोधन रोज रात को मिलते, ढेर सी बातें करते, नीलाम्बरा अपनी सौतेली मां के कुछ राज बताती और शुद्धोधन सुनकर उन पर अमल करता।

    लेकिन नीलाम्बरा को ऐसे खुश देखकर सौतेली मां को कुछ शक हुआ और वो इसका पता करने के लिए नीलाम्बरा की जासूसी करने लगी, उसका पीछा करने लगी कि आखिर ऐसी क्या बात है जो नीलाम्बरा इतना खुश रहने लगी है।

     और काफ़ी खोजबीन करने के बाद उसने पता लगा लिया कि नीलाम्बरा किसी से मिलने जाती है उसका नाम शुद्धोधन है, वो नीलगिरी का राजकुमार है और शायद दोनों एक-दूसरे से प्यार भी करते हैं।

      नीलाम्बरा की सौतेली मां को ये शक़ भी हो गया कि ऐसा ना हो नीलाम्बरा ने मेरी सारी सच्चाई उस राजकुमार को बता दी हो और वो मेरे बारे में पता लगाने आया हो।

     अब वो जादूगरनी इसी ताक में रहने लगी कि अच्छा हो अगर मैं उस राजकुमार को ही खत्म कर दूं तो सारी समस्याएं ही खत्म हो जाएगी और एक रोज नीलाम्बरा की सौतेली मां को शुद्धोधन के बारे में सब पता चल गया और उसने मन में ठान लिया कि अब वो शुद्धोधन को जीवित नहीं रहने देगी क्योंकि अब शुद्धोधन से उसकी जान को खतरा है।

        हर रात नीलाम्बरा और शुद्धोधन जंगल में उसी झरने के पास मिला करते थे, इस बात की भनक सौतेली मां को लग गई और उस रात बहुत बारिश हो रही थी, नीलाम्बरा हर रात की तरह उस रात भी शुद्धोधन का इंतज़ार कर रही थी और शुद्धोधन आया तो लेकिन मृत अवस्था में उसका घोड़ा उसका शव लेकर नीलाम्बरा के पास आया था।

     शुद्धोधन के मृत शरीर को देखकर नीलाम्बरा फूट फूट कर रो पड़ी, तभी उसकी सौतेली मां उसके पास आकर बोली__

    इसे मैंने ही मारा है और अगर तुम अपनी भलाई चाहती हो तो अपना मुंह बंद रखना और इसके मृत शरीर को मैं अपने जादू के जोर पर राख में बदल देती हूं।

      और सौतेली मां ने ऐसा ही किया, देखते ही देखते शुद्धोधन का शरीर राख में परिवर्तित हो गया, ये सब देखकर नीलाम्बरा बहुत दुखी हुई, वो घर तो आ गई लेकिन बहुत ही हताश और निराश हालत में, उसने सब कुछ अपनी छोटी बहन से कह दिया, एक दो दिन तक वो रोती रही, फिर उससे दुःख ना सहा गया और एक रात उसने कुएं में कूदकर अपनी जान दे दी।

        फिर एक रोज शुद्धोधन का छोटा भाई सुवर्ण अपने बड़े भाई को खोजते हुए आया और उसने भी जादूगरनी के विषय में सारी जानकारी इकट्ठी कर ली, फिर से वही कहानी दोहराई गई, इस बार सुवर्ण को नीलाम्बरा की छोटी बहन से प्यार हो गया।

    लेकिन इस बार भी जादूगरनी को सब कुछ पता लग गया और एक रोज सुवर्ण और नीलाम्बरा की छोटी बहन इसी समुद्र के किनारे मिले तभी जादूगरनी आ पहुंची।

     तभी मानिक चंद ने नीलकमल से पूछा___

  लेकिन तुम्हें ये सब कैसे पता है?

   नीलकमल बोली__

अभी बताती हूं__

    नीलकमल ने आगे की कहानी बताना शुरू की___

 जादूगरनी यहां आ पहुंची और उसने मुझे जलपरी बना दिया और सुवर्ण को एक बड़ा सा पक्षी।

    तभी मानिक चंद चौंकते हुए बोला__

 तो तुम ही नीलाम्बरा की छोटी बहन नीलकमल हो और वो पक्षी शुद्धोधन का भाई सुवर्ण है।

    हां, नीलकमल बोली।

रूको..रूको.. पहले मुझे सारी बात समझने दो, मानिक चंद बोला।

      नीलकमल बोली__

   इसमें ना समझने लायक तो कुछ भी नहीं!!

 है, कैसे नहीं, क्योंकि मुझसे तो चित्रलेखा ने कहा था कि उस जादूगरनी को तो शुद्धोधन के छोटे भाई सुवर्ण ने मार दिया था, इसका मतलब या तो तुम झूठ बोल रही हो या तो चित्रलेखा, मानिक चंद बोला।

    तुम कैसे जानते हो? चित्रलेखा को, नीलकमल बोली।

  तुम्हारे कहने का क्या मतलब है? मानिक चंद ने पूछा।

   पहले तुम बताओ कि तुम चित्रलेखा को कैसे जानते हो, नीलकमल ने फिर से मानिक चंद से पूछा।

    अरे, मैं चित्रलेखा के घर में ही तो रह रहा हूं, मानिक चंद बोला।

   और अब तक जिंदा हो, नीलकमल आश्चर्य से बोली।

  क्यों क्या हुआ? मानिक चंद ने हैरान होकर पूछा।

   तो तुम्हें नहीं मालूम, नीलकमल बोली।

अरे, क्या? सच सच बताओ, पहेलियां मत बुझाओ, मानिक चंद ने नीलकमल से कहा।

    अरे, चित्रलेखा ही वो जादूगरनी है, नीलकमल बोली।

मानिक चंद बोला, लेकिन वो तो एकदम बूढ़ी और बदसूरत है।

     नीलकमल बोली, सालों से उसे किसी नवयुवक का हृदय नहीं मिला, जिससे वो जवान और खूबसूरत दिखने वाला अद्भुत तरल बनाती थी, इसलिए अब बूढ़ी और बदसूरत दिखने लगी है।

      अच्छा तो ये बात है, मानिक चंद बोला।

  लेकिन ताज्जुब वाली बात है कि उसने अभी तक तुम्हें मारा क्यों नहीं, नीलकमल बोली।

     

 मानिक चंद ने नीलकमल से पूछा __

 तुम्हें और क्या क्या पता है चित्रलेखा के बारे में...

बस, जितना मुझे पता है, वो मैं सब बता चुकी हूं, हां एक बात मुझे भी अब पता चली हैं।

   वो क्या? मानिक चंद ने पूछा।

 चित्रलेखा ने किसी इंसान को वहां कैद कर रखा है, जिस गुफा में पहले शुद्धोधन रहा करता था, नीलकमल बोली।

   अच्छा मुझे तुम उस जगह का पता बता सकती हो, आखिर वो जगह कहां है? मानिक चंद ने पूछा।

    हां.. हां..क्यों नहीं, तुम्हें वहां सुवर्ण लेकर जा सकता है, वो तो उड़कर जाएगा तो किसी को कुछ भी पता नहीं चलेगा, नीलकमल बोली।

   हां, ये अच्छा सुझाव है, मानिक चंद बोला।

 हां, तो कल तैयार रहना और यहां जल्दी आना लेकिन चित्रलेखा को ये भनक ना लगने पाएं कि तुम मुझसे मिल चुके हो, नहीं तो तुम्हारी खैर नहीं, नीलकमल बोली।

     अच्छा ठीक है!! और इतना कहकर मानिक चंद चित्रलेखा के ठिकाने की ओर बढ़ चला।

    मानिक चंद जब चित्रलेखा के घर पहुंचा तब तक अंधेरा गहराने लगा था।

     चित्रलेखा ने दरवाज़ा खोला और बोली___

आज बहुत देर कर दी!!

   हां, आज नाव की मरम्मत करने बैठ गया, सोचा यहां से जाने का कुछ तो जुगाड़ हो, मानिक चंद बोला।

   अच्छा, ये बताओ कुछ खाओगे या आज फिर से भुनी हुई मछलियां लाए हो, चित्रलेखा ने पूछा।

    नहीं, आज तो समय ही नहीं मिला, नाव की मरम्मत करने में व्यस्त था, मानिक चंद बोला।

  अच्छा, तो मैं कुछ खाने पीने का प्रबन्ध करती हूं, चित्रलेखा बोली।

  इसी बीच मानिक चंद को मौका मिल गया, उसने पूरे घर की तो नहीं लेकिन इतने कम समय में जितनी भी जगह वो खंगाल सकता था, खंगाल ली और जैसे ही चित्रलेखा की आहट सुनाई दी, वो चुपचाप आकर अपनी जगह बैठ गया।

    चित्रलेखा ने फिर से कुछ भुना मांस और कुछ पत्तेदार चीज़ों के व्यंजन परोस कर मानिक चंद से बोली__

   लो खाओ।

  और मानिक चंद खाने लगा, उसने खाते खाते बातों ही बातों में पूछा__

 आप यहां ऐसी जगह कैसे रह लेती है? आपको परेशानी नहीं होती, यहां अकेले रहने में कैसे अच्छा लग सकता है किसी इंसान को, इस वीरान से सुनसान टापू पर, मेरा तो दम घुटता है लगता है कि कितनी जल्दी यहां से वापस जाऊं।‌‌।

   बस, सालों हो गए यहां रहते हुए, मैंने खुद को इस वातावरण में ढाल लिया है, मैं यहां से जाने का अब सोच भी नहीं सकतीं, बहुत कुछ जुड़ा है मेरे जीवन का इस जगह से, यह जगह मेरे जीवन का अभिन्न अंग बन चुकी है, मरते दम तक मैं यहीं रहना चाहूंगी, चित्रलेखा बोली।

    मानिक चंद बोला, ऐसा भी क्या लगाव है आपको इस जगह से, ना खाने को ना पीने को और ना ही लोग देखने को मिलते हैं, मेरी नाव बन जाए, यहां से जाने का जैसे ही कुछ जुगाड़ होता है तो आप भी मेरे साथ चल चलिएगा, यहां क्या करेंगी अकेले रहकर।

     नहीं मैं ऐसा नहीं कर सकतीं, अभी बहुत से काम करने हैं, मुझे यहां रहकर, बहुत सी चीजें ठीक करनी हैं, पता नहीं कब कैसे ठीक होगा, चित्रलेखा बोली।

     ऐसा क्या सही करना है आपको इस जगह का, मानिक चंद ने चित्रलेखा से पूछा।

     हैं किसी की जिंदगी और मौत का सवाल, जो मुझे ही ठीक करना होगा, चित्रलेखा बोली।

    ऐसा भी क्या है, मानिक ने पूछा।

 फिर कभी बताऊंगी, अब रात काफ़ी हो चली है, नींद आ रही है और इतना कहकर चित्रलेखा सोने चली गई।

    मानिक चंद को चित्रलेखा की बात सुनकर ऐसा लगा, हो ना हो कोई बात जरूर है, मुझे इन सब बातों का पता लगाना होगा कि आखिर उस गुफा में कौन क़ैद है और किसने उसे क़ैद कर रखा है, क्या चित्रलेखा सच में वही जादूगरनी हैं या वो जलपरी नीलकमल ना होकर कोई और है, इन सब बातों को सोचते हुए मानिक को कब नींद आ गई उसे पता ही नहीं चला।

      दूसरे दिन सुबह हुई, मानिक चंद यह सोचकर जागा कि आज पक्का उस गुफा की ओर जाएगा, जहां चित्रलेखा ने किसी को क़ैद कर रखा है, उससे मिलकर ही पता चलेगा कि आखिर क्या माजरा है ?और वो उस दिशा में चल पड़ा।

    नीलकमल ने तो कहा कि पक्षी बने सुवर्ण को भी साथ ले ले क्योंकि रास्ता बताने में ही वो उसकी मदद कर सकता था लेकिन मानिक चंद ने ऐसा नहीं किया, उससे खुद से ज़्यादा किसी पर भी भरोसा नहीं रह गया था।

           मानिक चंद जिस दिशा में बढ़ा जा रहा था, वो बहुत ही घना जंगल था, इतना घना कि सूरज की रोशनी भी उधर नहीं पड़ती थी, इतने बड़े बड़े मच्छर जैसे कि कोई मधुमक्खी हो, इतने मोटे मोटे तनों वाली लाताएं, ना जाने कौन-कौन से किस्म के पेड़ वहां दिख रहे थे, उसने अपना चाकू भी साथ में ले रखा था, जहां कहीं कोई अड़चन आती तो वो उन्हें काटकर आगे बढ़ जाता।

     इसी तरह वो शाम तक जंगल पार करके गुफा तक पहुंच ही गया, उसने गुफा के पास जाकर देखा तो गुफा का दरवाज़ा दो तीन बड़े बड़े पत्थरों से बंद था, उसको पत्थर सरकाने में बहुत मेहनत लगी, आखिर काफ़ी मेहनत मसक्कत के बाद वो अपने कार्य में सफल हो गया।

     वो धीरे धीरे गुफा के अंदर बढ़ने लगा, अंदर कुछ अंधेरा भी था लेकिन उतना भी नहीं, वो सब साफ़ साफ़ देख पा रहा था, गुफा काफ़ी लम्बी दिख रही थी, वो चलते चला जा रहा था.....वो चलते चला जा रहा था।

     तभी अचानक सामने से उसे एक मर्दाना आवाज सुनाई दी___

  कौन है?

 कौन हो तुम?

  मानिक चंद डर कर बोला__

   मैं!!

  मैं कौन? उस आवाज़ वाले व्यक्ति ने पूछा।

   मैं!! मानिक चंद, मानिक ने कहा।

कौन ?मानिक चंद।, उस व्यक्ति ने पूछा।

   मैं एक व्यापारी हूं, मानिक चंद बोला।

 ठीक है, पहले तुम मेरे नजदीक आकर मेरी बेड़ियां खोल दो, उस व्यक्ति ने कहा।

    इतना सुनकर मानिक चंद ने अपना चाकू हाथ में लिया और डर डर कर उस आवाज़ वाली दिशा में बढ़ने लगा।

    नज़दीक जाकर देखा कि सच में कोई बेचारा बेड़ियों में जकड़ा हुआ है।

    मानिक चंद उसके नज़दीक गया, वहीं पड़ा एक बड़ा सा पत्थर उठाकर बेड़ियों में लगा ताला तोड़ा और उसकी बेड़ियां खोलकर पूछा।

    कौन हो भाई? तुम!!

   उस व्यक्ति ने अपनी बेड़ियां दूर फेंकते हुए कहा___

   मैं नीलगिरी राज्य का छोटा राजकुमार सुवर्ण हूं।

इतना सुनकर मानिक चंद अचंभित होकर बोला__

   तुम सुवर्ण हो तो, वो कौन था?

  सुवर्ण बोला__

  जरा विस्तार से बताओ, तुम किसकी बात कर रहे हो।

  

   मानिक चंद बोला__

   वहीं पक्षी जिसे वो जलपरी कह रहीं थीं कि वो ही सुवर्ण है।

अच्छा तो ये बात है, उसने इतना झूठ कहा तुमसे, सुवर्ण बोला।

    हां, लेकिन असल बात क्या है? क्या तुम मुझे विस्तार से बता सकते हो, मानिक चंद ने सुवर्ण से कहा।

      सुवर्ण बोला, सब बताता हूं...सब बताता हूं, पहले इस गुफा से बाहर तो निकलें, फिर सारी बातें इत्मीनान से बताता हूं।

  दोनों निकल कर गुफा से बाहर आएं और एक सुरक्षित जगह खोजकर एक पेड़ के नीचे बैठ गये, वहीं पास में एक झरना भी बह रहा था, तब तक शाम और भी गहरा आई थी, मानिक चंद ने पत्थरों से रगड़ कर आग जलाई और कुछ पौधे की जड़ें उसी आग में भूनी और मिलकर खाई फिर झरने से पानी पीकर दोनों उसी आग के इर्द गिर्द बैठ गए।

    अब, सुवर्ण ने कहानी कहना शुरू किया।

ये तो तुम्हें पता होगा कि जादूगरनी की दो बेटियां थीं जो कि उसकी नहीं थीं उसके पति के पहली पत्नी से थीं, नीलाम्बरा और नीलकमल, फिर नीलगिरी राज्य का राजकुमार शुद्धोधन यानि के मेरे बड़े भाई आए उस जादूगरनी के बारे में पता लगाने, शुद्धोधन को जादूगरनी की बड़ी बेटी नीलाम्बरा से प्यार हो गया, नीलाम्बरा ने जादूगरनी के सब राज शुद्धोधन को बता दिए, इस बात का जादूगरनी को पता चल गया और उसने एक रात शुद्धोधन की हत्या कर दी, नीलाम्बरा ने ये सब बातें अपनी छोटी बहन नीलकमल को बता दी, नीलाम्बरा, शुद्धोधन की मौत को बर्दाश्त ना कर सकी और एक रात कुएं में कूदकर उसने आत्महत्या कर ली।

      अपने बड़े भाई की मौत की खबर सुनकर शुद्धोधन का छोटा भाई सुवर्ण (यानि की मैं)वहां जा पहुंचा और फिर से वही प्रेम-कहानी दोहराई गई, नीलम्बरा की छोटी बहन नीलकमल से सुवर्ण को प्रेम हो गया, उस दौरान मैंने भी किसी जादूगर से कुछ जादू सीख डाले लेकिन मुझे पता नहीं था कि वो जादूगर उस जादूगरनी को अच्छी तरह जानता है, वो जादूगरनी और जादूगर आपस में बहुत समय पहले से ही एक-दूसरे से प्रेम करते थे।

     और दोनों ने मिलकर ही नीलाम्बरा और नीलकमल के पिता को मारने की साज़िश रची थी।

    एक रोज उस जादूगरनी ने मुझे (यानि सुवर्ण को) और नीलकमल को साथ साथ झरने के पास बैठा देख लिया और नीलकमल को उसने अपने जादू के जोर पर बदसूरत और बूढ़ा बना दिया तब मैंने भी अपना जादू का जोर आजमाया ये देखकर वो डर गई , पता नहीं हवा में कहां गायब हो गई, मैंने नीलकमल से कहा कि तुम घबराओ मत मैं तुम्हें ठीक कर लूंगा, अभी तुम उसी घर में जाकर रहो और कोई भी पूछे तो तुम कहना कि तुम ही चित्रलेखा हो और तब से नीलकमल उसी घर में रह रही है चित्रलेखा बनकर।

       तभी मानिक चंद बोला, मैं ये कैसे मान लूं कि तुम सच बोल रहे हो।

    सुवर्ण बोला, मैं अभी तुम्हारे सारे संदेह दूर करें देता हूं।

   मैं यूं ही उस जादूगरनी चित्रलेखा को कई दिनों तक ढूंढता रहा, एक दिन वो और उसका प्रेमी शंखनाद समुद्र तट पर बैठे थे, मैंने उन्हें पीछे देखा और जादू के जोर पर चित्रलेखा को जलपरी बना दिया और शंखनाद को पक्षी, दोनों तब से उसी अवस्था में हैं।

         लेकिन ये बताओ जब तुमने चित्रलेखा को जलपरी और शंखनाद को पक्षी बना दिया तो तुम्हें गुफा में किसने कैद किया और तुम्हारे कैद होने के विषय में चित्रलेखा मुझे क्यों बताने लगी भला!! वो तो तुम्हारी दुश्मन हैं आखिर वो क्यों चाहेंगी कि तुम गुफा से रिहा हो, मानिक चंद ने सुवर्ण से पूछा।

      इसके पीछे भी एक कहानी है, अभी बहुत रात हो गई है, थोड़ा आराम कर लेते हैं फिर सुबह मैं सारी कहानी तुमसे कहूंगा, सुवर्ण बोला।

       लेकिन रात भर मुझे नींद नहीं आएगी, डर लगा रहेगा कि तुम सुवर्ण ही हो क्योंकि यहां आकर जिससे भी मिला उसने एक अलग ही कहानी सुनाई, अब डर लग रहा कि कौन सच बोल रहा है और कौन झूठ, मानिक चंद बोला।

      अच्छा तो तुम्हें मुझ पर भरोसा नहीं है, सुवर्ण बोला।

हां, नहीं है, अपनी जान को लेकर कौन सजग नहीं रहता, क्या भरोसा तुम्हारा, आधी रात गए तुम मुझे सांप-बिच्छू बना दो तो मैं क्या बिगाड़ लूंगा तुम्हारा, तुम ठहरे जादूगर और ये भी तो पक्का पता नहीं है कि तुम ही सुवर्ण हो, मानिक चंद बोला।

       इसका मतलब तुम्हारा सोने का कोई इरादा नहीं है, सुवर्ण बोला।

    ऐसा ही कुछ समझो, मानिक चंद बोला।

  तो सुनो, अब पूरी कहानी ही सुन लो, शायद तुम्हें मुझ पर भरोसा हो जाए।

        जिसने मुझे कैद किया, वो एक तांत्रिक था जिसका नाम अघोरनाथ था, वो बहुत बड़ा अघोरी था, उसने मेरी सुरक्षा के लिए मुझे उस गुफा में क़ैद किया था ताकि मैं सुरक्षित रहूं, सुवर्ण बोला।

     अब ये क्या फिर से एक नई कहानी, आखिर सच क्या है? पूरी बात ठीक से बताओ, मानिक चंद खीजकर बोला।

        सुवर्ण हंसकर बोला___

   अच्छा ठीक है तो सुनो पूरी कहानी।

जितनी पहले सुनाई वो सारी कहानी सच है और जो अब सुनाने जा रहा हूं, वो भी पूरी तरह सच है।

     अच्छा.. अच्छा... ठीक है, अब सुनाओ भी, मानिक चंद बोला।

   हुआ यूं कि ___

     बहुत साल पहले की बात है, एक आदमी था जिसका नाम अघोरनाथ था, उसे तांत्रिक बनने की बहुत इच्छा थी, उसके परिवार में उसकी पत्नी और बेटी ही थे, उसकी भीतर तांत्रिक बनने की इतनी तीव्र इच्छा हुई कि उसने अपना घर छोड़कर शवदाहगृह में अपना बसेरा कर लिया।

        वहां उसे और भी कई अघोरियों का साथ मिल गया, वो घंटों जलते हुए शव पर अपनी तंत्र विद्या आजमाता, उसने इस तपस्या में अपने जीवन के ना जाने कितने साल गंवा दिए, इस दौरान वो अपने घर भी नहीं लौटा वहां उसकी पत्नी और बेटी उसकी राह देखते रहे।

      अब बेटी जवान और सयानी हो चुकी थी, इसी दौरान उसे किसी जादूगर ने अपने प्रेम जाल में फंसा लिया, वो लड़की कोई और नहीं चित्रलेखा थीं और वो जादूगर शंखनाद था।

      चित्रलेखा, शंखनाद के प्रेम में वशीभूत होकर, उसकी सारी बातें मानने लगी, धीरे धीरे शंखनाद ने उसे अपने फ़ायदे के लिए इस्तेमाल करना शुरू कर दिया, उसे जादूगरी में परांगत कर दिया लेकिन ये सब चित्रलेखा की मां को बिल्कुल भी पसंद नहीं था, वो नहीं चाहती थीं कि उसकी बेटी जादूगरनी बनकर, लोगों को नुकसान पहुंचाए।

     एक रोज मां बेटी में बहुत बहस हुई और गुस्से में आकर चित्रलेखा ने अपनी मां की हत्या कर दी, ये बात उसने शंखनाद को बताई और इस बात का पूरा पूरा फायदा शंखनाद ने उठाया, उसने चित्रलेखा को जरिया बनाया अपना मक़सद पूरा करने में, क्योंकि चित्रलेखा को नहीं शंखनाद को नवयुवकों के हृदय से बने तरल पदार्थ पीने की आवश्यकता थी क्योंकि उसे लम्बी उम्र चाहिए थी।

         और इस साज़िश का शिकार पहले नीलाम्बरा और नीलकमल के पिता हुए और बाद में मेरा बड़ा भाई शुद्धोधन, उसका हृदय निकालकर उसके मृत शरीर को घोड़े पर भेज दिया गया था।

    जब मुझे ये पता चला कि मेरा बड़ा भाई शुद्धोधन नहीं रहा तो मुझे यहां आना पड़ा और इसके बाद की कहानी तो मैं तुम्हें बता ही चुका हूं, सुवर्ण ने कहा।

     ये सब तो मैं समझ गया लेकिन तुमने ये नहीं बताया कि तुम उस गुफा में क़ैद कैसे हुए, मानिक चंद ने पूछा।

     हां.. हां..भाई सब बताता हूं थोड़ा सब्र रखो, सुवर्ण हंसते हुए बोला।

                  

                  

  अब चलो सुनो आगे की कहानी, सुवर्ण ने मानिक चंद से कहा__

    मैंने अपने जादू से चित्रलेखा को जलपरी और शंखनाद को पंक्षी का रूप तो दिया लेकिन चित्रलेखा जलपरी बनकर मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकती थी क्योंकि वो ज्यादा देर तक पानी से बाहर नहीं रह सकती थी, लेकिन शंखनाद तो मेरी जान के पीछे ही पड़ गया।

     मैं हमेशा उससे बचा बचा फिरने लगा, नीलकमल से भी तो कहीं दिनों तक मिलने नहीं जा सका, उस दौरान मैं ऐसे घने जंगलों में रहने लगा जहां सूरज की रोशनी भी नहीं जा सकती थी क्योंकि शंखनाद तो पंक्षी था तो वो मुझे कहीं से भी आकर ढूंढ सकता था और मैं खुद को उससे बचाने का प्रयास कर रहा था।

       मुझे इतना ज़्यादा जादू भी नहीं आता कि मैं उससे जीत पाता, लेकिन इतना छुपने के बावजूद भी उसने मुझे एक दिन ढूंढ ही लिया, जैसे ही उसने मुझे देखा उसने मेरा पीछा करना शुरू कर दिया और मैं घने जंगलों की ओर भागा चला जा रहा था...भागा चला जा रहा था लेकिन फिर भी वो मेरे सामने आ पहुंचा, मैं उसके वार से खुद को बचाता रहा, बस उसने तो उस दिन मुझे मारने की जैसे ठान ही ली थीं, उसने मुझे बहुत चोट पहुंचाई, मैं लड़ते लड़ते थक चुका था चूंकि वो पक्षी था तो किसी भी दिशा की ओर से आकर वो मुझ पर हमला करता, बाद में मुझमें उस का वार सहने की क्षमता नहीं रह गई और मैं घायल हो चुका था।

        लेकिन जब मुझे होश आया तो मुझसे एक बुजुर्ग ने पूछा__

   अब, कैसे हो तुम?

    मैंने कहा, ठीक लग रहा है।

   उन्होंने कहा, तुम अब से मेरी निगरानी में रहोगे।

    मैंने पूछा__ लेकिन क्यों?

   उन्होंने कहा__ मैं चाहता हूं, तुम सुरक्षित रहो।

  मैंने पूछा__लेकिन आप मेरा भला क्यों चाहने लगे, इसका कोई कारण।

    उन्होंने कहा __हां

  मैंने पूछा__ क्यो?

    उन्होंने कहा__ मैं अघोरनाथ, चित्रलेखा का पिता, मैं एक तांत्रिक हूं और तुम्हारी रक्षा के लिए नीलगिरी के महाराज यानि के तुम्हारे पिता ने मुझे नियुक्त किया है ताकि तुम्हारा हाल शुद्धोधन की तरह ना हो।

   मैंने पूछा_ लेकिन आप तो चित्रलेखा के पिता होकर, मेरी भलाई के बारे में क्यो सोचने लगे भला!!

   वो बोले__ मेरी पुत्री बहुत बड़ी अपराधिनी है, उसने मेरी पत्नी की हत्या के साथ साथ और ना जाने कितने लोगों की हत्या की है, इसके लिए मैं उसे कभी क्षमा नहीं कर सकता और उसके किए की सजा उसे अवश्य मिलनी चाहिए।

         उसने अपनी विद्या का उपयोग गलत कामों के लिए किया है और ये मैं बर्दाश्त नहीं कर सकता, मैं भी तो एक तांत्रिक हूं लेकिन मैंने अपनी विद्या का उपयोग कभी भी ग़लत कामों में नहीं किया, इसलिए महाराज ने मुझे नियुक्त किया है और अब से तुम्हारी सुरक्षा की जिम्मेदारी मेरी होगी।

            और उसके बाद मैं ने अघोरनाथ से कुछ तंत्र विद्या सीखी, फिर एक दिन वो बोले, मुझे किसी जरूरी काम से जाना होगा और तुम्हे वहां अपने साथ नहीं ले जा सकता इसलिए मैं तुम्हें दो दिनों के लिए गुफा में क़ैद कर के जाऊंगा और वो चले गए, सुवर्ण बोला।

       लेकिन अघोरनाथ गए कहां?, मानिक चंद ने पूछा।

     मुझे भी नहीं पता, सुवर्ण बोला।

   तुमने अघोरनाथ पर भरोसा कैसे कर लिया, हो सकता है वो भी कोई साजिश रचने वाला हो तो, मानिक चंद ने कहा।

       अच्छा!! अभी ये सब छोड़ो, आधी रात होने को आई, अब थोड़ा विश्राम कर लें, बहुत थक चुका हूं मैं, सुवर्ण बोला।

         अच्छा ठीक है मित्र, जैसी तुम्हारी मंशा, मैं भी थक चुका हूं, अब तुम्हारी बातें सुनकर मेरा मन हल्का हो गया, अब शायद मैं भी चैन से सो सकूं और इतना कहकर मानिक गहरी निंद्रा में लीन हो गया।

         रात का गहरा अंधेरा, ऊपर से घना जंगल, तरह तरह के पंक्षियों का कर्कश शोर, आग भी बुझने को थीं क्योंकि लकड़ियां जल चुकी थीं केवल कोयलें ही सुलग रहे थे और उनसे ही हल्की रोशनी थी, तभी एकाएक मानिक चंद को ऐसा लगा कि कोई उसका गला घोंट रहा है, अचानक उसने अपनी आंखें खोली और गला घोंटने वाले को देखने का प्रयास करने लगा लेकिन इतना अंधेरा था वो कुछ देख नहीं पा रहा था, बड़ी मेहनत मसक्कत के बाद वो खुद को छुड़ाने में कामयाब रहा, छूटते ही जंगल में भागना शुरू कर दिया, वो बार बार पीछे मुड़कर देख रहा था लेकिन उसे कोई दिखाई नहीं दे रहा था, सूखे पत्तों में किसी के कदमों की आहट आ रही थी, बस ऐसा लग रहा था कि कोई उसका पीछा कर रहा है।

      वो भागते जा रहा था...भागते जा रहा था लेकिन वो शक्ति उसे दिख नहीं रही थीं, बस मानिक को समझ नहीं आ रहा था कि क्या करें, वो भाग भागकर थक चुका था लेकिन वो शक्ति उसका पीछा नहीं छोड़ रही थी।

        वो भागते भागते किसी पेड़ के टूटे हुए तने से टकराकर गिर पड़ा, अब तो उस शक्ति ने उसे हवा में उछाल दिया, वो मुंह के बल आकर जमीन पर फिर से गिर पड़ा, उसके माथे पर बहुत गहरी चोट लग चुकी थीं और बहुत खून बह रहा था, वो पूरी हिम्मत लगाकर खड़ा हुआ तो उस शक्ति ने चाकू से उसके सीने पर वार किया लेकिन उसी समय किसी ने धक्का देकर उसे धकेल दिया जिससे चाकू का वार खाली चला गया।

        उसे धक्का देने वाले व्यक्ति ने उसी समय कुछ मंत्र पढ़ें और वो शक्ति हवा में गायब हो गई।

          उस व्यक्ति ने मानिक चंद को सहारा देकर खड़ा किया और पूछा__

     ठीक हो, ज्यादा चोट तो नहीं लगी।

    मानिक चंद उन्हें हैरानी के साथ देखते हुए बोला__

  मैं ठीक हूं, बहुत बहुत धन्यवाद आपका जो समय पर आकर आपने मेरी जान बचाई।

     मुझे मालूम था कि शंखनाद ऐसी कोई हरकत जरूर करेगा इसलिए मैं उसे गुफा में क़ैद करके गया था, पता नहीं गुफा से उसे किसने आज़ाद कर दिया, वो व्यक्ति बोला।

     जी, मैंने उसे आजाद किया लेकिन वो तो सुवर्ण था, मानिक चंद फिर हैरान होकर पूछा।

     तुम्हें किसने कहा कि वो शंखनाद नहीं सुवर्ण था, उस व्यक्ति ने मानिक चंद से पूछा।

     मुझे तो उसने खुद बताया कि वो सुवर्ण है और जो उस घर में रह रही हैं वो नीलकमल हैं, जो समुद्र तट पर जलपरी मिली थी वो चित्रलेखा थीं, जो समुद्र तट में पंक्षी था वो शंखनाद है, मानिक चंद एक सांस में सब कह गया।

      अच्छा तो ये बात है, उसने तुम्हें गुमराह करने की कोशिश की, उस व्यक्ति ने कहा।

       लेकिन महाशय!! आखिर आप कौन हैं? मेरा तो सर चकरा रहा हैं, हर बार किसी ना किसी के मिलने पर नई कहानी, अब आप भी सच बोल रहे हैं या झूठ, मैं ये कैसे मानूं, मानिक चंद खींज कर बोला।

      मैं अघोरनाथ हूं, उस व्यक्ति ने कहा।

अच्छा तो आप ही चित्रलेखा के पिता हैं, मानिक चंद बोला।

    हां, मैं ही उसका अभागा बाप हूं जिसकी इतनी क्रूर बेटी हैं, मैं जिंदगी भर लोगों की भलाई करता रहा और मेरी बेटी ने तो इन्सानियत की हद ही पार कर दी, अघोरनाथ बोला।

    अब, मैं कैसे मान लूं कि आप सच बोल रहे हैं, मानिक चंद ने कहा।

    हां, तुम बिल्कुल सही कह रहे हो, ये तिलिस्म से भरा टापू हैं यहां एक बार जो आ गया वो वापस नहीं जा सकता क्योंकि शंखनाद सबके हृदय निकाल कर अपना जीवन बढ़ाने वाला तरल बनाता है और इस काम में उसका पूरा पूरा सहयोग मेरी बेटी चित्रलेखा करती है, अघोरनाथ बोला।

      इसलिए तो मुझे संदेह हो रहा कि आप सच में अघोरनाथ ही हैं, मानिक चंद बोला।

      अच्छा, ये लो परिमाण, नीलगिरी राज्य के राजा का पत्र, उन्होंने मुझे अपने छोटे बेटे सुवर्ण की रक्षा के लिए नियुक्त किया है, अघोरनाथ ने पत्र, मानिक चंद के हाथ में सौंपते हुए कहा।

      मानिक चंद ने वो पत्र पढ़ा और बोला___

       मानिक चंद बोला, परंतु आप यहां से कहां गए थे, शंखनाद को उस गुफा में कैद़ करके।

               

 मैं अपने और भी सहयोगियों से इस कार्य के लिए मदद मांगने गया था क्योंकि चित्रलेखा और शंखनाद अब इतने शक्तिशाली हो चुके हैं कि मैं अकेले ही उन दोनों के जादू को नहीं तोड़ सकता, अघोरनाथ बोले।

     लेकिन अब भी मैं आपके उत्तर से संतुष्ट नहीं हूं, मानिक चंद बोला।

   लेकिन क्यों? मैं सत्य बोल रहा हूं, अघोरनाथ बोले।

 लेकिन मैं कैसे मान लूं कि आप एकदम सत्य कह रहे हैं, हो सकता है वो नीलगिरी राज्य के महाराज का पत्र झूठा हो, मानिक चंद बोला।

     अच्छा, अब आप ही बताइए तो मैं ऐसा क्या कर सकता हूं, आपके लिए जिससे आपको मेरी बात पर विश्वास हो जाए, अघोरनाथ ने पूछा।

       अच्छा तो आप समुद्र तट पर चलकर पहले ये निश्चित करें कि वो जलपरी नीलकमल हैं और वो पंक्षी सुवर्ण है, आप उन्हें ये आश्वासन दे कि आप उनके प्राण बचा लेंगे, आप उनकी रक्षा के लिए ही नियुक्त किए गए हैं, मानिक चंद ने अघोरनाथ से कहा।

       हां.. हां..क्यो नही!!भला मुझे क्या आपत्ति हो सकती है, मेरा तो यही कार्य है, असहाय प्राणियों की रक्षा करना, मैं तो हमेशा ऐसे कार्यों के लिए तत्पर रहता हूं, मैंने तंत्र विद्या केवल इन्हीं कार्यो के लिए ही सीखी थी और आपको विश्वास दिलाने के लिए मैं अवश्य ही उन दोनों से मिलने चलूंगा, अघोरनाथ बोले।

   अघोरनाथ और मानिक चंद समुद्र तट की ओर चल पड़े, दोनों भूखे और प्यासे भी हो चले थे, रास्ते में कच्चे नारियल तोड़कर उन्होंने अपनी प्यास बुझाई, फिर समुद्र तट पर कुछ मछलियां पकड़ कर भूनी, उन्हें खाकर मानिक चंद तृप्त हुआ परंतु अघोरनाथ जी ने मछलियों का सेवन नहीं किया उन्होंने कहा कि मैं मांसाहार अभी नहीं कर सकता, हो सकता है मुझे अभी मंत्रों का उच्चारण करना पड़ जाए और ये निषेध हैं और वैसे भी मैं मांसाहार नहीं करता, इसमें मुझे रूचि नहीं है, मैं कुछ जड़ें भूनकर खा लेता हूं और खा पीकर दोनों लोग उसी जगह नीलकमल की प्रतीक्षा करने लगें, जहां मानिक चंद को नीलकमल मिली थीं।

       कुछ समय के पश्चात् नीलकमल समुद्र में तैरती हुई दिखी, मानिक चंद ने उसे आवाज़ लगाई।

     नीलकमल पत्थरों पर आकर बैठ गई और मानिक चंद से पूछा।

     मैंने आपकी कितनी प्रतीक्षा की, कहां रह गए थे आप, कुछ पता किया आपने, चित्रलेखा के विषय में, कब तक मुझे इस रूप में सुवर्ण से अलग होकर रहना पड़ेगा, बहुत ही विक्षिप्त अवस्था है मेरी, मेरी अन्त: पीड़ा को समझने का प्रयास करें।

          इसलिए तो मैं इन महाशय को आपसे मिलवाने लाया था, मानिक चंद ने नीलकमल से कहा।

      कौन हैं ये?ये भी चित्रलेखा की तरह कोई मायावी ना हो, आपने कैसे इन पर विश्वास कर लिया, नीलकमल ने मानिक चंद से कहा।

   नहीं.. नहीं.. वैसे आपका सोचना एकदम सही है, कोई भी होता तो ऐसी ही प्रतिक्रिया देता लेकिन आप मुझ पर विश्वास रखें, मैं कभी भी आपको और सुवर्ण को कोई भी हानि नहीं होने दूंगा, मानिक चंद ने नीलकमल से कहा।

    आप कह रहे हैं तो मान लेती हूं, वैसे है कौन ये? नीलकमल बोली।

    ये बहुत बड़े तांत्रिक अघोरनाथ जी हैं, साथ में ये चित्रलेखा के बहुत बड़े शत्रु भी है और सबसे आश्चर्यजनक बात ये है कि चित्रलेखा के पिता भी है, इनकी ख्याति देखकर नीलगिरी के महाराज जोकि सुवर्ण के पिता हैं, उन्होंने ही इन्हें सुवर्ण के प्राणों की रक्षा हेतु नियुक्त किया है, मानिक चंद बोला।

      परंतु इसका क्या प्रमाण हैं कि ये जो बोल रहे हैं, वो सत्य ही होगा, हो सकता है कि ये कोई तांत्रिक ही ना हो, ये तुम्हें रि‌झाने के लिए कोई मायावी रूप धरकर आए हो, नीलकमल ने मानिक चंद से कहा।

      तो आपको मेरी बातों पर अब भी संदेह और अगर मैं आपको पुनः आपके वहीं पहले वाले रूप में लाने में सफल हो जाऊं तो क्या तब भी आपको किसी प्रमाण की आवश्यकता होगी, अघोरनाथ बोले।

       जी, अगर आपका प्रयास सफल हो तो मुझे और सुवर्ण को नया जीवन मिल जाएगा, हम आपका यह आभार जीवन भर नहीं भूलेंगे, नीलकमल बोली।

     तो ठीक है, कहां है सुवर्ण? उन्हें भी बुलाए, मैं अभी आप लोगों के पुराने रूप में लाने का प्रयास करता हूं, मेरे कारण आप लोग अपने पुराने रूप में आ गए तो सबसे ज़्यादा प्रसन्नता मुझे ही होगी, अघोरनाथ बोले।

       नीलकमल बोली, मैं अभी सुवर्ण को आवाज लगाती हूं

  और नीलकमल ने सुवर्ण को जोर जोर से आवाज़ लगाई__

      सुवर्ण.... सुवर्ण... कहां हो? यहां आओ, ये लोग तुम्हें कोई हानि नहीं पहुंचाएंगे, मेरी बात पर विश्वास रखों, इन महाशय को आपके पिताश्री ने ही आपकी रक्षा हेतु नियुक्त किया है, आप तनिक भी भयभीत ना हो।

     और थोड़ी देर बाद सुवर्ण वहां उड़ते हुए आ पहुंचा__

   अघोरनाथ ने एक जगह बैठकर अग्नि जलाई, उस अग्नि के चारों ओर कुछ चिन्ह अंकित किए, तत्पश्चात् अपने नेत्र बंद करके कुछ मंत्रों का उच्चारण शुरू कर दिया, अपने कमण्डल से जल लेकर अग्नि पर जल का छिड़काव करते, बहुत देर की तपस्या के बाद उन्होंने अब की बार जल का छिड़काव नीलकमल और सुवर्ण पर किया और देखते ही देखते दोनों अपने पुनः वाले रूप में आ गए।

     नीलकमल अत्यधिक प्रसन्न हुई, उसने अघोरनाथ जी के चरणस्पर्श करते हुए कहा कि___

   क्षमा करें!! बाबा, जो मैंने आप पर संदेह किया, बहुत बहुत आभार आपका, आपने हमें नया जीवन दिया है।

      सदा प्रसन्न रहो, पुत्री!! और आभार किस बात का तुम तो मेरी पुत्री समान हो, ये तो मेरा कर्त्तव्य था, ये तो मैंने मानवता वश किया, किसी की सहायता कर सकूं, ये तो मेरे लिए बड़े गौरव की बात होगी, अघोरनाथ बोले।

         नीलकमल बोली और मानिक भाई आपका भी बहुत बहुत धन्यवाद, आज से आप मेरे बड़े भाई हुए, अगर आप ना होते तो हम दोनों कतई भी अपने पहले वाले रूप नहीं आ पाते, आप ही बाबा को यहां लाए और उन्होंने हमारी सहायता की, नीलकमल ने मानिक चंद से कहा।‌

     ऐसा ना कहो, नीलकमल बहन, ये तो मेरा धर्म था, अपनी बहन की सहायता करना तो मेरा कर्तव्य है, मानिक चंद बोला।

     और उस दिन सब बहुत प्रसन्न थे, मानिक चंद की उलझन खत्म हो चुकी थीं, उसे अब अघोरनाथ पर संदेह नहीं रह गया, नीलकमल भी अपने पहले वाले रूप में आ चुकी थीं लेकिन अब यह सबसे बड़ी उलझन थी कि चित्रलेखा और शंखनाद का क्या किया जाए।

     बस, इसी बात को लेकर उन सब में वार्तालाप चल रहा था।

   मैं अभी तक शंखनाद की शक्तियों का पता नहीं लगा पाया हूं कि वो कितना शक्तिशाली हैं, उसके साथ चित्रलेखा भी है, चित्रलेखा को भी कम नहीं समझना चाहिए, अघोरनाथ बोले।

       लेकिन बाबा कुछ तो ऐसा होगा जो उन दोनों के जादू को तोड़ सकता हो, मानिक चंद बोला।

     अच्छा, भइया, आप चित्रलेखा के घर में रूके, आपको वहां कुछ भी ऐसा आश्चर्यजनक प्रतीत नहीं हुआ कि ये कैसे हो सकता है, सुवर्ण बोला।

    नहीं, सुवर्ण, ऐसा तो कुछ नहीं लगा, मानिक चंद बोला।

   परन्तु, कुछ ना कुछ तो ऐसा अवश्य होगा जो आपको लगा हो कि यहां नहीं होना चाहिए था, या ऐसी कोई घटना जो कुछ विचित्र प्रतीत हुई हो, नीलकमल बोली।

    नहीं ऐसा तो कुछ, याद नहीं आ रहा लेकिन याद आते ही बताऊंगा, मस्तिष्क पर जोर डालना पड़ेगा, मानिक चंद बोला।

      ऐसा कुछ तो अवश्य ही होना चाहिए, जिससे चित्रलेखा की दुर्बलता का पता चल सकें, ये तो वहीं जाकर ज्ञात हो सकता है, अघोरनाथ जी बोले।

    लेकिन ऐसा साहस कौन कर सकता है भला, क्योंकि अब तक तो मेरी सच्चाई भी चित्रलेखा को शंखनाद ने बता दी होगी और वो अत्यधिक सावधान हो गई होंगी, मानिक चंद बोला।

    हां, ये भी सत्य है, अघोरनाथ बोले।

  अब इसका क्या समाधान निकाला जाए, सुवर्ण बोला।

                

    अघोरनाथ जी बोले___

  अभी तो हम सब एक सुरक्षित स्थान ढूंढते हैं, रात्रि भी गहराने वाली, कुछ खाने पीने का प्रबन्ध करते हैं, इसके उपरांत विश्राम करके प्रात: सोचेंगे कि क्या करना है।

    तभी, मानिक चंद भी बोला__

आपका कहना उचित है बाबा!! चलिए सर्वप्रथम कोई झरना देखते हैं, इसके उपरांत वहीं अग्नि जलाकर विश्राम करेंगे।

      सब ने एक झरना ढूंढा और वहां अग्नि जलाकर खाने पीने का प्रबन्ध किया, इसके उपरांत सब खा पीकर विश्राम करने लगे।

      आधी रात होने को आई थीं, सब थके हुए थे इसलिए शीघ्र ही गहरी निद्रा में लीन हो गए।

    तीसरा पहर होने को था, तभी अघोरनाथ को किसी की पुकार सुनाई दी, उनकी आंख खुली, कुछ देर तक वो सुनते रहे परंतु कोई भी ध्वनि , कोई भी स्वर सुनाई नहीं दिया, तब उन्होंने सोचा कदाचित् कोई वनीय जीव होगा, अधिकांशतः जानवर रात को रोते हैं, उन्होंने फिर अपने हाथ को सर के नीचे रखा और सो गए, परंतु कुछ समय उपरांत वो स्वर फिर सुनाई दिया।

      अब अघोरनाथ जी को लगा, हो ना हो कोई ना कोई बात जरूर है , सावधान हो जाना चाहिए, ऐसा ना हो कि चित्रलेखा और शंखनाद का कोई षणयन्त्र हो, उसी समय उन्होंने सब को जगाया और उस स्वर को सुनने के लिए कहा।

     सबने अपना ध्यान लगाकर उस स्वर को सुनने का प्रयास किया, सभी को वो बीभत्स सा स्वर सुनाई दिया, सब बहुत भयभीत भी हो चुके थे।

       अघोरनाथ जी बोले, हम ऐसे हाथ पर हाथ धरे नहीं बैठ सकते, हो सकता वहां कोई विपत्ति में हो और हमें सहायता के लिए पुकार रहा हो परन्तु ये भी संदेह हो रहा है कि चित्रलेखा और शंखनाद का कोई षणयन्त्र ना हो, ये सब मेरी समझ से परे हैं।

        तभी सुवर्ण बोला__

 बाबा!! आप सब यहां ठहरे, पहले मैं जाता हूं, अगर मैं कुछ समय तक ना लौटा तो आप सब भी आ जाना क्योंकि मुझे थोड़ा बहुत तो जादू आता है।

     अघोरनाथ बोले, हां !! यही उचित रहेगा।

  परंतु हम सब भी तुमसे अत्यधिक दूरी पर नहीं रहेंगे, हम भी साथ साथ ही रहेंगे परन्तु कुछ ही दूरी पर।

      सबने कहा, हां यही उचित रहेगा।

और सब उस अंधेरी रात में उस ध्वनि की दिशा में चल पड़े।

      अत्यधिक निकट जाने पर सुवर्ण सावधान होकर उस स्थान पर पहुंच गया, उसने डरते हुए पूछा__

   कौन है?..कौन है?... यहां पर, किसका स्वर हैं जो इतना पीड़ादायक हैं।

      तभी उधर से स्वर आया___

ये बताओ कि तुम कौन हो, मैं सब समझती हूं शंखनाद!! ये पुनः तुम्हारा कोई ना कोई षणयन्त्र है, परन्तु अब मेरे पास कुछ भी नहीं रह गया है, सब तो पहले ही ले जा चुके हो।

        परन्तु मैं शंखनाद नहीं हूं, मैं नीलगिरी राज्य का छोटा राजकुमार सुवर्ण हूं, कृपया आप चिंतित ना हों, मुझे अपनी समस्या बताएं, संभव हो सका तो मैं आपकी सहायता अवश्य करूंगा, मुझ पर विश्वास रखें, सुवर्ण बोला।

      परन्तु, मैं कैसे तुम पर विश्वास करूं, हो सकता है तुम कोई मायावी हो, हो सकता है तुम्हें शंखनाद ने भेजा हो, उधर से स्वर आया।

          तब तक अघोरनाथ और सब भी वहां पहुंच चुके थे, तभी अघोरनाथ बोले___

  आप चिंतित ना हो, मैं अघोरनाथ हूं, आप अपनी समस्या मुझसे कहें ताकि मैं कोई समाधान कर सकूं।

    परन्तु मैं आप सब पर कैसे विश्वास करूं, उस स्वर ने कहा।

   हमने भी तो आपकी बातों पर विश्वास कर लिया ना, सुवर्ण ने कहा।

     अच्छा तो सुनिए मेरी कहानी___

  उस स्वर ने कहना प्रारम्भ किया___

     मैं इस वन की देवी हूं, मेरा नाम शाकंभरी है, मेरे पिताश्री इस वन के राजा थे, उनका नाम वेदांत था, वे इस वन की रक्षा किया करते, उनके पास बहुत सी शक्तियां थीं, उन्होंने बचपन से ही अपनी शक्तियां और ज्ञान मुझे देना शुरू कर दिया था।

      यौवनकाल तक मुझमें बहुत सी शक्तियां आ गई, मैं इतनी शक्तिशाली थीं कि अपनी शक्तियों से अपने पंख भी प्राप्त कर लिए, जिनकी सहायता से उड़कर मैं किसी की भी सहायता करने वन में कहीं भी शीघ्र पहुंच सकती थीं।

      फिर पिताश्री ने घोषणा की कि वो मुझे इस वन की देवी। बनाना चाहते हैं और उन्होंने अपनी सारी शक्तियां मेरे पंखों में दे दीं जिससे मैं और भी शक्तिशाली हो गई, तब पिताश्री ने मुझे इस वन की देवी घोषित कर दिया।

      इस बात की सूचना शंखनाद को हो गई और वो एक लकड़हारे का रूप धर इस वन में रहने लगा और मेरे सारे क्रियाकलापों पर ध्यान देने लगा, उसे पता चल गया कि मेरे पास बहुत ही शक्तिशाली मायावी पंख हैं जिनका उपयोग में किसी भी असहाय की सहायता करने में करतीं हूं।

       और इसी बात का उसने लाभ उठाया, उसने मेरे सामने अच्छा बनने का अभिनय किया और अपने मोहपाश में मुझे बांध लिया और मैं उसके प्रेम में पागल होकर अपने पिता के भी विरूद्ध हो गई, एक दिन शंखनाद ने मेरे पिता श्री को असहाय जानकर उनकी हत्या कर दी, उनका मृत शरीर मुझे वन में पड़ा हुआ मिला, तभी एक तोते ने मुझे सारी सच्चाई बताई जो कि मेरे पिताश्री का पालतू था, उस दिन मुझे शंखनाद की सच्चाई का पता लगा।‌

         और एक रात मैंने शंखनाद से इस विषय में पूछा, तब उसने रोते हुए अपनी भूलों की क्षमा मांग ली, मेरा हृदय भी पसीज गया और मैंने उसे प्रेम के वशीभूत होकर उसे क्षमा कर दिया।

        परन्तु, मैं उस रात उसका षणयन्त्र समझ ना सकीं, उसने उस रात चित्रलेखा को जादू करने को बुला लिया था, वो यहां आकर वन के जीवों और पेड़ पौधों को हानि पहुंचाने लगी, तब शंखनाद ने कहा__

    शाकंभरी!! अपने पंखों का उपयोग करों।

  मैंने अपने पंख प्रकट कर उन सब जीवों की रक्षा करने लगी, मैं तो चित्रलेखा का जादू तोड़ने में ध्यानमग्न थी तभी शंखनाद ने अपनी पेड़ काटने वाली कुल्हाड़ी से मेरे पंख काटकर अपने साथ ले गया, उन पंखों के साथ मेरी सारी शक्तियां भी चली गई और इस वन की सुंदरता भी चली गई, उस रात से मैं आज तक रात को अपने पीड़ा से कराह उठती हूं, रात को रहकर रहकर पीड़ा उठती है, मैं अपनी शक्तियों के बिना असहाय हूं, मुझे मेरे पंख चाहिए।

       मेरा जीवन, मेरी सारी शक्तियां उन्हीं पंखों में है, तबसे शंखनाद और चित्रलेखा ने इस वन को नर्क बना दिया है, इस वन की सुंदरता नष्ट हो गई है, मैं इस वन की देवी हूं और मैं किसी की भी सहायता नहीं कर सकती, मुझे ये बात बहुत ही पीड़ा देती है।

         हे, वनदेवी !! कृपया आप इतनी दुखी ना हो, हम सब अवश्य आपकी सहायता करेंगे, परन्तु आपको भी हमारी सहायता करनी होगी की हम किस प्रकार उन दोनों से जीत सकते हैं कुछ तो ऐसा होगा, जो उन्हें भी भयभीत करता होगा, अघोरनाथ जी बोले।

     हां.. हां..क्यो नही, मुझे जो भी जानकारी उन लोगों के विषय में है वो मैं आप लोगों को अवश्य बताऊंगी, शाकंभरी बोली।

      लेकिन आप इतने अंधेरे में क्यो है?इस बड़े से वृक्ष के तने के भीतर क्यो बैठी है, कृपया बाहर आएं, हम सब आपको कोई भी हानि नहीं पहुंचाएंगे, सुवर्ण बोला।

      और इतना सुनकर शाकंभरी वृक्ष के तने से बाहर आई।

         

       

 शाकंभरी पेड़ के मोटे तने से जैसे ही बाहर निकली, इतने घुप्प अंधेरे में जंगल में रोशनी ही रोशनी फैल गई, उस नजारे को देखकर ऐसा लग रहा था कि हजारों-करोड़ो जुगनू जगमगा रहे हो।

      रोशनी को देखकर सबकी आंखें चौंधिया रही थीं, शाकंभरी की रोशनी से सारा जंगल जगमगा रहा था, थोड़ी देर में शाकंभरी ने खुद को एक लबादे से ढक लिया, ताकि उसकी रोशनी छिप जाए, अब केवल उसका चेहरा ही दिख रहा था।

     फिर बोली, मेरे पंख शंखनाद ने चुरा लिए है इसलिए मैं आपकी मदद नहीं कर सकतीं, क्योंकि मेरी सारी शक्तियां उन्हीं पंखों में है और उन पंखों की मदद के बिना मैं उड़ नहीं सकती, किसी का जादू नहीं तोड़ सकती, मैं आपलोगों की सहायता तभी कर पाऊंगी जब मैं उन सब का जादू तोड़ सकूं और इसके लिए मुझे कुछ ऐसी वस्तु चाहिए जिसकी सहायता से मैं उड़ सकूं।

    हां, हमें क्या करना होगा, हम आपकी सहायता के लिए तैयार है, मानिक चंद बोला।

            इसके लिए आप सबको एक कार्य करना होगा यहां से दक्षिण दिशा की ओर मेरा बहुत पुराना मित्र बकबक बौना रहता है उसके पास एक उड़ने वाला घोड़ा है जिस की सहायता से मैं तुम लोगों की मदद कर सकतीं हूं।

     परन्तु बकबक बौने को ढूंढना बहुत ही मुश्किल है, चूंकि वो बहुत ही छोटा है, इसलिए ना जाने कहां बिल बनाकर रह रहा होगा और अपने घोड़े को एक ताबीज में बदल कर हमेशा अपने गले में पहने रहता है, बहुत समय से मैं उससे नहीं मिली, अगर उसे इन सबकी सूचना मिल गई होती तो वो अवश्य ही अभी तक मेरी सहायता के लिए आ पहुंचता।

       परन्तु, हम किस तरह पहचान करेंगे कि वो ही बकबक बौना है, हो सकता है कि वहां और भी बौने रहते हो, सुवर्ण ने शाकंभरी से कहा।

        हां, राजकुमार सुवर्ण आप ठीक कह रहे हैं वो बौनो की ही बस्ती है, वहां बौने ही बौने बड़े बड़े पेड़ों के तनों के अंदर अपनी अपनी बस्तियां बनाकर रहते हैं और जरूरतमंदों की सहायता भी करते हैं, शाकंभरी बोली।

       बकबक बौने का भी तो अपना परिवार होगा, जिनके साथ वो रहता होगा, मानिक चंद ने शाकंभरी से पूछा।

       हां, था उसका भी एक परिवार था लेकिन अब नहीं रहा, इसके पीछे भी एक लम्बी कहानी है, शाकंभरी ने दुखी होकर कहा।

        लेकिन ऐसा भी क्या हुआ था, बेचारे बकबक बौने के साथ कि उसे अपना परिवार खोना पड़ा, नीलाम्बरा ने शाकंभरी से पूछा।

       तब शाकंभरी ने बकबक बौने की कहानी सुनानी शुरू की।

     बहुत समय पहले उसी जंगल में बुझक्कड़ बौना अपने परिवार के साथ रहता था, वो उस समय वहां का राजा था, तभी एक दिन कुछ बौने बुझक्कड़ बौने के पास फरियाद लेकर आए कि काले पहाड़ पर सर्पीली रानी रहती है जिसका चेहरा औरत जैसा और शरीर सांप जैसा है, उसने ना जाने कितने सांप पाल रखे थे, जिस भी बौने को वो देख लेती उसे तुरन्त ही अपने पाले हुए सांपों से निगलने के लिए कहती हैं फिर राक्षसी हंसी हंसकर आनन्द उठाती।

      ये सुनकर बुझक्कड़ बौने ने कहा कि तुम लोग काले पहाड़ पर जाना क्यो नही छोड़ देते।

     तब दूसरे बौने बोले, हम सब वहां नहीं जाते लेकिन सर्पीली रानी ने अपने सांपों को हमारे रहने के स्थान पर छोड़ दिया और वो सांप हर दिन किसी ना किसी बौने को निगल जाते हैं, आप जाकर सर्पीली रानी से कहें कि वो अपने सांपों को बुला ले।

        ठीक है, मैं आज ही कुछ लोगों को लेकर सर्पीली रानी के पास जाता , बुझक्कड़ बौने ने कहा।

    ऐसा कहकर बुझक्कड़ बौना कुछ सैनिक बौने के साथ सर्पीली रानी के पास चल पड़ा।

    सर्पीली रानी के पास पहुंचते ही बुझक्कड़ बौने ने सर्पीली रानी से विनती की , कि कृपया आप अपने सांपों को बौनों के जंगल से बुला लीजिए, आपके सांपों ने जंगल में तबाही मचा रखी है, हर रोज कई बौनो को निगल जाते हैं।

      लेकिन, सर्पीली रानी , बुझक्कड़ बौने की बात सुनकर क्रोधित हो उठी और उसने कहा, यहां से चले जाओ नहीं तो मैं भी तुझे निगल जाऊंगी।

       लेकिन बुझक्कड़ बौना, सर्पीली रानी की बातों से डरा नहीं और अपने सैनिकों के साथ उस पर हमला कर दिया लेकिन सर्पीली रानी बहुत ताकतवर थी उसने बुझक्कड बौने को अपनी पूंछ से दूर उछाल दिया और बौने सैनिकों को निगल गई, फिर भी बुझक्कड़ बौने ने हार नहीं मानी फिर से तलवार लेकर सर्पीली की ऊपर हमला कर दिया लेकिन इस बार बुझक्कड़ बौना, सर्पीली रानी के वार से बच ना सका और अपनी जान से हाथ गंवा बैठा।

      बकबक बौने को इस बात का पता चला और वो सर्पीली रानी से बदला लेने चल पड़ा और अकेले ही रात के वक्त सर्पीली रानी से भिड़ गया, सर्पीली रानी की आंखों में बहुत सी धूल झोंक कर उसे घायल कर दिया लेकिन इस लड़ाई में बकबक बौने को अपनी एक आंख गंवानी पड़ी, इसकी वजह से बकबक बौने को अपना बदला अधूरा छोड़ कर ही लौटना पड़ा, उस दिन के बाद सारे बौने छुपकर रहने लगे और बकबक बौना अपनी सेना तैयार करने में जुटा है ताकि वो अपने पिता का बदला ले सकें, उस समय मैंने बकबक बौने से कहा था कि मैं तुम्हारी सहायता करूं लेकिन उसने ये कहकर मना कर दिया कि ये मेरी समस्या है और मैं ही समाधान करूंगा, शाकंभरी बोली।

       तब अघोरनाथ बोले, इसका मतलब हमें अब ज्यादा देर नहीं करनी चाहिए, बकबक बौने को ढूंढकर जल्द ही उड़ने वाले घोड़े को लाना होगा।

     सबने कहा सही बात है और शाकंभरी से विदा मांगकर वो सब दक्षिण दिशा की ओर बकबक करते को ढूंढने चल पड़े।

    दो रात और दो दिन के लम्बे समय के बाद वो सब उस जंगल में पहुंचे जहां बकबक बौना रहता था ।

                

   सभी लोग बकबक बौने को ढूंढते हुए बहुत बुरी तरह थक चुके थे, तभी राजकुमार सुवर्ण ने कहा___

     चलिए, पहले अच्छी सी जगह ढ़ूढ़ कर थोड़ी देर विश्राम करते हैं, इसके बाद बकबक बौने को ढूंढते हैं, सबने राजकुमार सुवर्ण की बात पर सहमति जताई और एक अच्छी सी झरने वाली जगह खोजकर कुछ खाने पीने का इंतजाम कर खा-पीकर विश्राम करने लगे, थोड़ी देर विश्राम करने के बाद सुवर्ण को महसूस हुआ कि उसके कंधे पर आकर कुछ चुभा हैं, जब तक वो कुछ समझता इसके बाद शरीर के और भी अंगों पर कुछ सुई के सामान आकार वाली चीजें आकर चुभने लगी।

     जैसे ही वो चीजें सुवर्ण को आकर चुभती , सुवर्ण दर्द से कराह उठता, उसने सबको आवाज देकर जगाया पर ये क्या? वो तो सभी को आकर चुभने लगीं, कोई कुछ समझ ही नहीं पा रहा था।

        तभी अघोरनाथ जी उस दिशा में गए, जिस दिशा से वो सुई के आकार वाली चीजें आ रहीं थीं, उन्होंने देखा कि एक बौना अपने धनुष से एक साथ पांच पांच तीर अधाधुंध छोड़े जा रहा है, अघोरनाथ जी चुपके-चुपके से उस बौने के पीछे गए और अपनी बांहों में उसे दबोच लिया।

      अब वो बौना छूटने के लिए कसमसाने लगा, चीखने लगा कि मुझे छोड़ दो.... मुझे छोड़ दो।

        तभी अघोरनाथ जी बोले__

पहले ये बताओ कि तुम कौन हो और हम सब पर तीर क्यो छोड़ रहे थे?

    क्यो बताऊं कि मैं कौन हूं, जाओ नहीं बताता कि मैं कौन हूं, जो करना है कर लो, उस बौने ने कहा।

     तब तक सब उस बौने के पास पहुंच गए, अघोरनाथ जी ने पुनः पूछा कि बताओ तुम कौन हो? लेकिन उस बौने ने मुंह नहीं खोला।

    तब सुवर्ण उस बौने को पेड़ की लताओं के सहारे बांधकर बोला जब तक तुम नहीं बताते कि तुम कौन हो, हम तुम्हें कहीं नहीं जाने देंगे।

   तभी नीलकमल बोली तो अब क्या करें? किस दिशा में जाए? विश्राम भी नहीं हुआ, वन की देवी शाकंभरी ने तो यहीं जगह बताई थी कि बकबक बौना यहीं मिलेगा, हमलोगों ने तो इस जगह के हर कोने में खोज लिया लेकिन बकबक बौना कहीं नहीं मिला।

        उस बौने ने ये सब सुना और बोला तुम लोग शाकंभरी को कैसे जानते हो?

   सुवर्ण बोला, तुमसे मतलब!!

  हां.. हां.. वो तो मेरी मित्र हैं, बौना बोला।

मतलब क्या है? तुम्हारा, सुवर्ण ने पूछा।

  मतलब वो मेरी मित्र हैं, मैं उसे जानता हूं, बौने ने कहा।

कहीं तुम ही तो बकबक बौने नहीं हो, सुवर्ण ने फिर पूछा।

   हां.. मैं ही बकबक बौना हूं, तुमलोग मुझे कैसे जानते हो? उस बौने ने पूछा।

   अरे, तुम ही बकबक हो, तुम्हारे बारे में हमें वनदेवी शाकंभरी ने बताया, अत्यंत दयनीय अवस्था से गुजर रहीं हैं वो, सुवर्ण बोला।

    ऐसा क्या हुआ? कृपया मुझे भी विस्तार से बताएं, उसने मुझसे सहायता क्यो नही मांगी, बकबक बौने ने कहा।

      बहुत ही दुखभरी कथा है बेचारी की, जिससे प्रेम करती थीं, उसने उसके साथ विश्वासघात किया, अपने पिता के भी विरूद्ध हो बैठी, उसके प्रेमी ने उसके पिता की हत्या कर उसके पंख धोखे से चुरा लिए, अब वो बहुत ही असहाय अवस्था में हैं, उसका सारा जादू उसके पंखों में तो था।

      उसी ने तो हमें तुम्हारे विषय में बताया कि तुम्हारे पास उड़ने वाला घोड़ा है, जिसकी सहायता से अपने प्रेमी को ढूंढकर अपने पंख वापस लेना चाहती है क्योंकि वो बहुत ही बड़ा जादूगर है और खुद की भलाई के लिए किसी की भी हत्या कर सकता है, उसके साथ अघोरनाथ जी की बेटी चित्रलेखा भी है जो उसकी सहायता करती है, सुवर्ण बोला।

     इतना सबकुछ हो गया और मुझे इस विषय में कुछ पता ही नहीं, बकबक बौने ने कहा।

    हां...वो ये मानिक चंद आए, इन्हें अघोरनाथ जी मिले, तब इन्होंने नीलकमल और मुझे हमारे असली रूप में परिवर्तित किया, सुवर्ण बोला।

     परंतु अब वो उड़ने वाला घोड़ा मेरे पास नहीं है, वो तो मुझसे कहीं खो चुका है, वो किसके पास है और कहां खोया है वो तो सांख्यिकी मां ही बता सकतीं हैं, बकबक बौने ने कहा।

        ये सांख्यिकी मां कौन है? अघोरनाथ जी ने पूछा।

वो बहुत ही बूढ़ी आदिवासी मां है, जो दूर ऊंचे पहाड़ों पर रहतीं हैं, उन्हें तीनों कालों के विषय में ज्ञान है वो भविष्यवाणी बताती है और खोई चींजों के बारे में भी पता लगा सकती है, मेरे पिता जी अक्सर उनके पास ही सलाह मशविरे के जाते थे, बहुत दिनों से सोच रहा था लेकिन उनके पास जा नहीं पा रहा हूं, सर्पीली रानी के सांप हर जगह मेरी ताक लगाए बैठे रहते हैं, बकबक बौना बोला।

      अगर ऐसी बात है तो हम सब मिलकर उन सांपों से मुकाबला करेंगे और सांख्यिकी मां तक पहुंच जाएंगे, मानिक चंद बोला।

      अगर आप लोग मेरी सहायता कर सकते तो बहुत ही अच्छा होगा, मुझे उस घोड़े का पता चल जाएगा और शाकंभरी भी उस घोड़े की सहायता से अपने पंख वापस ले सकती है, बकबक बौना बोला।

        तो फिर यही सही रहेगा, हम सब मिलकर ही उन सांपों से बकबक को बचाएंगे फिर सांख्यिकी मां के पास जाकर घोड़े के विषय में पूछकर शाकंभरी के पास चलते हैं, अघोरनाथ जी बोले।

   और फिर हम सबने ऊंचे पहाड़ों का रूख किया, सांख्यिकी मां के पास जाने के लिए, वो रास्ते कहीं कहीं थोड़ा विश्राम करते और फिर गंतव्य की ओर चल देते, इस तरह से करते उनको कई दिन बीत गए।

    बीच बीच में कभी कभी सर्पीली रानी के सांपों ने भी हमला किया लेकिन सुवर्ण ने उन्हें ठिकाने लगा दिया।

      और बहुत दिनों की मेहनत के बाद उन्हें अपना फल आखिर मिल ही गया, पहाड़ों पर ठंड बहुत ज्यादा थीं, शाम होने को थी दूर एक पहाड़ी पर छोटी सी झोपड़ी दिखाई दी, जिस के बाहर एक लाल झंडा लहरा रहा था, बकबक बौना उस झंडे को देखकर बोला देखो वो है सांख्यिकी मां की झोपड़ी।

     थोड़ी देर में सब सांख्यिकी मां की झोपड़ी के बाहर थे, बकबक बौने ने मां को आवाज लगाई__

    मां... सांख्यिकी मां.. कहां हो? देखो तुम्हारा बकबक आया है।

     और सब झोपड़ी के भीतर पहुंचे।

    बकबक!! बेटा तू! बहुत दिनों बाद मां को याद किया, सांख्यिकी मां बोली।

   हां! मां, पिता जी अब नहीं रहें, मैं बड़ी मुश्किल से छुपकर रह रहा हूं, सोचा थोड़ी सेना तैयार कर लूं, बौने बड़ी मुश्किल में है, सर्पीली रानी ने सब तहस नहस कर दिया , पिता जी की हत्या भी उसी ने की है, आपके पास सहायता के लिए आया हूं, बकबक बौना ने सांख्यिकी मां से कहा।

     हां.. हां बोल बेटा, अपनी समस्या बता, मैं क्या कर सकती हूं तेरे लिए, सांख्यिकी मां बोली।

    मां, मेरी एक मित्र हैं, उसके पिताजी मेरे पिताजी आपस में बहुत अच्छे मित्र थे, लेकिन उसके पिताजी की किसी जादूगर ने हत्या कर उसके शक्तियों वाले पंखों को चुरा लिया है, अब उसकी बहुत ही दयनीय अवस्था है, बकबक बौना बोला।

    हां.. बेटा! बोल आगे बोल, सांख्यिकी मां बोली।

  आपको पता है ना कि मेरे पास एक उड़ने वाला घोड़ा था, जो खुद से छोटा भी हो जाता है, उसे मैं हमेशा गले में पहनता था, वो पता नहीं मुझसे कहां गुम हो गया, अगर वो मिल जाए तो मेरी मित्र शाकंभरी की सहायता हो सकती है वो उस की सहायता से उस जादूगर को ढूंढ़ सकती है, उसके पंख मिलने पर वो हमारी सहायता भी कर सकती है, बकबक बौना बोला।

      अच्छा!तो ये बात है, सांख्यिकी मां बोली।

             

    सांख्यिकी मां, आप उस घोड़े का पता लगाएं ताकि मैं शाकंभरी की सहायता कर सकूं, बकबक बौने ने सांख्यिकी मां से कहा।

     चिंता मत करो बकबक अभी तो शाम होने को आई है, थोड़ी देर में अंधेरा भी गहराने लगेगा , आज रात तुम लोग मेरी झोपड़ी में आराम करो, कल सुबह-सुबह मैं ध्यान लगाऊंगी, तब पता करती हूं कि तुम्हारा उड़ने वाला घोड़ा कहां है, सांख्यिकी मां बोली।

     सब बोले, हां तो ठीक है, सुबह तक हम सब यही विश्राम करते हैं फिर देखेंगे कि क्या करना है।

     सांख्यिकी मां के यहां जो भी रूखा सूखा था, सभी ने खाया और विश्राम करने लगे।

      तभी एकाएक आधी रात को बहुत जोर की आवाज हुई और सभी जाग उठे, राजकुमार सुवर्ण ने झोपड़ी के बाहर आकर देखा___

    वहां का नजारा देखकर उसकी आंखें खुली की खुली रह गई, उसने फौरन बकबक बौने को आवाज लगाई, बकबक बौना भी जल्दी से बाहर आया।

      और सब भी जल्दी से भागकर बाहर आए, एकदम घुप्प अंधेरा, पहाड़ी पर ठंडी हवाएं चल रही थीं, चारों ओर पहाड़ियों पर सिर्फ सांप ही सांप दिखाई दे रहे थे और उन सब के पीछे अपने रथ पर सवार सर्पिली रानी थी जो कि बकबक बौने का पीछा करते हुए वहां तक आ पहुंची थीं, उन लोगों के पास मशालें थी, सर्पीली रानी को देखकर सब सन्न रह गए, ये सोचकर कि बिना किसी तैयारी के इन सबका मुकाबला कैसे करेंगे।

      सब कुछ भी सलाह मशविरा कर पाते इससे पहले ही सर्पीली रानी ने हमला कर दिया, इतने शक्तिशाली सांपों के सेना से सबने कभी भी मुकाबला नहीं किया था, सारे सांप उड़ उड़ कर सब पर हमला कर रहे थे, सब अपना बचाव कर रहे थे, सांपों कोई भी मार नहीं पा रहा था।

     सब परेशान और लहुलुहान हो चुके थे, तभी सर्पीली रानी ने एलान किया कि तुम सब बकबक बौने को मेरे हवाले कर दो, मैं तुम सब को कोई नुक्सान नहीं पहुंचाऊंगी, मेरी दुश्मनी तो सिर्फ़ बकबक बौने से हैं।

     तभी बकबक बौना बोला___

  सर्पीली रानी तुम्हारी दुश्मनी सिर्फ मुझसे है, तुम इन सब को छोड़ दो, लो मैं तुम्हारे पास आ रहा हूं।

     और बकबक बौना सर्पीली रानी की ओर बढ़ने लगा, सबने बहुत मना कि बकबक सर्पीली रानी के पास मत जाओ, हम कुछ ना कुछ करते हैं लेकिन बकबक नहीं माना और धीरे-धीरे सर्पीली रानी की ओर बढ़ने लगा।

    फिर से सुवर्ण ने आवाज दी कि___

 बकबक मत जाओ, मैं हूं ना!! मैं तुम्हारी मदद करूंगा लेकिन तभी सांख्यिकी मां ने बाहर आकर कहा, उसे जाने दो।‌।

    लेकिन क्यो, नीलकमल ने पूछा।

देखो, पहले तुम सर्पीली रानी के गले की ओर ध्यान दो उसके गले में उड़ने वाले घोड़े का ताबीज हैं, इसका मतलब वो उड़ने वाला घोड़ा सर्पीली रानी को मिल गया था, बकबक ने उसे शायद देख लिया है इसलिए वो उसकी ओर बढ़ रहा है।

     सबने ध्यान से देखा, सच में उड़ने वाले घोड़े का ताबीज सर्पीली रानी के गले में था।

    अब सब भी बकबक बौने की मदद करने के लिए उसके पीछे-पीछे चलने लगे, सुवर्ण अपनी तलवार से सांपों के टुकड़े करते हुए आगे आगे बढ़ने लगा, सब बकबक बौने को सर्पीली रानी तक पहुंचने में सहायता करने लगे, और बकबक बौना अपने मकसद में कामयाब हो गया लेकिन सर्पीली रानी बकबक बौने को अपने फांस में ले लिया, बकबक बौना बहुत छुड़ाने की कोशिश की लेकिन छूट नहीं पाया।

      तभी सुवर्ण अपनी तलवार के वार से सर्पीली रानी के गले ताबीज का धांगा तोड़ दिया जिससे ताबीज नीचे गिर गया और सांख्यिकी मां जोर से चिल्लाते हुए कहती हैं कि सुवर्ण ताबीज को उठाओ लेकिन सर्पीली रानी ने अपने मुंह से आग की लपटें निकालना शुरू कर दिया और सुवर्ण पर उन लपटों से वार करने लगी, सुवर्ण झुलस कर जमीन पर गिर पड़ा।

      तभी सांख्यिकी मां अपने बाल खोल कर पहाड़ी पर ध्यान लगाकर बैठ गई और कुछ मंत्रों का जाप करना शुरू कर दिया, धीरे-धीरे सारे सांप पत्थरों में परिवर्तित होने लगे, कुछ देर के बाद सर्पीली रानी के आलावा सभी सांप पत्थरों में बदल गए तब सांख्यिकी मां अपने ध्यान से उठी और कहा कि इन सांपों को उठाकर पटकना शुरू कर दो और इतनी जोर से पटको ताकि ये टूट जाए, तभी इन सब की मृत्यु होगी।

     और ये सब सुनकर सर्पीली रानी गुस्से से बौखला गई लेकिन अब अघोरनाथ जी आगे आ गए, उन्होंने अपनी कमर में बंधी पोटली में से कुछ विभूति निकाली और सर्पीली रानी पर झिड़क दी जिससे सर्पीली रानी को दिखना बंद हो गया।

    और सुवर्ण ने फुर्ती के साथ उस ताबीज को उठा लिया और अपनी धारदार तलवार से सर्पीली रानी पर बिना रूके वार पर वार किए, सर्पीली रानी अपनी आंखें ही नहीं खोल पा रही थी जिससे उसके मुंह से निकलती आग का लपटों के वार निशाने पर नहीं पड़ रहा था, अब तो वो बुरी तरह बौखला गई।

       तभी सांख्यिकी मां बोली __

  सुवर्ण घोड़े से कहो कि बड़े हो जाओ, वो जिसके हाथ में होता है, उसका ही आदेश मानता है और सुवर्ण ने सांख्यिकी मां की बात सुनकर घोड़े से कहा कि बड़े हो जाओ और घोड़ा अपने बड़े रूप में आ गया, सुवर्ण उस पर सवार होकर उड़ने लगा और अपनी धारदार तलवार से उसने सर्पीली रानी की गर्दन पर वार किया जिससे सर्पीली रानी की गर्दन कटकर एक ओर लुढ़क गई।

      और बकबक बौना, सर्पीली रानी के फांस से छूट गया, सर्पीली रानी का धड़ और गर्दन बहुत देर तक तड़पते रहे, उसके बाद शांत हो गए।

    तब सांख्यिकी मां बोली, बकबक लो तुम्हारा प्रतिशोध पूरा हो गया अब सर्पीली रानी का अंतिम संस्कार करके जल्द ही शाकंभरी की सहायता के लिए निकलो, लेकिन अंतिम संस्कार तो प्रात: ही होगा, आज रात भर और प्रतिक्षा करनी होगी।

       और दूसरे दिन सुबह सर्पीली रानी का अंतिम संस्कार करके सब ने सांख्यिकी मां से जाने के लिए इजाजत मांगी, सांख्यिकी मां ने कहा, जाओ बच्चों अच्छे कार्य करने के लिए सदैव तुम लोगों की जीत हो।

    सब बहुत खुश थे क्योंकि अब उनको उड़ने वाला घोड़ा मिल चुका था, अब वो शाकंभरी की सहायता करके अपना वचन पूरा कर सकते थे।

      ऐसे ही चलते चलते उन्होंने पहाड़ों वाला रास्ता पार कर लिया, अब मैदान वाले रास्ते से गुजर रहे थे, तभी उन्हें किसी के कराहने की आवाज़ आई।

    अघोरनाथ जी बोले लगता है कोई कराह रहा है!!

  मानिक चंद बोला!! हां, मुझे भी कराहने की आवाज़ आई और एक एक करके सबने कहा कि हमें भी किसी के कराहने की आवाज़ आ रही है।

     और सब उस दिशा में चल पड़े, थोड़ी दूर जाकर देखा कि एक आदमी ज़मीन पर पड़ा दर्द से कराह रहा है।

     मानिक चंद ने कहा कि ऐसा तो नहीं कि ये कोई छलावा हो।

   सुवर्ण बोला, मैं पास जाकर देखता हूं।

  कौन हो भाई तुम, सुवर्ण ने उस व्यक्ति से पूछा।

 मैं बांधवगढ़ का राजा विक्रम सिंह हूं, मेरी बहन को एक राक्षस चुराकर ले गया है उसकी सहायता के लिए मैं यहां तक आया लेकिन उस राक्षस ने मुझे घायल कर दिया, उस व्यक्ति ने कहा।

     लेकिन वो राक्षस कहां रहता है, सुवर्ण ने पूछा।

वो राक्षस इसी मैदान के अंत में एक तहखाने में रहता है, क्या तुम मेरी सहायता करोगे मेरी बहन को बचाने के लिए, राजा विक्रम ने सुवर्ण से कहा।

     ठीक है, पहले मैं अपने और साथियों से इस विषय में वार्तालाप कर लूं, सुवर्ण ने कहा।

       

सुवर्ण ने सभी लोगों से सलाह ली और सभी लोंग राजा विक्रम की सहायता करने के लिए तैयार हो गए, सुवर्ण ने विक्रम को उठाकर उसे पानी पिलाया और अघोरनाथ जी ने कुछ जंगली जड़ी बूटियां खोजकर विक्रम के घावों पर लगा दीं, जिससे विक्रम अब पहले से खुद को बेहतर महसूस कर रहा था।

     अब सब निकल पड़े उस मैदान की ओर जहां वो राक्षस तहखाने में रहता था, सभी उस मैदान को पार करते जा रहे थे, चलते चलते रात हो गई , रास्तें में एक बहुत बड़ा तालाब मिला, उस तालाब के किनारे एक पीपल का बहुत बड़ा पेड़ था, सबने उसी जगह पर विश्राम करने का इरादा किया और सब पेड़ के नीचे सो गए, तभी अचानक रात को बकबक के ऊपर कुछ लिसलिसा सा गरम गरम सा पदार्थ गिरा, वो चटपटा कर उठ बैठा और उसने ऊपर की ओर देखा तो दो चुड़ैलें, पेड़ से उलटी लटकी हुई थीं और उनके मुंह से लार टपक रही थी, उनके सिर के बाल इतने बड़े थे कि उनका चेहरा दिखाई नहीं दे रहा था, उन भयानक चुड़ैलों को देखकर बकबक की चीख निकल गई, बकबक की चींख सुनकर सब जाग गए, तभी वो चुड़ैलें हवा में गोल गोल घूमती हुई, धम्म की आवाज के साथ नीचे आकर उन सब के सामने खड़ीं हो गई, सब बुरी तरह डर गए।

     लेकिन तभी उस समय सुवर्ण ने अपना दिमाग चलाया, जो जादू उसे आता था उसका इस्तेमाल किया

उसने दोनों चुड़ैलों को जादुई शक्ति से जमीन पर गिरा दिया और फुर्ती के साथ बारी बारी से मुट्ठी में बालों को भरा और काट दिया, दोनों के बाल कट जाने पर वो खूबसूरत पंखों वाली परियों में परिवर्तित हो गई, दोनों से एक सफेंद रोशनी आ रही थीं जिससे आसपास का वातावरण जगमग हो रहा था।

      सुवर्ण ने उन दोनों से पूछा__

कौन हो तुम दोनों?

  उनमें से एक ने जवाब दिया__

   हम दोनों बहनें हैं, इसका नाम स्वरांजलि और मेरा नाम गीतांजली हैं, हमारा भी एक खुशहाल परिवार था, हमारे परिवार मे हम दोनों जुड़वां बहने , एक भाई भी हैं, मां पिताजी नहीं रहें, हमें जादूगर शंखनाद ने अपने जादू से चुड़ैल बना दिया था, उसनें कहा था कि अगर कोई तुम्हारे बाल काट देगा तो तुम दोनों अपने असली रूप में आ जाओगी लेकिन मेरी वजह से इधर कोई भी नहीं आ सकता इसलिए तुम लोग सदा के लिए ही चुड़ैले बनी रहोगी और इतना कहकर वो चला गया।

       और तुम्हारा भाई कहां हैं? अघोरनाथ जी ने पूछा।

  उसे शंखनाद ने एक राक्षस बना दिया हैं, उससे जो वो भी कहता है हमारा भाई वही करता है, उसनें उसे गुलाम बनाकर तहखाने मे रखा है, जब भी वो उसे आदेश देता है तो हमारा भाई सुंदर लडकियों को अगवा कर लेता हैं, उनमें से एक ने उत्तर दिया।

     और उन लडकियों को क्यों अगवा किया जाता हैं, कुछ बता सकती हो, क्योंकि मेरी बहन को उसने अगवा किया हैं, राजा विक्रम बोले।

       हां, यकीन के साथ तो नहीं कह सकती लेकिन वो उन लडकियों को मारकर उनकी त्वचा से एक तरह का पदार्थ बनाता हैं जिसे वो अपनी त्वचा पर लगाता हैं तभी इतनी उम्र हो जाने के बाद भी वो बूढ़ा दिखाई नहीं देता, गीतांजलि बोली।

      लेकिन हम उस राक्षस का सामना कैसे करेगें, कुछ ना कुछ उपाय तो होगा आपलोगों के पास, सुवर्ण ने पूछा।

       अभी तो रात हैं, सुबह इस समस्या का समाधान करते हैं, सुबह मैं आप लोगों को कुछ चीज दूंगी जिससे हमारा भाई अपने पहले वाले रूप मे वापस आ जाएगा, स्वरांजलि बोली।

      और फिर सब विश्राम करने लगे लेकिन फिर सारी रात अघोरनाथ जी सो नहीं पाए, उन्हें स्वरांजली और गीतांजली पर भरोसा नहीं था, उन्हेँ ये डर था कि ऐसा ना हो रात को फिर दोनों चुड़ैले बनकर सबको हानि पहुचाएं।

      और उनकी इस शंका को बकबक भलीभांति समझ गया था, तीसरा पहर लगने को था तभी बकबक अघोरनाथ जी से बोला___

      बाबा! अब आप थोड़ी देर के लिए विश्राम कर लीजिए, मुझे पता है आप रात भर सोए नही है।

 कैसे सो जाऊ?बकबक बेटा!! जब अपनी ही बेटी गलत राह पर चलकर, दूसरों के खून की प्यासी हो जाए तो इस अभागे बाप को नींद कैसे आ सकती हैं, अघोरनाथ जी बकबक से बोले।

        कोई बात नहीं बाबा!!अब शायद यही नियति थी, पहले आप सारी चिंताएं छोड़कर आराम करने की कोशिश कीजिए, फिर सोचते हैं कि क्या करना है, बकबक ने अघोरनाथ जी से कहा।

     और अघोरनाथ जी ने अपनी बांह की तकिया बनाई और सो गए।

         सुबह हो चुकी थी, सूरज की लाली ने आसमान को घेर लिया था, पीपल के पेड़ पर चिड़ियाँ चहचहा रहीं थीं, सबने देखा की तालाब मे बहुत से कमल के फूल खिले हुए हैं, बकबक और नीलकमल छोटे बच्चों की तरह कमल तोड़ने चल पडे़ लेकिन स्वरांजलि मना करते हुए बोली___

     ये एक जादुई तालाब हैं और ये सारें कमल भी जादुई हैं, जो भी इन कमल को हाथ लगाता हैं पत्थर का बन जाता हैं, तभी स्वरांजलि ने ताली बजाई और एक हंस वहां प्रकट हुआ___

      स्वरांजलि बोली, मुझे एक कमल चाहिए, एक कमल तोड़कर दो ताकि उसे स्पर्श करके हमारा भाई पुन: अपने रूप मे वापस आ सकें।

     और हंस ने अपनी चोंच के द्वारा एक कमल तोड़कर स्वरांजली को दिया और गायब हो गया, स्वरांजलि वो फूल अघोरनाथ जी को देते हुए बोली, आप इन सबमें सबसे बुजुर्ग हैं और मुझे आशा हैं कि आप अपने कर्तव्य का निर्वहन भलीभाँति करेगें, आप हमारे पिता के समान हैं।

   अघोरनाथ जी ने प्यार से स्वरांजलि के सिर पर हाथ रखते हुए कहा जीती रहो बेटी, काश मेरी बेटी भी तुम दोनों की तरह अच्छी होतीं।

   तब गीतांजलि ने पूछा, ऐसा क्यों कह रहें हैं आप?

     तब नीलकमल ने स्वरांजलि और गीतांजलि को सारी कहानी कह सुनाई।

स्वरांजलि और गीतांजलि अपने परीलोक वापस चली गई और अब सब अपने गंतव्य की ओर निकल पडे़, शाम होते होते सब उस तहखाने तक पहुंच गए जहाँ वो राक्षस रहता था।

        तब बकबक बोला, पहले मैं जाता हूं और अगर सब ठीक रहा तो मैं चिड़िया की आवाज निकालूँगा तब आप सब अंदर आ जाना।

    सब बकबक की बात पर रजामंद हो गए, बकबक तहखाने के अंदर पहुंचकर दो चार कदम चला, फिर उसनें सोचा अब साथियों को बुला लेना चाहिए और उसनें चिड़िया की आवाज़ निकालनी शुरु कर दी।

       चिड़िया की आवाज़ सुनकर, सबने अंदर जाने का सोचा और सब तहखाने के भीतर घुस पडे़, अंदर सिर्फ अंधेरा ही अंधेरा था।

     सब अंदर की ओर धीरे धीरे बढ़ रहे थे, आगे बकबक भी उन्हें मिल गया और सब साथ मे चल पडे़, जैसे जैसे आगे बढ़ते जा रहे थे, वैसे वैसे अंधेरा और भी बढ़ता जा रहा था, तभी उन सब को किसी के लड़की के कराहने की आवाज़ आई, सब उस ओर गए तब बकबक बौने ने सबसे कहा___

     ठहरों, मेरे पास एक नागमणी हैं, जो कभी मेरे पिताजी ने मुझे दी थी, उन्होंने कहा था कि जब तुम किसी की सहायता करना चाहोगे तब इसका इस्तेमाल करना और बकबक ने एक छोटी सी पोटली निकाली, उसके धांगों को जैसे ही सरकाया, पोटली खुली उसमें से एक सफेद रोशनी निकलती हुई दिखी, बकबक ने उसे अपनी हथेली पर रखा तो चारों ओर रोशनी ही रोशनी फैल गई, अब अंधेरा नहीं था और सबको साफ साफ दिखाई दे रहा था, वो सब उस कराहने वाली लड़की के पास पहुंचे, देखा तो वो एक सलाखों वाले कमरें मे बंद थीं__

       बकबक ने उससे पूछा___

कौन हो तुम?

      मैं पुलस्थ राज की रानी सांरन्धा हूं, इस राक्षस ने मुझे कै़द करके रखा हैं और भी लडकियों को कैद़ किया हैं, अभी शायद किसी राजकुमारी को अगवा किया हैं, उसके चीखने की आवाज़ आ रही थी।

    हां...हांं शायद वो मेरी बहन संयोगिता हैं, राजा विक्रम बोले।

तभी, राजकुमार सुवर्ण ने पूछा, वो राक्षस कहाँ हैं?

     वो अभी तहखाने से बाहर गया हैं, रानी सारन्धा बोली।

  तब तो ये बहुत अच्छा मौका है, सारी लड़कियों को छुड़ाने का, मानिक चंद बोला।

    हां, एकदम सही कहा, बकबक भी बोला।

और सब एक एक करके सारी लड़कियों की सलाखें और बेड़ियां तोड़कर उन्हें बाहर निकालने लगे, तभी विक्रम को अपनी बहन संयोगिता भी मिल गई___

भइया!!आप आ गए, मुझे पता था कि आप जरूर आएंगे, संयोगिता अपने भाई विक्रम के गले लगते हुए बोली।

सारी लड़कियों को निकालने के बाद सब तहखाने से बाहर आने लगे, सबसे आगे राजा विक्रम और बकबक थे , बीच मे सारी लडकियाँ और सबसे पीछे राजकुमार सुवर्ण और मानिक थे, जैसे ही सब तहखाने से बाहर निकले, बकबक ने नागमणी पोटली मे रखी और अपनी कमर मे खोंस ली।

      सब थोड़ी दूर चले ही थे कि वहां राक्षस आ पहुंचा, उसने सब पर हमला करना शुरु कर दिया, तभी राजा विक्रम अपनी तलवार लेकर आगे बढ़े लेकिन राक्षस ने उन्हें भी हवा मे उछाल दिया, अब सुवर्ण भी अपनी तलवार लेकर आगे आया लेकिन राक्षस का वार वो भी नहीं सह पाया, तभी बकबक बोला, सुवर्ण उड़ने वाले घोड़े का इस्तेमाल करो, लेकिन जैसे ही सुवर्ण ने वो घोड़े वाला ताबीज हाथों मे लिया, राक्षस ने सुवर्ण पर जोर का वार किया और वो ताबीज सुवर्ण के हाथों से दूर जा गिरा।

       अब बात बेकाबू देखकर अघोरनाथ जी आगे आए, उन्होंने अपनी पोटली मे से जादुई कमल निकाला और कुछ मंत्र पढ़े और हवा में उड़ते हुए, राक्षस के सिर पर वो जादुई कमल गिरा दिया, जिससे वो राक्षस एक मानव में परिवर्तित हो गया।

     सभी को ये देखकर बहुत आश्चर्य हुआ और उस राक्षस से परिवर्तित मानव ने सबसे क्षमा मांगी और बोला__

       मै परी देश का राजकुमार सुदर्शनशील हूं, माफ करना, मेरी वजह से आपलोगों को बहुत परेशानी हुई, मैं परीलोक वापस जाना चाहता हूँ, अब लोग मेरी थोड़ी सहायता करें तो आपलोगों की बहुत कृपा होगी।

        बकबक ने कहा, मैं तुम्हें अपने घोड़े पर तुमको छोड़कर आता हूं।

और बारी बारी से बकबक ने सभी लड़कियों और सुदर्शनशील को उनके निवास स्थान पर पहुंचा दिया, रानी सारन्धा बोली लेकिन मैं तो आप लोगों की सहायता के लिए आप लोगों के साथ चलूँगी, आप लोगों ने भी तो मेरी सहायता की हैं, रानी सारन्धा की बात सुनकर राजा विक्रम भी बोले, कृपया आपलोग मेरी बहन संयोगिता को मेरे राज्य छोड़ आए और बकबक ने विक्रम की बात मानकर संयोगिता को उसके राज्य छोड़ दिया और संयोगिता को बकबक छोड़कर वापस आ गया फिर सभी शाकंभरी की सहायता करने निकल पडे़।

  सब आगे बढ़ चले उस जंगल की ओर शाकंभरी की सहायता करने, आगे बढ़ने पर रानी सारन्धा किसी पत्थर की ठोकर से गिर पडी़, उनके पैर में चोट लग गई थीं और वो अब चलने में असमर्थ थीं, रानी सारन्धा की स्थिति देखकर अघोरनाथ बोले___

       जब तक रानी सारन्धा की स्थिति में सुधार नहीं होता , तब तक हम इसी स्थान पर विश्राम करेगें, वैसे तो हम उड़ने वाले घोड़े के द्वारा रानी सारन्धा को उस वन मे भेज सकते हैं परन्तु उड़ने वाले घोड़े का ऐसा उपयोग उचित नहीं हैं क्योंकि सारन्धा जंगल में पहले पहुंच गई तो उसकी सुरक्षा का प्रश्न हैं और अगर हम एक एक करके गए भी तो कुछ इधर कुछ उधर, हमें बंटा हुआ देखकर शंखनाद इसका पूर्णतः उपयोग कर हमें हानि पहुंचा सकता हैं, इसलिए यही उचित होगा कि हम सब एकसाथ रहें।

        और अघोरनाथ जी का निर्णय सभी को उचित लगा, सब उस जगह ठहरकर रानी सारन्धा के स्वस्थ होने की प्रतीक्षा करने लगें, वहां एक बरगद के बडे़ से वृक्ष के तले सबने शरण ली, इस घटना में सबसे अच्छा ये रहा कि राजा विक्रम, रानी सारन्धा की देखभाल करने लगें, परन्तु इस बात से रानी सारन्धा को बहुत संकोच हो रहा था, वो ये नहीं चाहतीं थीं राजा विक्रम उनकी इतनी चिंता करें।

       रात्रि का समय सब सो चुके थे और राजा विक्रम पहरा दे रहे थे, गगन में तारें टिमटिमा रहें थें और चन्द्र का श्वेत प्रकाश संसार के कोने-कोने से अंधकार मिटाने का प्रयास कर रहा था, सारी धरती पर चन्द्र की रोशनी चांदी सी प्रतीत हो रही थीं, बस बीच बीच में किसी पक्षी या किसी झींगुर का स्वर सुनाई दे जाता, रानी सारन्धा भी अपनी बांह का तकिया बना कर वृक्ष के तले लेटी थीं, उनके मुख पर चन्द्र का प्रकाश पड़ने से उनके मुख की आभा बढ़ गई थी, ऐसी सुंदरता को देखकर कोई भी मोहित हो जाए, लेकिन मुझे देखकर रानी सारन्धा के मुख पर कोई भाव क्यो नही आते, उन्होंने आज तक कोई भी प्रतिक्रिया नहीं दी, कदाचित् ऐसा तो नहीं वो किसी और से प्रेम करतीं हो, आखिर क्या कारण हो सकता है उनकी शुष्कता का, ये ही सब सोचते-सोचते विक्रम को नींद आने लगी तब उसने सुवर्ण को जगा दिया, वैसे भी तीसरा पहर खत्म होने को था और सुवर्ण के पहरा देने का समय था।

        सुबह हुई, सब जागें, तभी अघोरनाथ जी रानी सारन्धा की स्थिति पूछने आए___

    अब कैसा अनुभव हो रहा है, सारन्धा बेटी, अघोरनाथ जी ने सारन्धा से पूछा।

    अब पहले से अधिक अच्छा अनुभव कर रही हूं बाबा!, आज तो चल भी सकतीं हूं, संभवतः आज हम आगे बढ़ सकते हैं, रानी सारन्धा बोली।

      बहुत ही अच्छा हुआ, बेटी! मैं सबसे कहता हूँ कि आगें चलने की तैयारी करें और अघोरनाथ जी इतना कहकर चले गए।

      सब तैयारी कर आगें बढ़ चलें, रास्ते में सारन्धा ने अपने पैर में दोबारा पीड़ा का अनुभव किया और वो एक पत्थर पर बैठकर बोली, मैं अब असमर्थ हूँ आगें नहीं बढ़ सकतीं।

     तभी, राजा विक्रम, सारन्धा के निकट आकर बोले, आपको कोई आपत्ति ना हो तो मैं कुछ आपकी सहायता कर सकता हूँ।

       मुझे आपकी सहायता की आवश्यकता नहीं हैं, क्यों आप मुझे प्रतिपल सताने आ जाते हैं, आपने जो पहले भी मेरी सहायता की हैं उसके लिए मैं सदा आपकी आभारी रहूंगी, परन्तु इस पल मुझे क्षमा करें, मैं वैसे भी बहुत ही कष्टनीय स्थिति में हूँ, मैंने अभी अपने परिवार को गँवाया हैं, जो मेरे लिए असहनीय हैं, आप मेरी अन्तर्वेदना को समझने का प्रयास करें, मुझे सब ज्ञात हैं कि इस समय आपके मन के भाव क्या हैं मेरे लिए, जैसे आप मुझसे प्रेम करने लगें उसी प्रकार मैं भी किसी से प्रेम करती थीं, रानी सारन्धा क्रोध से बोली।

         रानी सारन्धा! कृपया आप क्रोधित ना हो, आप मेरी बातों का आशय उचित नहीं समझ रहीं, राजा विक्रम बोले।

     मैं बिल्कुल उचित समझ रही हूँ, चलिए आज मैं आपको अपने विषय मे सब बता ही देतीं, सब जानकर ही आप मेरे विषय में उचित निर्णय ले कि मैं आपके प्रेम के योग्य हूँ कि नहीं और रानी सारन्धा ने अपने अतीत के विषय मे बोलना शुरू किया।

           पहाड़ो के पार, घने वन जहाँ पंक्षियों के कलरव से वहाँ का वातावरण सदैव गूँजता रहता, घनें वनों के बीच एक नदी बहती थीं, जिसका नाम सारन्धा था, उसके समीप एक राज्य बसता था जिसका नाम रूद्रनगर था, जहाँ के हरे भर खेत इस बात को प्रमाणित करते थे कि इस राज्य के वासी अत्यंत खुशहाल स्थिति में हैं, किसी को भी किसी प्रकार का कष्ट नहीं हैं, सबके घर धन धान्य से भरे हुए हैं और वहाँ के राजा अत्यंत दयालु प्रवृत्ति के थे, उनका नाम दर्शशील था, वे अपने राज्य के लोगों को कभी भी कोई कष्ट ना होने देते, उनकी रानी का नाम शैलजा था, परन्तु बहुत साल व्यतीत हुए राजा के कोई सन्तान ना हो हुई, इस दुख से दुखी होकर रानी शैलजा ने राजा से कहा कि वे अपना दूसरा विवाह कर लें किन्तु राजा दर्शशील दूसरे विवाह के लिए कदाचित् सहमत ना थे उन्होंने इस विषय पर अपने गुरुदेव से मिलने का विचार बनाया और वो अपने गुरू शाक्य ऋषि से मिलने रानी शैलजा के साथ शाक्य वन जा पहुंचे।

      उन दोनों से मिलने के पश्चात गुरदेव बोले___

 इतने ब्याकुल ना हो राजन!तनिक धैर्य रखें, कुछ समय पश्चात आपको अवश्य संतान की प्राप्ति होगी और सारे जगत मे आपका मान-अभिमान बढ़ाएगी।

     इस बात से राजा दर्शशील बहुत प्रसन्न हुए और शाक्य वन में एक दो दिन ठहर कर अपने गुरदेव से आज्ञा लेकर लौट ही रहे थे कि मार्ग में बालकों के रोने का स्वर सुनाई दिया जिससे उनका मन द्रवित हो गया और रानी शैलजा भी ब्याकुल हो उठीं।

       राजा दर्शशील ने सारथी से अपना रथ रोकने को कहा और अपने रथ से उतरकर उन्होंने देखा कि कहीं दूर से झाड़ियों से वो स्वर आ रहा हैं, वो दोनों उस झाड़ी के समीप पहुंचे, देखा तो वस्त्र की तहों में एक डलिया में दो जुड़वां बालक रखें हैं, शैलजा से उन बालकों का रोना देखा ना गया और शीघ्रता से उन्होंने दोनो बालकों को अपनी गोद मे उठा लिया।

        उन्होंने आसपास बहुत ढ़ूढ़ा, परन्तु कोई भी दिखाई ना दिया, तब दोनों ये निर्णय लिया कि दोनों बालकों को वो अपने राज्य ले जाएंगे, उनमें से एक बालक था और एक बालिका, दोनों पति पत्नी की जो इच्छा थी वो अब पूर्ण हो चुकी थीं, दोनों खुशी खुशी अब उनका लालनपालन करने लगें, उन्होंने बालिका नाम उस राज्य की नदी के नाम पर सारन्धा रखा जोकि मैं हूं और बालक का नाम चन्द्रभान रखा, धीरे धीरे दोनों बड़े होने लगें और कुछ सालों बाद दोनों अपने यौवनकाल में पहुंच गए, इसी प्रकार सबका जीवन ब्यतीत हो रहा था।

        इसी बीच एक दिन सारन्धा नौका विहार करने नदी पर गई, वहां उसने अपनी सखियों और दासियों से हठ की कि वो नाव खेकर अकेले ही नौका विहार करना चाहती हैं, सखियों ने बहुत समझाया, पर उसनें किसी की एक ना सुनी और अकेले ही नाव पर जा बैठी, नाव खेने लगी, कुछ समय उपरांत नदी में एक भँवर पड़ी जिसे दूर से ही देखकर, सारन्धा बचाओ...बचाओ... चिल्लाने लगी क्योंकि उसे नाव की दिशा बदलना नहीं आता था, उसका स्वर वहां उपस्थित एक नवयुवक ने सुना और वो नदी मे कूद पड़ा और तीव्र गति से तैरता हुआ सारन्धा की नाव तक पहुंच कर शीघ्रता से नाव पर चढ़ा और नाव को दूसरी दिशा में मोड़ दिया।

       सारन्धा ने नीचे की ओर मुख करके लजाते हुए उस नवयुवक को धन्यवाद दिया, उसने सारन्धा से उसका परिचय पूछा___

    मैं रूद्रनगर के राजा दर्शशील की पुत्री हूँ, यहाँ नौका विहार के लिए अकेले ही निकल पड़ी, मार्ग में भँवर देखकर सहायता हेतु चिल्लाने लगी, सारन्धा ने उत्तर दिया।

    और महाशय आपका परिचय, सारन्धा ने उस नवयुवक से उसका परिचय पूछा।

 जी, मैं अमरेंद्र नगर का राजकुमार सूर्यदर्शन, यहाँ तक आखेट के लिए आ पहुंचा, आपका स्वर सुनकर विचलित होकर देखा तो आप बचाओ...बचाओ चिल्ला रहीं थीं तो शीघ्रता से नदी में कूद पड़ा, सूर्यदर्शन ने सारन्धा के प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा।

       आपने आज मेरे प्राणों की रक्षा की हैं इसके लिए आपका बहुत बहुत धन्यवाद, सारन्धा बोली।

धन्यवाद किस बात का प्रिये!ये तो मेरा धर्म था, सूर्यदर्शन बोला।

     वो सब तो ठीक हैं, महाशय! परन्तु मैं आपकी प्रिये नहीं हूं, सारन्धा बोली।

नहीं हैं तो हो जाएगीं, आप जैसी सुन्दर राजकुमारी को कौन अपनी प्रिये नही बनाना चाहेगा, सूर्यदर्शन बोला।

    आप भी राजकुमार! कैसा परिहास कर रहें हैं मुझसे, सारन्धा बोली।

ये परिहास नहीं है राजकुमारी, ये सत्य हैं, लगता हैं आपकी सुन्दरता पर मैं अपना हृदय हार बैठा हूँ, परन्तु आप मेरी बात पर विश्वास नहीं करेंगीं, सूर्य दर्शन ने सारन्धा से कहा।

     अब रहने भी दीजिए राजकुमार, अत्यधिक बातें बना लीं आपने, कृपया कर अब मुझे मेरे राज्य तक पहुंचा आइए, सारन्धा ने राजकुमार से कहा।

        और नदी किनारे आते ही राजकुमार ने राजकुमारी को अपने अपने घोड़े द्वारा उनके राज्य तक पहुंचा दिया, रात्रि के समय सारन्धा की आँखों से निद्रा कोसों दूर थीं, वो केवल सूर्यदर्शन के विषय मे ही सोंच रही थी, कदाचित् सारन्धा को भी राजकुमार प्रिय लगने लगा था।

      धीरे धीरे सारन्धा और सूर्यदर्शन एक दूसरे के अत्यधिक निकट आ चुके थे औंर एकदूसरे से प्रेम करने लगे थे, जब ये बात राजा दर्शशील ने सुनी तो वे अत्यंत ही प्रसन्न हुए और राजकुमारी का विवाह सूर्यदर्शन से करने को सहमत हो गए, बडी़ धूमधाम से विवाह सामारोह की तैयारियां होने लगी और विवाह वाला दिन भी आ गया, परन्तु उस दिन जो हुआ उसकी आशा किसी को नहीं थीं।

         राजकुमार सूर्यदर्शन ने सारन्धा के साथ क्षल किया था, वो विवाह के सामारोह में जादूगर शंखनाद के साथ आया और महाराज दर्शशील, महारानी सारन्धा और राजकुमार चन्द्रभान की हत्या कर दी और रानी सारन्धा को राक्षस के निरीक्षण में तलघर मे बंदी बना दिया।

        ये थी मेरे जीवन की कथा, इसलिए पुनः किसी से प्रेम करके उस कथा को मैं नहीं दोहराना चाहतीं, बहुत बड़ा आघात पहुंचा हैं मुझे प्रेम में और इसका प्रतिशोध जब तक मैं उन दोनों से नहीं ले लेतीं, मैं कैसे किसी से प्रेम करने का सोच सकतीं हूं, इसलिए तो मैं आपलोगों के साथ यहां तक आईं हूं, रानी सारन्धा क्रोधित होकर बोली।

      

राजकुमारी सारन्धा की आंखें क्रोध से लाल थीं और उनसे अश्रुओं की धारा बह रहीं थीं, उनकी अन्त: पीड़ा को भलीभाँति समझकर नीलकमल आगें आई और सारन्धा को अपने गले लिया___

    क्षमा करना बहन!आप कब से अपने भीतर अपार कष्ट को छिपाएँ बैठीं थीं और हम सब इसे ना समझ सकें, आपकी सहायता करने मे हम सब को अत्यंत खुशी मिलेगी, आप ये ना समझें की आपका कुटुम्ब आपके निकट नहीं हैं, हम सब भी तो आपका कुटुम्ब ही हैं, अब आप अपने अश्रु पोछ लिजिए और मुझे ही अपनी बहन समझिए, यहां हम सब भी शंखनाद के अत्याचारों से पीड़ित हैं, हम सब का पूर्ण सहयोग रहेगा आपके प्रतिशोध मे, आप स्वयं को असहाय मत समझिए, नीलकमल ने सारन्धा से कहा।

       धन्यवाद, बहन! और सबसे क्षमा चाहती हूँ जो अपने क्रोध को मैं वश मे ना रख सकीं, क्या करती? कोई मिला ही नहीं जिससे अपनी ब्यथा कहती, परन्तु आप सब जबसे मिले थे तो एक आशा की किरण दिखाई पड़ी कि आप लोग ही मुझे मेरे प्रतिशोध को पूर्ण करने मे सहयोग कर सकते हैं, सारन्धा ने सभी से कहा।

          तभी अघोरनाथ जी ने आगें आकर सारन्धा के सिर पर अपना हाथ रखते हुए कहा___

इतनी ब्यथित ना हो बेटी! तुम्हारे कष्ट को मैं भलीभाँति समझ रहा हूँ, जो ब्यतीत हो चुका उसे भूलने मे ही भलाई हैं, आज से तुम मुझे ही अपना पिता समझों।

        इतना सुनकर सारन्धा ने अघोरनाथ जी के चरण स्पर्श कर लिए और अघोरनाथ जी ने सारन्धा को गले से लगा लिया।

      तब राजा विक्रम, सारन्धा के सामने आकर बोले__

क्षमा करें राजकुमारी, बहुत बड़ी भूल हुई मुझसे और आपसे एक बात और ज्ञात करना चाहूँगा कि अमरेन्द्र नगर के राजकुमार सूर्यदर्शन के माता-पिता से आप कभी मिलीं हैं, राजा विक्रम ने सारन्धा से प्रश्न किया।

      नहीं, उन्होंने कहा कि उनके माता पिता का स्वर्गवास हो चुका हैं, राजकुमारी सारन्धा ने उत्तर दिया।

  तात्पर्य यह हैं कि आपसे भी उन्होंने ये राज छुपाया, राजा विक्रम बोले।

      तभी राजकुमार सुवर्ण बोले, क्या बात हैं मित्र! इतने समय से पहेलियाँ क्यों बुझा रहे हैं, हम सबको भी तो ज्ञात हो कदाचित् बात क्या है?

       तब राजा विक्रम बोले___

   मित्र! सुवर्ण, जिस राजकुमार सूर्यदर्शन की बात राजकुमारी सारन्धा कर रहीं हैं, वो सच मे बहुत धूर्त और पाखंडी हैं, राजा विक्रम बोले।

    तो, मित्र ! क्या आप भी सूर्यदर्शन से भलीभाँति परिचित हैं, सुवर्ण ने विक्रम से पूछा।

जी, हां! राजकुमार सुवर्ण, वो सूर्यदर्शन नहीं, क्षल-कपट की मूर्ति हैं, उसने ना जाने कितने लोगों के साथ क्षल किया हैं___

      आप विस्तार से बताएं, सूर्यदर्शन के विषय मे, सुवर्ण ने कहा।

  हां, तो आप सभी सुने, सूर्यदर्शन के विषय मे और राजा विक्रम ने कहना प्रारम्भ किया___

          मानसरोवर नदी के तट पर एक सुंदर राज्य था जिसका नाम बांधवगढ़ था, उस राज्य के वनों में वन्यजीवों की कोई भी अल्पता नहीं थीं, राज्य के वासियों को उन वन्यजीवों का आखेट निषेध था, नागरिक अपना भरण पोषण उचित प्रकार से कर सकें इसके लिए वहां के राजा मानसिंह ने उचित प्रबन्ध कर रखें थे, वैसे भी राज्य मे किसी भी प्रकार की कोई भी अल्पता नहीं थी, मानसरोवर नदी ही वहाँ की जीविका की मुख्य स्श्रोत थी, चारों ओर खुशहाली ही खुशहाली थी।

       राजा सदैव नागरिकों की सहायता हेतु कुछ ना कुछ प्रयास करते रहते, उन्हें सदैव अपनी प्रजा अपनों प्राणों से भी प्रिय थीं, उनकी रानी विद्योत्तमा सदैव उनसे कहती की कि प्रजा के हित में उनका इतना चिंतन करना उचित नहीं हैं, इससें आपके स्वास्थ्य पर प्रभाव पड़ सकता हैं परन्तु महाराज कहते कि ये प्रजा तो मेरे पुत्र पुत्री समान हैं, भला इनके विषय मे चिंतन करने से मुझे क्या हो सकता हैं।

          ऐसे ही दिन ब्यतीत हो रहे थे, राजा के अब दो संतानें हो चुकी थीं, उन्होंने पुत्र का नाम विक्रम और पुत्री का ना संयोगिता रखा, उनकी दोनों संतानें अब यौवनावस्था मे पहुंच चुकीं थीं ।

       तभी राज्य में चारों ओर से वन्यजीवों के आखेट की सूचनाएं आने लगीं, राजा मानसिंह इन सूचनाओं से अत्यधिक ब्याकुल रहने लगे और उन्होंने इन सबके कारणों के विषय में अपनी प्रजा और राज्य के मंत्रियों से विचार विमर्श किया, परन्तु कोई भी मार्ग ना सूझ सका और ना ही किसी को कोई कारण समझ मे आया, ना गुप्तचर ही कोई कारण सामने ला पाए।

      तब राजा मानसिंह ने निर्णय लिया कि वो ही वन में वेष बदलकर रहेंगे और कारणों को जानने का प्रयास करेंगे, राजा मानसिंह ने कुछ सैनिको के साथ वन की ओर प्रस्थान किया और आदिवासियों का रूप धरकर वन मे रहने लगें, इसी तरह कुछ दिन ब्यतीत हो गए परन्तु कोई भी कारण सामने ना आ सका, अब राजा और भी गहरी सोंच मे डूबे रहते।

       अन्ततः एक रात्रि उन्होंने कुछ अनुभव किया कि कोई आकृति वायु में उड़ते हुए आई और एक वन्यजीव पर कुल्हाड़ी से प्रहार किया, मृत पशु की त्वचा को शरीर से निकाला और पुनः वायु मे उड़ चला, मानसिंह ने अपने भाले से उस पर प्रहार किया, जिससे वो भयभीत हो गया और उसनें अपनी गति बढ़ा थी और वायु में अदृश्य हो गया, राजा उसके पीछे पीछे भागने लगे क्योंकि उस मृत पशु की त्वचा अदृश्य नहीं हुई थी और इस बार मानसिंह ने अपने बाण का उपयोग किया जिससे वो अदृश्य आकृति मूर्छित होकर धरती पर गिर पड़ी, मानसिंह भागकर उस स्थान पर गए, तब तक वो आकृति अपना रूप ले चुकी थी, राजा ने शीघ्र अपने सैनिकों को पुकारा और उसे बंदी बनाने को कहा___

    उसे बंदी बनाने के उपरांत मानसिंह ने उससे उसका परिचय पूछा___

    कौन हो तुम? और यहां क्या करने आए थे, ऊंचे स्वर मे मानसिंह ने पूछा।

 मैं हूं दृष्टिबंधक (जादूगर)शंखनाद, मैं यहाँ वन्यजीवों का आखेट करने आया था और राजन तुम मुझे अधिक समय तक बंदी बनाकर नहीं रख पाओगे, अभी मेरी शक्तियों से तुम परिचित नहीं हो, एक बार मेरी दृष्टि जिस पर पड़ गई, इसके उपरांत उस पर किसी का भी अधिकार नहीं रहता और अब ये वन मेरा हैं इस पर मेरा अधिकार हैं, शंखनाद बोला।

   और कुछ समय उपरांत शंखनाद पुनः अदृश्य आकृति मे परिवर्तित होकर वायु में अदृश्य हो गया, मानसिह और उनके सैनिकों ने चहुँ ओर अपनी दृष्टि डाली परन्तु वो कहीं भी नहीं दिखा।

       परन्तु उस रात्रि के उपरांत वन्यजीवों के आखेट की सूचनाएं नहीं आईं, अब राजा मानसिंह भी निश्चिन्त हो गए थे कि कदाचित् शंखनाद के भीतर भय ब्याप्त हो गया हैं, इसलिए वन्यजीवों का आखेट करना उसने छोड़ दिया हैं।

     परन्तु यहीं राजा मानसिंह से भूल हो गई और वे पुनः राजपाट मे ब्यस्त हो गए, इसी बीच एक दिन राजकुमारी संयोगिता के लिए अमरेन्द्रनगर के राजकुमार सूर्यदर्शन के विवाह सम्बन्ध का प्रस्ताव आया, राजा मानसिंह सहमत भी हो गए, परन्तु राजकुमार विक्रम बोले___

    पिता श्री, मैं पहले अपने संदेह दूर कर लूं, इसके उपरांत आप विवाह का प्रस्ताव स्वीकार करें, मुझे कोई आपत्ति नहीं होगी और राजा मानसिंह ने अपनी सहमति विक्रम को दे दी।

      विक्रम वेष बदलकर अमरेंद्र नगर पहुंचा, वहां वो कुछ दिनों तक अपनी पहचान छिपाकर रहा, उसने पता किया कि सूर्य दर्शन एक कपटी व्यक्ति हैं, वो अपने पिता सत्यजीत को बंदी बनाकर स्वयं राजा बन बैठा और अब कुछ समय से शंखनाद से मित्रता कर ली हैं और उसने धूर्तता की सारी सीमाएं लांघ लीं हैं, उसका चरित्र भी गिरा हुआ हैं, दिन रात्रि मद मे डूबा रहता हैं, विक्रम समय रहते जानकारी ज्ञात कर सारी सूचनाएं लेकर महाराज मानसिंह के समीप पहुंचे।

      ये सब सुनकर मानसिंह अत्यधिक क्रोधित हुए, उन्होंने सूर्यदर्शन के विवाह प्रस्ताव को सहमति नहीं दी और इस कारण सूर्यदर्शन को अपने अपमान का अनुभव किया और उसने राजा मानसिंह से प्रतिशोध लेने की सोचीं।

      और एक रात्रि सूर्यदर्शन, शंखनाद के संग महाराज मानसिंह के राज्य बांधवगढ़ पहुंचा, शंखनाद ने बांधवगढ़ की प्रजा के घरों में अग्नि लगाना प्रारम्भ कर दिया, सारा राज्य अग्नि के काल में समाने लगा, प्रजा त्राहि त्राहि कर उठीं, अपने महल के छज्जे से प्रजा की ऐसी दशा देखकर राजा मानसिंह बिलख पड़े।

     उसी समय महल से बाहर आए, परन्तु उसी समय शंखनाद ने अपने अदृश्य रूप में उनका वध कर दिया, रानी बिलखती हुई राजन..राजन करते हुए उनके समीप आईं तब रानी पर प्रहार कर राजकुमारी संयोगिता को अपने साथ उठा ले गया।

      तब मैं राजकुमार विक्रम अपनी बहन संयोगिता की खोज में ना जाने कितने दिनों तक भटकता रहा, मुझे ये ज्ञात हुआ कि शंखनाद और सूर्यदर्शन ने ये षणयंत्र रचा था और शंखनाद ने संयोगिता को ले जाकर बांधवगढ़ की सीमा पर छोड़ दिया था और उसे वहां से शंखनाद के जादू से बने राक्षस ने तलघर में बंदी बना लिया हैं, मैं उस तलघर के अत्यंत समीप पहुंच गया तभी उसी समय मुझ पर किसी ने प्रहार किया और मैं मूर्छित होकर धरती पर गिर पड़ा, इसके उपरांत आप सब मिले, उसके आगें की कथा तो आप सबको ज्ञात हैं।

    

इसका तात्पर्य है कि शंखनाद ने सबके जीवन को हानि पहुंचाई हैं, अब हम सबके प्रतिशोध लेने का समय आ गया है, शंखनाद और चित्रलेखा ने बहुत पाप कर लिए, अब उनके जीवन से मुक्ति लेने का समय आ गया है, अघोरनाथ जी क्रोधित होकर बोले।

     हां, बाबा! इतना पाप करके, इतने लोगों की हत्या करके अब तक कैसे जीवित है वो, बकबक ने कहा।,

   हां..बकबक, मैं भी यही सोच रहा था, सुवर्ण बोला।

परन्तु, क्या हो सकता हैं अब, किसी के मस्तिष्क मे कोई विचार या कोई उपाय हैं, हम केवल सात लोंग हैं और शंखनाद इतना शक्तिशाली, हम किस प्रकार उसे पराजित कर सकते हैं, उसके साथ चित्रलेखा और सूर्यदर्शन भी हैं, हमें तो ये भी अभी ज्ञात नहीं कि सच मे चित्रलेखा के प्राण उस गिरगिट में हैं जो उसने अपने उस घर में छिपा रखा हैं, मानिक चंद बहुत ही अधीर होकर बोला ।

        आप!सत्य कह रहे हैं, मानिक चंद! इस समस्या का कोई भी समाधान नहीं सूझ रहा हैं, सुवर्ण ने कहा।

अब जो भी हो परन्तु अभी तो सूर्य अस्त हो चुका हैं और रात्रि होने वाली हैं, रात्रि भर के विश्राम के लिए कोई उचित स्थान खोजकर विश्राम करते हैं, प्रातःकाल उठकर विचार करेंगे कि आगें क्या करना हैं? राजकुमार विक्रम बोले।

       सब उचित स्थान खोजकर विश्राम करने लगे, आज अमावस्या की रात्रि थी इसलिए चन्द्र का प्रकाश मद्धम था, घना वन जहाँ केवल साँय साँय का स्वर ही सुनाई दे रहा था, यदाकदा किसी पंक्षी, झींगुर का स्वर सुनाई दे जाता और झरने के गिरते हुए जल का स्वर कुछ उच्च स्वर से गिर रहा था, रात्रि का दूसरा पहर ब्यतीत हो चुका था, बकबक पहरा दे रहा था।

     एकाएक उसे पत्तों की सरसराहट का स्वर सुनाई दिया, ऐसा प्रतीत हो रहा था कि जैसे कोई रेंग रहा हैं, बकबक को भय का अनुभव हुआ, परन्तु कुछ समय पश्चात वो स्वर सुनाई देना बंद हो गया, बकबक ने सोचा होगा कोई वनीय जीव और वो पुनः निश्चिंत होकर पहरा देने लगा।

           तभी बकबक को अपने पैरों पर किसी वस्तु का अनुभव हुआ, वो कुछ सोंच पाता उससे पहले ही वो वृक्ष से उल्टा लटक चुका था और अब उसने बचाओं... बचाओ... का स्वर लगाना शुरू किया, उसका स्वर सुनकर सभी जागे और बकबक को छुड़ाने का प्रयास करने लगे, परन्तु तब तक वो सब भी वृक्षों के तनों से बांधे जा चुके थे, अंधकार होने से कुछ ठीक से दिखाई नहीं पड़ रहा था, सब दुविधा मे थे कि ये सब क्या हो रहा हैं।

       तभी मानिक चंद क्रोधित होकर बोला__

  मैंने कहा था ना बाबा ! कि शंखनाद अवश्य कुछ ऐसा करेगा कि हम सब विवश हो जाए और हमसे जीतने के लिए फिर उसने अपनी शक्तियां भेंजी हैं, जिससे हम अपने उद्देश्य मे सफल ना हो सकें, जिससे वो हमारी विवशता का लाभ उठाकर हमारी हत्या कर सकें।

       हो सकता हैं कि ये शंखनाद का नहीं , किसी और का कार्य हो, अघोरनाथ जी बोले।

एक संकट समाप्त नही होता कि दूसरा संकट आकर खड़ा हो जाता हैं, पता नहीं कौन सी अशुभ घड़ी थी जो मै इस द्वीप पर आया, मानिक चंद पुनः क्रोध से बोला।

    तभी एक प्रकाश सा हुआ और एक छोटा नर पिशाच प्रकट हुआ और सबके समक्ष आ खड़ा हुआ, जिसकी त्वचा लसलसी थी, जिसके कान का आकार बहुत बड़ा था , नाक चपटी, हाथ पैर छोटे छोटे और पेट मटके के समान था, सबके समक्ष आकर उसने पूछा।

     आप सब अभी किसके विषय में कह रहें थे___

    तुम हो कौन?ये पूछने वाले, मानिकचंद गुस्से से बोला।

कृपया, आप बताएं, कहीं आप दृष्टि बंधक(जादूगर) शंखनाद के विषय मे वार्तालाप तो नहीं कर रहें थे।

      परन्तु तुम कैसे जानते हो?शंखनाद को, सुवर्ण ने पूछा॥

क्योंकि शंखनाद हमारा भी शत्रु हैं, उस नर पिशाच ने कहा।

      परन्तु , पहले ये बताओं कि तुम हो कौन?राजकुमार विक्रम ने पूछा।

     मैं इस स्थान के नरपिशाचों का राजा घगअनंग हूँ, मैं तो केवल अपना कर्तव्य कर रहा था, अपनी प्रजा की रक्षा करना मेरा धर्म हैं और मै तो केवल अपना धर्म निभा रहा था, आप सब को मेरे कारण इतना कष्ट उठाना पड़ा, उसके लिए मैं आप सबका क्षमाप्रार्थी हूं, घगअनंग बोला।

      यद्पि आपका परिचय पूर्ण हो गया हो महाशय तो कृपया, मुझ बंधक पर भी अपनी कृपादृष्टि डालें, कब तक ऐसे उल्टा लटका कर रखेगें मुझे, बकबक बोला।

      बकबक की बात सुनकर सब हंसने लगे।

  क्षमा करें, मान्यवर, मै तो भूल ही गया लीजिए अभी आप मुक्त हुए जाते। है, राजा घगअनंग बोले।

      और घगअनंग ने अपनी ताली बजाई और बहुत सी नर पिशाच सेना उपस्थित हो गई, राजा घगअनंग ने आदेश दिया कि सभी को मुक्त कर दिया जाए और सभी सैनिकों ने राजा घगअनंग के आदेश का पालन किया।

     सबके मुक्त हो जाने पर राजा घगअनंग ने अघोरनाथ जी से कहा___

कहिए, महाशय मैं आपकी क्या सहायता कर सकता हूं?

    बस, इतनी सी कि अगर शंखनाद के विषय में अगर आपको कोई जानकारी हो तो हमें दीजिए, जिससे हम सब का प्रतिशोध सरल हो जाए, अघोरनाथ जी ने घगअनंग से कहा।

     जी, अवश्य, किन्तु पहले आप सब हमारे निवास स्थान चलकर कुछ स्वल्पाहार करें, आप सबका स्वागत करने मे मुझे अत्यंत खुश मिलेंगी, घनअनंग बोले।

    आप इतना आग्रह कर ही रहें तो चलिए, आपके निवास स्थान चलते हैं, अघोरनाथ जी बोले।

    ये सब देखकर मानिक चंद बोला।

ये क्या बाबा, इन सब पर आपने विश्वास भी कर लिया, इन्होंने हमसे छल किया तो , पुनः बंदी बना लिया तो, मानिक चंद मन मे संदेह लाते हुए बोला।

       सालों हो गए, मानवों को देखते हुए, कपटी और सज्जन मे अन्तर कर सकता हूँ, मानिक बेटा, ये केश सूर्य के प्रकाश में श्वेत नहीं हुए हैं, अघोर नाथ जी ने मानिक चंद से कहा।

      और अघोरनाथ जी सभी के साथ घगअनंग के निवास स्थान की ओर चल दिएअभी रात्रि बीती नहीं थीं, मार्ग बहुत ही अंधकारमय था, तभी बकबक ने अपना प्रकाश वाला पत्थर निकाला, जिससे मार्ग मे प्रकाश फैल गया, सभी घगअनंग के निवास स्थान पहुंचे।

       बहुत ही सुंदर स्थान था, विशाल विशाल वृक्षों के तनों में छोटे छोटे घर स्थित थे, जो प्रकाश से जगमगा रहें थें, उनकी छटा ही निराली थी, उनकी शोभा देखते ही बन रही थी, जो एक बार देखें मोहित हो जाए।

             सभी उस स्थान की निराली छटा देखकर मोहित हो उठे, बारी बारी से महिला नर पिशाचिनी आईं और सबका स्वागत किया, जो भी उनके पास खाने योग्य आहार था, उन्होंने उपस्थित किया, घगअनंग की प्रजा बहुत प्रसन्न थी, बहुत समय पश्चात उनके निवास स्थान पर अतिथि आएं थे, कुछ संगीत और नृत्य के भी कार्यक्रम भी किए गए, बहुत दिनों पश्चात् सारन्धा के मुख पर हंसी देखकर विक्रम भी प्रसन्न था।

     विक्रम बस सारन्धा को ही निहारे जा रहा था, उसकी दृष्टि केवल सारन्धा की ओर थी, उसकी ऐसी अवस्था देखकर, सुवर्ण ने विक्रम को छेड़ते हुए कहा___

     और मित्र!आनंद आ रहा ना।

और विक्रम ने हल्की हंसते हुए, दूसरी ओर मुख फेरते हुए सुवर्ण से कहा___

  मित्र! आप भी, कैसी बातें कर रहें हैं?

  हां...हांं..मित्र, ये प्रेम होता ही कुछ ऐसा हैं, आप कितना भी छुपाएं, सबको आपकी दृष्टि से ज्ञात हो ही जाता हैं, सुवर्ण ने विक्रम से कहा।

   सच, मित्र! मै सारन्धा से प्रेम करने लगा हूँ किन्तु उनकी ऐसी अवस्था देखकर अपने हृदय की बात कहना अच्छा नहीं लगा, विक्रम ने अपने हृदय की बात सुवर्ण को सुनाते हुए कहा।

     कोई बात नहीं मित्र! अभी राजकुमारी सारन्धा की मनोदशा स्थिर नहीं हैं, बहुत बड़ा आघात पहुंचा हैं उन्हें, समय रहतें, वो अवश्य ही आपके निश्छल प्रेम को समझने का प्रयास करेंगी, आप अकारण ही चिंतित ना हो, सुवर्ण ने विक्रम को सांत्वना देते हुए कहा।

  हांं, अवश्य ही ऐसा होगा, मुझे अपने प्रेम पर विश्वास हैं, विक्रम ने सुवर्ण से कहा।

             

          

घगअनंग जी के निवास स्थान पर सभी रात्रि को विश्राम करने लगें, तब घग अनंग जी बोले_____

      मैं अब आप सब को शंखनाद के सभी रहस्यों से अवगत करवाता हूँ!!

जी, हम सब यही ज्ञात करना चाहते थे, आपका बहुत बहुत आभार रहेगा हम सब पर क्योंकि वनदेवी शाकंभरी की स्थिति बहुत ही दयनीय थी, जितने शीघ्र हमें शंखनाद के रहस्य ज्ञात होंगे, उतने ही शीघ्रता से हम उनकी सहायता कर पाएंगे एवं हम जितने भी सदस्य हैं उनमें से सभी को शंखनाद ने कष्ट पहुँचाया हैं, अघोरनाथ जी बोले।

   जी, अब उस शंखनाद की मृत्यु निश्चित हैं, जो रहस्य मुझे ज्ञात हैं, मैं आपको बता देता हूँ और कुछ रहस्य आपको हमारा गुप्तचर उड़नछू बताएगा, तभी ज्ञात हो सकेगा कि उसे शंखनाद के किन किन रहस्यों के विषय में ज्ञात हैं, घगअनंग जी बोले।

     जी, कुछ तो मुझे भी ज्ञात हैं क्योंकि मै चित्रलेखा के निवास स्थान पर रह चुका हूँ, परन्तु आश्चर्य की बात है कि उसने मुझे कोई भी हानि नहीं पहुँचाई, मानिक चंद बोला।

    किन्तु, आप वहां रहकर क्या क्या ज्ञात कर पाएं, घगअनंग जी ने पूछा।

यहीं कि चित्रलेखा के प्राण किसी बक्से मे गिरगिट के रूप में बंद हैं और वो बक्सा उसने तलघर मे कहीं छिपा रखा हैं और ये तो सबको ज्ञात हैं कि शंखनाद मानवों के हृदय से बना एक तरल पदार्थ बनाता हैं जिसे पीकर मृत्यु उसके निकट नहीं आती और सुंदर कन्याओं की त्वचा से बना एक प्रकार का पदार्थ बनाता हैं जो वो अपनी त्वचा पर लगाता हैं जिससे वो वृद्धावस्था मे नहीं पहुंच रहा हैं, मानिक चंद बोला।

          परन्तु ये अभी तक किसी को ज्ञात नहीं है कि शंखनाद के प्राणों को उसने किस स्थान और किसके भीतर सुरक्षित कर रखा हैं? घगअनंग जी बोले।

      ये तो सत्य हैं, परन्तु ज्ञात कैसे किया जाए? अघोरनाथ जी बोले।

मै अभी अपने गुप्तचर उड़नछू को किसी सैनिक द्वारा बुलवाता हूँ, वो सच्चाई बता सकता हैं, अपने निवास स्थान मे विश्राम कर रहा होगा, घगअनंग जी बोले।

            और घगअनंग जी ने अपने एक सैनिक को भेजकर उड़नछू को बुलवा भेजा, उड़नछू बहुत ही गहरी निद्रा मे था और उसे अभी भी निद्रा ने घेर रखा था, घगअनंग जी के आदेश पर उसे विवशता वश आना पड़ा, उसनें सर्वप्रथम घगअनंग जी को प्रणाम किया और शीघ्र बुलवाने का कारण पूछा___

        लगता हैं, उड़नछू, अभी निद्रा रानी ने तुम्हें घेर रखा हैं, घगअनंग जी ने पूछा।

 हां, महाराज! अभी मेरा विश्राम पूर्ण ही कहाँ हुआ हैं, इतने दिनों के उपरांत लौटा था कि कुछ क्षण विश्राम करूँगा, परन्तु आपने विश्राम ही कहाँ करने दिया, उड़नछू ने घगअनंग जी से कहा।

     इन सबके के लिए अब एक पल का भी बिलम्ब करना उचित नहीं हैं, उधर वनदेवी शाकंभरी संकट में हैं, कदाचित् तुम इन्हें शंखनाद के सभी रहस्य बता दो तो प्रातःकाल ही शाकंभरी की सहायता हेतु निकल पड़ेगे, घगअनंग जी ने उड़नछू से कहा।

     जी महाराज, शंखनाद बहुत ही धूर्त और पाखंडी हैं, ये तो मुझे भी ज्ञात हो चुका हैं कि वनदेवी शाकंभरी के जादुई पंखो को शंखनाद ने एक विशाल बरगद के वृक्ष के तने मे एक बक्से के भीतर छुपा रखा हैं और उस वृक्ष को जादुई बाधाओं द्वारा बांध रखा हैं, उस बांधा को तो कोई जादूगर ही तोड़ सकता हैं, उड़नछू बोला।

     थोड़ा बहुत जादू तो मुझे भी आता हैं, मैं भी कुछ दिन रहा था शंखनाद के साथ, तभी सीखा हैं लेकिन शंखनाद जितना श्रेष्ठ नहीं हूँ, राजकुमार सुवर्ण बोला।

       परन्तु उसने अपने प्राणों को किस स्थान और किसके अंदर छुपा रखा हैं, बकबक ने पूछा।

 तो सुनिए, जहाँ उसका निवास स्थान हैं, वहाँ एक जलाशय हैं, उस जलाशय के बीचों बीच एक स्त्री की मूर्ति हैं और उस स्त्री के हाथों में एक पत्थर का उल्लू हैं उस उल्लू के भीतर ही शंखनाद के प्राण हैं, उड़न छू बोला।

    तो ये तो बहुत ही सरल हुआ, जो अच्छा तैराक होगा वो इस कार्य मे सफल होगा, राजकुमार विक्रम बोला।

   इतना भी सरल नहीं हैं, उस जलाशय में ना जाने कितने प्रकार की बाधाएं डाल रखीं हैं शंखनाद, जादू और तंत्र विद्या दोनों प्रयोग किया गया हैं इस कार्य में, उड़नछू बोला।

     तंत्र विद्या मे तो बाबा जैसा कोई नहीं और थोड़ा बहुत जादू तो मैं कर ही लूँगा परन्तु फिर भी शंखनाद से जीतने के लिए, इतनी शक्तियां और कहाँ से आएंगी, राजकुमार सुवर्ण बोला।

      एक उपाय और हैं, उड़नछू बोला।

 वो क्या? बकबक ने पूछा।

वो ये कि जलाशय के निकट ही शंखनाद के माता पिता की समाधियां बनी हैं और शंखनाद कभी भी उन्हें नहीं छूता, क्योंकि शंखनाद के माता पिता बहुत ही सात्विक विचारों के थे, उन्हें शंखनाद के ये सब कार्य पसंद नहीं थे इसलिए, वो उन समाधियों को नहीं छू सकता और अगर कभी भूलवश छू लिया तो भस्म हो जाएगा, उड़नछू बोला।

   ये तो बहुत अच्छी बात बताई, अघोरनाथ जी बोले।

हां, बस मुझे इतना ही ज्ञात है महाराज, अब मैं विश्राम करने जाऊँ और मैं सोच रहा था कि मैं भी इनके साथ चला ही जाता हूँ, मेरे इन सब के साथ जाने से इनका कार्य थोड़ा सरल हो जाएगा, उड़नछू बोला।

     हां..हां. क्यों नहीं, उड़नछू, तुमने तो मेरे मन की बात कह दी, घगअनंग जी बोले।

   तो फिर सब अब विश्राम करते हैं, कल बहुत मेहनत करनीं हैं, मानिक चंद बोला।

    और सब विश्राम करने लगें, प्रातःकाल पंक्षियों के कलरव से सब जाग उठे और स्नान ध्यान करके गंन्तव्य की ओर निकल पड़े।

     उड़नछू बोला, बाबा! क्या हम छोटे मार्ग से चलें जिससे हम शीघ्रता से शाकंभरी वनदेवी के पास पहुंच सकते हैं।

   जैसा तुम्हें उचित लगें, उड़नछू, हम सब को तो वहीं बड़ा मार्ग ज्ञात हैं जहां से हम आए थें।

 परन्तु उस मार्ग में दो बाधाएँ हैं, उड़नछू बोला।

   वो क्या हैं?बकबक ने पूछा।

    रास्ते में एक जादुई बोलने वाला वृक्ष मिलेगा जिसके आंखें भी हैं और मुंह भी और वो हमसे पूछेगा कि कहाँ जाना हैं? तो हम सब को एक साथ उत्तर देना हैं कि शाकंभरी के पास नहीं जाना और कहीं भी चले जाएंगें, उड़नछू बोला।

   ये कैसा उत्तर हुआ भला! नीलकमल ने पूछा।

क्योंकि वो वृक्ष हम से कहेगा, नहीं तुम्हें तो शाकंभरी के पास ही जाना होगा और अपनी शाखा से एक एक पत्ते हम सब को देंगा जिसे हमें आगें मिलने वाली चुडै़ल को देने हैं, वो उन जादुई पत्तो का उपयोग अपना जादुई काढ़ा बनाने में करती है, जिससे वो खुश हो जाएगी और हमेँ आगे जाने देगीं, उड़न छू बोला।

    अच्छा तो ये बात हैं, बकबक बोला।

और सब आगे बढ़ चलें, चलते चलते उन्हें वहीं चेहरे वाला वृक्ष मिला।

  उस पेड़ ने कहा, ठहरो!!

  तब उड़नछू ने अभिनय करते हुए कहा, कौन..कौन हैं वहाँ?

  मैं...मैं हूँ यहाँ.. उस वृक्ष ने उत्तर दिया।

   मैं कौन? उड़नछू ने पुनः पूछा।

मै जादुई वृक्ष, कहाँ जा रहे हो तुम लोग, ?उस वृक्ष ने पूछा।

हम लोग शाकंभरी वनदेवी से मिलने नहीं जाना चाहते, सबने एक साथ उत्तर दिया।

 लेकिन तुम लोगों को जाना पड़ेगा, ये मेरी आज्ञा हैं और ये रहेंं, मेरी शाखाओं के पत्ते, उस मार्ग पर तुम्हें एक चुडै़ल मिलेगी, ये पत्ते उसी को दे देना, उस वृक्ष ने कहा।

    सबने एक एक पत्ता उठा लिया और जादुई वृक्ष को धन्यवाद देकर आगें बढ़ चले।

आगे जाकर मार्ग में उन्हें वहीं चुड़ैल काढ़ा बनाते हुए दिखी।

   उसने भी पूछा, तुम सब कहाँ जा रहे हो।

  उड़नछू ने कहा, हम वनदेवी शाकंभरी के पास जा रहे हैं, हमें कृपया जाने दे।

 ठीक है जाओ, मैने कब रोका हैं, बस तुम लोग मुझे वो पत्ते देदो, जो तुम्हें जादुई वृक्ष ने दिए हैं।

सबने अपने अपने पत्ते उस चुडै़ल को दे दिए, चुडै़ल बहुत प्रसन्न हुई और सबको जाने दिया।

कुछ समय तक उस मार्ग पर चलने के पश्चात् वो सब शाकंभरी वनदेवी के समीप पहुंच गए, शाकंभरी ने जैसे ही बकबक को देखा अत्यधिक प्रसन्न हुई।

     अच्छा नहीं किया आपने, शाकंभरी, आप इतने कष्ट में थीं और मुझे सूचित भी नहीं किया, बकबक ने शाकंभरी से शिकायत करते हुए कहा।

   मेरे निकट कोई भी नहीं था जिससे मैं तुम तक सूचना पहुंचा कर सहायता मांग लेतीं, ये सब आए इन्होंने मेरी ब्यथा सुनी, तब मैने इन्हें सब बताया।

     तो ये लो उड़ने वाले घोड़े का ताबीज इसे इसी क्षण पहन लो और तुम कहो तो आज रात्रि मे ही शंखनाद पर आक्रमण कर देते हैं, बकबक ने कहा।

   परन्तु क्या रात्रि का समय आक्रमण के लिए उचित रहेगा? राजकुमार विक्रम ने पूछा।

  हां..हां क्यों नहीं, अघोरनाथ जी बोल।

परन्तु, अभी आप लोग बहुत थक चुके हैं, कुछ क्षण विश्राम करें, अर्धरात्रि के समय हम ये कार्य प्रारम्भ करेगें, शाकंभरी वनदेवी बोली।

   

शाकंभरी की बात सुनकर सब विश्राम करने लगें और अर्धरात्रि के समय सब जाग उठे, जिससे जो बन पड़ा वैसे अस्त्र शस्त्र लेकर शंखनाद से प्रतिशोध लेने निकल पड़े, वनदेवी शाकंभरी उड़ने वाले घोड़े पर सवार हो गई अब उसने अपने लबादे को हटा दिया था, लबादा हटाते ही उसके शरीर से आते हुए प्रकाश ने सारे वन को जगमगा दिया।

    तभी अघोरनाथ जी बोले, पहले हम ये तो तय करें कि कौन कौन कहाँ कहाँ प्रवेश करेगा, इसके लिए हमे एक रणनीति बनानी होगी, मैं सोच रहा हूँ कि सर्वप्रथम हमें चित्रलेखा के निवास स्थान जाकर चित्र लेखा को समाप्त करना चाहिए, इसके लिए वहाँ राजकुमार सुवर्ण, वो इसलिए कि उन्हें जादू आता है, उनके साथ राजकुमार विक्रम क्योंकि वे बहादुर हैं और राजकुमारी सारन्धा जाएंगी।

     परन्तु ये सब वहाँ पहुंचेगे कैसे, बकबक ने पूछा।

 तभी शाकंभरी वनदेवी बोली, ये सब जाएंगें इस उड़ने वाले घोड़े से।

   हां! यही उचित रहेगा, बाबा अघोरनाथ जी बोले।

तभी नीलकमल बोली, बाबा! मुझे भी जाने दीजिए।

  नहीं, पुत्री! नीलकमल, चित्रलेखा तुमसे भलीभाँति परिचित है और सुवर्ण का जाना इसलिए आवश्यक हैं कि उसे जादू आता हैं, अघोरनाथ जी बोले।

   और मै बाबा, मानिक चंद बोला।

सब का अपना अपना कार्य होगा, तनिक सब धैर्य रखें, बाबा अघोरनाथ बोले।

     सुवर्ण, विक्रम और सारन्धा, अर्धरात्रि को ही उसी समय चित्रलेखा के निवास स्थान की ओर चल पड़े।

घोड़ा तेज रफ्तार मे बादलों में उड़ता चला जा रहा था, सुवर्ण सबसे आगे, विक्रम और सारन्धा प्रतिशोध की ज्वाला आंखों मे भरे आगे बढ़ रहेंं थे, कुछ समय पश्चात् वो सब चित्रलेखा के निवास स्थान पहुँच गए, वो चित्रलेखा के निवास स्थान से उचित दूरी पर उड़ने वाले घोड़े के साथ उतरे।

          छिपते छिपाते वे सब वृक्षों की ओट और झाड़ियों से होते हुए, चुपके चुपके उसके निवास पर पहुंच गए, सुवर्ण ने अपने जादू से द्वार खोले, वे सब भीतर घुसे, अंदर बहुत ही अंधेरा था और चित्रलेखा कहीं भी नजर नहीं आ रही थीं, सबने चित्रलेखा को ढ़ूढ़ना शुरु किया।

        उन्होंने हर स्थान पर खोजने का प्रयास किया, किन्तु चित्रलेखा कहीं पर नहीं मिली, तभी उन्हें एक गुप्त द्वार दिखा, उन्होंने देखा कि वहाँ से नीचे जाने के लिए सीढियां हैं , वे सब सावधानी के साथ नीचे उतरने लगे, उन्होंने जाकर देखा कि चित्रलेखा कुछ जादू करके तरल पदार्थ बना रही हैं और उसने उस बड़े से गिरगिट को अपने कंधे पर बैठा रखा था जिसमें उसके प्राण सुरक्षित थे, वो अपने कार्य मे इतनी बेसुध थी कि उसे उन सब के आने का क्षण भर भी संदेह ना हुआ और इसी समय का उन सबने लाभ उठाया।

             सबसे पहले सारन्धा ने चित्र लेखा पर जोर का वार किया, जिससें चित्रलेखा भूमि पर जा गिरी, विक्रम ने शीघ्रता से चित्रलेखा की जादुई किताब को अग्नि के सुपुर्द कर दिया, जिसे देखकर चित्रलेखा क्रोध से जल उठी, उसने नहीं.... के स्वर के साथ अपना एक जादुई वार किया, तब तक सारन्धा विक्रम और चित्रलेखा के मध्य आ चुकी थी, चित्रलेखा के इस वार से सारन्धा घायल हो कर धरती पर गिर पड़ी, तब तक सुवर्ण ने चित्रलेखा के जादुई पदार्थ से भरे हुए मटके को धरती पर उड़ेलकर मटके को फोड़ दिया, ये सब देखकर चित्रलेखा का क्रोध साँतवें आसमान पर पहुंच गया, अब वो ये सब सहन नहीं कर सकती थी, उसनें अपने जादुई शक्तियों का सहारा लेकर सुवर्ण पर वार किया, परन्तु सुवर्ण ने अपने जादू को इस कार्य में लाना प्रारम्भ कर दिया और विक्रम ने अपनी तलवार सम्भाल ली, चित्रलेखा ने अपने गिरगिट को (वातायन) खिड़की से बाहर भेजने का प्रयास किया परन्तु विक्रम ने अपनी तलवार से गिरगिट के दो टुकड़े कर डाले और तब तक टुकड़े करता रहा, जब तक की गिरगिट सूक्ष्म टुकड़ों मे ना विभाजित हो गया।

     अब चित्रलेखा क्रोध से अपना संतुलन खो बैठी, उसने फिर जादुई शक्ति का वार किया, किन्तु इस बार सुवर्ण ने अपनी सारी शक्ति लगाकर ऐसा वार किया कि चित्रलेखा भस्म हो गई, सुवर्ण ने शीघ्रता से वहीं उपस्थिति अग्नि मे जिसमे चित्रलेखा अपना जादुई पदार्थ बना रही थीं, उसी अग्नि मे गिरगिट के रक्त से लथपथ टुकड़ों को डाल दिया, अब चित्रलेखा की जीवनलीला समाप्त हो चुकी थीं, परन्तु इन सब मे सारन्धा मूर्छित हो चुकी थीं।

     विक्रम ने सारन्धा को उठाने की कोशिश की परन्तु वह नहीं उठी, तब विक्रम ने अपनी तलवार सम्भाली और सुवर्ण से कहा___

   मित्र! लगता हैं राजकुमारी सारन्धा की अवस्था अच्छी नहीं हैं, लगता हैं इन्हें गम्भीर क्षति पहुंची हैं, इन्हें तो बाबा ही स्वस्थ कर पाएंगे और चित्रलेखा तो इस संसार से जा चुकी हैं, अब ये शुभ सूचना हमें उन सबको भी देनी चाहिए, कदाचित् यहाँ अब अत्यधिक ठहरना हमारे प्राणों के लिए उचित ना होगा।

  हां , मित्र! यही उचित रहेगा, आप राजकुमारी सारन्धा को गोद मे उठाइए, हम शीघ्र ही यहाँ से प्रस्थान करते हैं, राजकुमारी सारन्धा भी मूर्छित हैं, इनका उपचार बाबा ही कर पाएंगे, राजकुमार सुवर्ण बोला।

    और सब बाहर आकर उड़ने वाले घोड़े पर सवार हो कर चल दिए, कुछ समय पश्चात् वो सब शाकंभरी के पास पहुंचे और ये शुभ सूचना सुनाई।

   ये सूचना सुनकर, अघोरनाथ जी को बहुत कष्ट हुआ और कष्ट क्यों ना होगा, चित्रलेखा उनकी बेटी जो थीं, उनकी आंखों से दो बूंद आंसू भी ढ़ुलक पड़े, उनकी ऐसी अवस्था देखकर नीलकमल उनके निकट आकर बोली___

    दुखी मत हों बाबा!आपने कहा था ना कि मैं भी आपकी ही पुत्री हूँ, बहुत विशाल हृदय हैं आपका जो आपने इतना बड़ा त्याग किया।

   हां, पुत्री! तुम और सारन्धा भी तो मेरी पुत्री हो, बाबा अघोरनाथ बोले।

   परन्तु बाबा! सारन्धा के प्राण इस समय संकट मे हैं, चित्रलेखा का जादुई वार उसने मेरे प्राण बचाने के लिए अपने ऊपर ले लिया, विक्रम ये कहते कहते रो पड़ा।

   तब सुवर्ण ने विक्रम को दिलासा देते हुए कहा, धैर्य रखो मित्र! राजकुमारी सारन्धा को कुछ नहीं होगा,

आशा तो यहीं हैं कि राजकुमारी को कुछ ना हो, राजकुमार विक्रम बोले।

 

राजकुमारी सारन्धा की अवस्था बहुत ही गम्भीर थी और सारन्धा की अवस्था देखकर राजकुमार विक्रम बहुत ही विचलित थे, अघोरनाथ जी ने शीघ्रता से अपने अश्रु पोछे और विक्रम से बोले, राजकुमारी सारन्धा को शीघ्र ही धरती पर लिटा दो, विक्रम ने ऐसा ही किया, बाबा अघोरनाथ ने एक घेरा सा बनाकर उसमे अग्नि प्रज्वलित की और मंत्रों का जाप करने लगें, कुछ क्षण पश्चात् उनके मंत्रो का उच्चारण सारे वन में गूँजने लगा,

           परन्तु तभी वहाँ सूर्यदर्शन आ पहुंचा, वो एक साधारण से घोड़े पर कुछ सैनिकों के साथ आया था, सूर्यदर्शन को देखकर विक्रम की आंखो में क्रोध की ज्वाला जलने लगी, उसे देखकर उसने कहा___

   तू! कपटी, यहां क्यों आया हैं, विक्रम बोला।

  मुझे सूचना मिली की तुम लोगों ने चित्रलेखा की हत्या कर दी, वहीं संदेह दूर करने आया हूँ कि कौन हैं वो वीर जिन्होंने ये काम किया, इसकी सूचना मुझे शंखनाद ने दी, उसके गुप्तचर ने तुमलोगों को चित्रलेखा के निवास स्थान से निकलते हुए देख लिया था, सूर्यदर्शन मुस्कुराते हुए बोला।

  दुष्ट, कपटी, पापी, तुझ जैसा मानव धरती पर भार हैं, विक्रम क्रोधित होकर बोला।

        मै ने सुना हैं कि राजकुमारी सारन्धा को चित्रलेखा के प्रहार ने अचेत कर दिया हैं, कदाचित् मुझे तनिक कष्ट हुआ, क्योंकि वो मेरी भूतपूर्व प्रेयसी रह चुकी, तनिक पीड़ा तो मेरे हृदय को भी पहुंची है, सूर्यदर्शन कुटिल हंसी हंसते हुए बोला।

    चुप रह धूर्त! तुझ जैसा पाषाण हृदय तो संसार मे भी ना होगा, जिसने अपने स्वार्थ के लिए अपने पिता को ही बंदी बना लिया, विक्रम क्रोधित होकर बोला।

      अरे, राजकुमार विक्रम इतना क्रोध मत कीजिए, कहीं आपके हृदय ने राजकुमारी सारन्धा को स्थान तो नहीं दे दिया, कदाचित् तुम भी उनसें प्रेम तो नहीं करने लगे, सूर्यदर्शन ने विक्रम से कहा।

हे!मानवरूपी राक्षस, तनिक ईश्वर से डर, क्यों अपना सर्वनाश करने पर तुला हुआ हैं, विक्रम ने कहा।

           मै तो यहाँ केवल राजकुमारी सारन्धा के उपचार मे विघ्न डालने आया था, मैं नहीं चाहता कि वह पुनः जीवित हो, सूर्यदर्शन बोला।

    मेरे रहते हुए तो राजकुमारी का कुछ भी नहीं बिगाड़ पाएगा, इतना कहते ही राजकुमार विक्रम ने सूर्यदर्शन पर अपनी तलवार से प्रहार प्रारम्भ कर दिया और सूर्यदर्शन भी कहाँ पीछे हटने वाला था उसने भी अपनी तलवार से विक्रम पर प्रहार प्रारम्भ कर दिया था, विक्रम ने सारे सैनिकों को मृत्यु के घाट उतार दिया।

           अंधेरी भयावह रात्रि मे तलवारों का भययुक्त स्वर गूंज रहा था और उनसें निकलने वाली चिंगारियों से वातारण का अंधकार मिट जाता, दोनों अपनी तलवारें से प्रहार पर प्रहार किए जा रहे थें और उधर अघोरनाथ जी का मंत्रोच्चारण बिना किसी बांधा के निरन्तर होता रहा और सूर्यदर्शन अपने उद्देश्य मे सफल ना हो सका, कुछ समय उपरांत राजकुमारी सारन्धा सचेत हो उठी और सूर्यदर्शन को देखकर उसके हृदय की अग्नि प्रज्वलित हो उठी, वो शीघ्रता से उठी और बिजली की भांति उसने सुवर्ण की तलवार को उसके म्यान से खींचा और एक भी क्षण की प्रतीक्षा किए बिना ही उसने सूर्यदर्शन के सिर को उसके धड़ से अलग कर दिया और धरती पर घुटनों के बल बैठकर विलाप करने लगी।

      तभी अघोरनाथ जी सारन्धा के निकट आकर बोले__

   अब विलाप किस बात का पुत्री! तुम तो यही चाहती थीं और आज तुम्हारा प्रतिशोध पूर्ण हुआ।

 जी, बाबा!आज विलाप तो मैं अपने परिवार के लिए कर रहीं हूँ, मेरे पिताश्री की आत्मा को आज शांति मिली होगी, विलाप और इस पापी का, कतई नहीं, ये तो धूर्त कपटी था, संसार इसके भार से दबा जा रहा था और इसे मारने का सौभाग्य मुझे प्राप्त हुआ हैं इसलिए आज मैं प्रसन्न हूँ, राजकुमारी सारन्धा बोली।

     कदाचित् अब बिलंब किस बात का, अब हमे क्षण भर भी प्रतीक्षा नहीं करनी चाहिए क्योंकि दो दुष्टो का नाश करने में ही अर्धरात्रि ब्यतीत हो चुकी हैं, बाबा अघोरनाथ बोले।

    हां, बाबा आपना कथन उचित हैं, शाकंभरी बोली।

  ऐसे करें वनदेवी आप, सारन्धा और नीलकमल घोड़े पर सवार हो जाएं, सुवर्ण बोला।

  नहीं, सुवर्ण, ये घोड़ा वनदेवी के लिए लाया गया हैं, वो ही इस पर सवार होगीं, क्या तुम अपने जादू से हम सबको वहाँ नहीं ले सकते, नीलकमल बोली।

  हां..हां अवश्य, ये तो मै कर सकता हूँ, सुवर्ण बोला।

शाकंभरी घोड़े पर सवार हुई और सब वहां से अन्तर ध्यान हो गए।

सब शंखनाद के निवास जा पहुंचे और सबने अपना अपना स्थान ग्रहण कर लिया, जैसी रणनीति बनी थी उसी के अनुसार सबने अपना अपना कार्य प्रारम्भ कर दिया।

        सर्प्रथम सभी विशाल से वृक्ष के निकट पहुंचे जहां शाकंभरी के पंख एक बक्से मे उसी विशाल वृक्ष के तने मे रखे थे, परन्तु जो उसके चारों बाधाएँ थी, उसे दूर किए बिना उस वृक्ष को कोई भी हाथ नहीं लगा सकता था।

     तब बाबा अघोरनाथ ने अपनी कमर मे बंधी हुई छोटी सी पोटली निकाली और उसमे से विभूति निकाली और उन्होंने उस विशाल वृक्ष के चारो ओर बिखेर दी, तब बकबक ने पूछा बाबा ये क्या हैं?

     अघोरनाथ जी बोले, मैं एक तांत्रिक हूँ और ये विभूति उन सिद्ध मानवों की चिता की जो अब इस संसार में नहीं हैं, हम तांत्रिक ऐसे महान पुरुषों की विभूति को इस पोटली मे इकट्ठा करते हैं कि हम इसे किसी की भलाई करने मे उपयोग कर सकें, इस विभूति मे उपस्थित अच्छी महान आत्माएं हमारी सहायता के लिए उपस्थित हो जातीं हैं, ये आत्माएं सदैव सत्य का साथ देतीं हैं।

    तो क्या बाबा, अब हम सरलता वनदेवी के पंखो को प्राप्त कर सकेंगे, उड़नछू ने पूछा।

 नहीं उड़नछू, ये आत्माएं केवल तंत्र शक्तियों को ही नष्ट कर सकतीं हैं, जादुई शक्तियों को नष्ट करने के लिए तो जादू का ही उपयोग करना होगा, बाबा अघोरनाथ बोले।

     आप उसकी चिंता ना करें बाबा, मुझे जितना भी जादू आता हैं, मैं उसे उपयोग में लाने का पूर्ण प्रयास करूंगा, राजकुमार सुवर्ण बोला।

     और तभी उस विभूति ने अपना प्रभाव दिखाना प्रारम्भ किया, उस विशाल वृक्ष के चारो ओर एक प्रकाश उभरा, जिसने उस अंधकार रात्रि को प्रकाशमय बना दिया, सबकी आंखे खुली की खुली रह गई और कुछ समय पश्चात् वो विभूति सारी तांत्रिक बांधाएं तोड़कर वायु मे अन्तर्ध्यान हो गई।

     अब सब वृक्ष के निकट जा सकते थे, अब सुवर्ण ने अपने जादू का उपयोग करना प्रारम्भ कर दिया, वो वहीं धरती पर बैठकर जादुई शक्तियों का मनन करने लगा और उसने उस वृक्ष के तने को अपनी जादुई शक्तियों द्वारा तोड़ दिया, इसी मध्य बकबक और उड़नछू उस बक्से को बाहर लेकर आए जिसमें शाकंभरी के पंख रखे हुए थे, अब उस जादुई बक्से के जादू को तोड़ने की बारी थीं, तब सुवर्ण ने एक बार पुनः अपने जादू का मनन किया और जादू के एक ही प्रहार से वो बक्सा टूट गया।

      तब बाबा अघोरनाथ ने उस बक्से वो जादुई पंख निकाले और शाकंभरी के पीछे जाकर लगा दिए, शाकंभरी खुशी से रो पड़ी और शीघ्र ही बाबा के चरण स्पर्श किए।

    और उसने सुवर्ण को भी धन्यवाद देते हुए कहा,

   धन्यवाद! राजकुमार सुवर्ण और सब की भी मैं कृपापात्र और आभारी हूँ, नीलकमल और सारन्धा भी शाकंभरी के गले लग पड़ी।

        पंख लगते ही शाकंभरी के भीतर एक नई ऊर्जा का प्रवाह होने लगा, वो अत्यधिक प्रसन्न थी कि अब उसे अपनी सारी शक्तियां पुनः प्राप्त हो चुकीं थीं, व़ह इतनी प्रसन्न थी कि अपनी भावनाएं उसने अपने अश्रुओं के साथ सबका आभार प्रकट करते हुए की परन्तु तभी शंखनाद वहाँ आ पहुंचा।

      शाकंभरी को ऐसे रूप मे देखकर क्रोध से पागल हो उठा और उसने अपने जादूई शक्तियों का प्रयोग करना प्रारंभ कर दिया।

   तब अघ़ोरनाध जी बोले, सुवर्ण और विक्रम तुम दोनों इसके निवास पर उड़ने वाले घोड़े से पहुंचो हम सब भी वहाँ शीघ्रता से पहुँचते हैं, आज रात्रि इसकी मृत्यु निश्चित हैं, वहाँ जाओ जहाँ इसके प्राण सुरक्षित हैं, तभी विक्रम और सुवर्ण शीघ्रता से घोड़े पर सवार हो चलें, इधर शंखनाद को अपने प्राण संकट मे पड़े हुए दिखे तो वो शीघ्रता से अपने निवास स्थान पहुँचने का प्रयास करने लगा किन्तु शाकंभरी ने इतना कड़ा प्रहार किया कि वो धरती पर जा गिरा, जैसे तैसे वो उठा हुआ और वायु में अन्तर्धान हो गया।

       सुवर्ण और विक्रम , शंखनाद के पूर्व ही शंखनाद के निवास स्थान पहुंच गए, शंखनाद ये देखकर क्रोध से अपने मस्तिष्क का संतुलन खो बैठा और अंधाधुंध अपने जादुई प्रहार से विक्रम और सुवर्ण को क्षति पहुंचाने का प्रयास करने लगा।

   परन्तु दोनों उड़ने वाले घोड़े पर सवार थे, इस प्रकार हर प्रहार रिक्त ही चला जाता, तब तक शाकंभरी भी उड़ते हुए, वहाँ आ पहुंची और उसने सुवर्ण और विक्रम से कहा , तुम लोग जलाशय की ओर जाओ, मैं इसे सम्भालती हूँ, बहुत बड़े बड़े अपराध किए हैं इसने, उन सब का उत्तर आज माँगूँगी।

      तब तक सभी आ पहुंचे और सभी ने शंखनाद के प्रहरियों पर प्रहार प्रारम्भ कर दिया, उड़नछू और बकबक, नीलकमल और सारन्धा, मानिकचंद और अघोरनाथ, विक्रम और सुवर्ण, सब अपनी अपनी जोड़ी के साथ थे, जैसी रणनीति बनी थीं, सब उसके अनुरूप ही अपना अपना कार्य कर रहे थे, एक एक करके सारे प्रहरियों की हत्या हो चुकी थी, सबकी तलवारें खून से लथपथ थी।

     तभी शंखनाद ने उड़ने वाले घोड़े पर अपना ऐसा जादुई प्रहार किया कि घोड़ा धरती पर जा गिरा, विक्रम और सुवर्ण मूर्छित होकर गिर पड़े।

    अब शंखनाद कुटिल हंसी हंसते हुए बोला___

  तुम जैसे तुच्छ प्राणी मुझे कोई भी हानि नहीं पहुंचा सकते, मैं पहले भी विजयी था और सदैव विजयी रहूँगा।

   अब शाकंभरी ने बकबक से कहा___

 बकबक! बाबा को घोड़े पर बैठाओ, हम शीघ्र ही जलाशय की ओर प्रस्थान करेंगे, आज शंखनाद का अंत निश्चित हैं, वो अनंतकाल के लिए आज निद्राअवस्था को प्राप्त होगा, आज इस पापी का मेरे हाथों ही अंत होगा।

    और शाकंभरी उड़ कर जलाशय के निकट पहुंची और अघोरनाथ और बकबक भी वहाँ शीघ्र ही पहुंच गए, अघोरनाथ जी ने शीघ्र ही अपने तंत्र विद्या से सारी बाधाएँ तोड़ दी, उधर सारन्धा और नीलकमल अपनी तलवार से शंखनाद पर निरन्तर प्रहार करती रही जिससे शाकंभरी और अघोरनाथ अपने अपने कार्य मे सफल हो सकें।

     और हुआ भी यही शाकंभरी अपने जादू से शंखनाद के जादू को विफल कर उस मूर्ति तक पहुंच गई और उस पत्थर के उल्लू को पूरे बल के साथ धरती पर पटक दिया जिससे उस उल्लू के टुकड़े टुकड़े हो गए, परन्तु शंखनाद को कुछ भी नहीं हुआ।

    तब शंखनाद हंसते हुए बोला, वनदेवी तुम्हारे पास अधूरी जानकारी थी, मेरी मृत्यु ऐसे नही होगी।

तब बाबा अघोरनाथ और बकबक ने शीघ्रता से शंखनाद को उड़ने वाले घोड़े पर बैठाया और वहाँ ले जाकर पटक दिया, जहाँ शंखनाद के माता पिता की समाधियां बनी थीं, उन पर गिरते ही शंखनाद भस्म मे परिवर्तित हो गया और इस प्रकार आज शंखनाद का अंत हो गया, बुराई चाहे कितनी भी बड़ी क्यों ना हो सच्चाई से कभी नहीं जीत सकती।

      शीघ्रता से शाकंभरी ने अपने जादू से सुवर्ण और विक्रम को स्वस्थ कर दिया, विक्रम को स्वस्थ देखकर सारन्धा, विक्रम के गले लग गई, ये देखकर सब हंसने लगें और सारन्धा पलकें नीची करके शरमाते हुए विक्रम से दूर हट गई।

         आज सब खुश थे, सबका प्रतिशोध पूर्ण हो चुका था, उड़न छू और बकबक अपने घोड़े के साथ अपने अपने राज्य लौट गए, नीलकमल और सुवर्ण ने विवाह कर लिया, सारन्धा और विक्रम का भी विवाह हो गया और मानिक चंद भी एक नाव मे सवार होकर अपने देश लौट गया, बाबा अघोरनाथ पुनः अपनी तपस्या में लीन हो गए और शाकंभरी वनदेवी पुनः अपने वन की सुरक्षा में लग गई।

   

     


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