प्रीत छुड़ाए ना छूटे
प्रीत छुड़ाए ना छूटे
पुरवा हवा के धीमें-धीमें झोकों को चीरते हुए, छतों पर बने घोसलों में से, कबूतरों का एक झुण्ड हल्के सफेद गुबारनुमा बादलों से झांकते हुए सौम्य सूरज की ओर उड़ चला।
सुबह होते ही शहर के कुछ सक्षम सीनियर सिटीजन्स भी आदतन अपने ढीले-ढाले खद्दर के कपड़ों में बाहर निकल आए थे ।
नए घाट पर गँगा आरती करते ब्राह्मण किशोरों ने वैदिक मंत्रों के मार्जन के बाद शंखों में प्राणवायु इस तरह फूंका कि शंखों के सनातन उदघोष कर्णपतल से होते हुए आत्मा में उतर आए।
ऊषाकाल में जब सूरज गँगा नदी के ऊपर आ रहा होता है तो इसकी ये नवपल्लवित किरणें गँगा की धारा को स्वर्णिम कर देती हैं। जान्ह्वी का यह रूप देखकर ऐसा लगता मानो सैकड़ो सोने की खदानों ने पिघलकर सरिता का रूप ले लिया हो ऐसी सरिता जो अपनी शीतलता से तन को विकार रहित कर दे ।
अब शहर में भी सुबह होने की झलक देखी जा सकती थी । पूरी-सब्जी , चने-मसाले , जलेबियाँ , इडली और भी कई तरह के सुबह के नाश्ते की चीज़ें दुकानों में सजाई जा रही थीं।
जलेबियाँ भले ही ईरान में पहली बार बनी हों लेकिन उत्तर भारत के बाकी शहरों की तरह यहाँ भी इसके चाहने वालों की कमी नहीं। जलेबी-दही ,जलेबी-चना ,जलेबी-पुरी और ना जाने कितने तरीके हैं इस रसभरी जलेबी के मधुमय सत्व को ग्रहण करने के । बिक्री के मामले में यह अन्य फैंसी मिठाइयों से कहीं ज़्यादा बिकती है ।
" भाई साहब , पावभर जलेबी पैक कर दीजिए । "
दुकान पर लोगों का तांता लगा हुआ था इसलिए मिस्टर अभिमन्यु ने थोड़ी तेज आवाज़ में हलवाई से कहा जो जलेबियाँ और कचौरियाँ छानकर बेच रहा था।
"अभी किए देता हूँ ...ये लीजिए " , ऐसा कहते हुए उसने अपने एक हाथ से कागज़ के ठोंगे में रखी जलेबियों को अभिमन्यु की ओर बढ़ाया और दूसरे हाथ से रुपए ले लिए।
अभिमन्यु जलेबी लेकर अपने अपार्टमेंट में आ गए । उनकी शादी के 15 बरस हो गए थे । पर अभी भी कोई उन्हें देखकर यह अंदाजा नहीं लगा सकता था कि वो मैरिड थे । अभिमन्यु का चेहरा लम्बा, भरा हुआ तथा पीत वर्ण का था । बाँए भौहें पर एक कट का निशान था जो उनको बचपन मे खेलते वक्त लग गया था । वो हमेशा क्लीन-शेव्ड रहते थे । लेकिन इस हप्ते काम मे कुछ व्यस्तता के कारण वे दाढ़ी नहीं बनवा सके थे । अभिमन्यु ने गणित में पोस्ट ग्रेजुएट थे ( अपने पहले ही प्रयास में इन्होंने CSIR क्वालिफाई कर लिया था)। वो शहर के ही एक नामी कॉलेज में असिस्टेंट प्रोफ़ेसर के पद पर कार्यरत थे । पर उन्हें गणित के उलझनों की शाखों के उलट कविताओं की सुलझी हुई डालियाँ ज़्यादा भाती थी । अगर वो गणित नहीं पढ़ा रहे होते तो एक जाने-माने कवि होते।
लेकिन नौकरी मिलने के बाद उन्हें अब पर्याप्त समय नहीं मिल पाता था कि वो अपनी लेखनी जारी रख सकें फिर भी कभी-कभी समय निकाल कर एकाध कविता लिख लेते थे ।
मिसिज़ अभिमन्यु ग्राम्य-सरलता की एक जीती-जागती मूरत थीं । सीधी-साधी , कम पढ़ी-लिखी , जवाब कम देने वाली और घर के काम मे एकदम आगे । यही सारे गुण देखकर अभिमन्यु की माता जी ने उन्हें अपने घर की बहू चुना था । अभिमन्यु अपने माता-पिता के इकलौते बेटे थे । अभिमन्यु ने बस अपने माता-पिता के लिए इस बेमेल रिश्ते को स्वीकारा था ।
मिसिज़ अभिमन्यु ( जिनका असली नाम वंदना था ) ने अपने तरफ से पूरी कोशिश की वो अपने पति की मुस्कराहट की वजह हो सकें। पर उनकी कोशिशें ज्यादा कामयाब नहीं हो सकीं।
शादी के सात सालों के बाद उन दोनों की ज़िंदगी मे अगर कुछ बदला था तो उसकी वजह थी अंशिका जिसे अभिमन्यु प्यार से अंशु कहते थे। अंशु सूरज से निकलने वाली रश्मियों को कहते हैं जिनसे जीवन का संचार होता इस मृद-जगत में । और उनकी प्यारी अंशु ने उनके बंजर मृद जीवन को कनक के समान उदीप्त कर दिया था । अंशु और उनका जीवन एक दूसरे का पूरक था । उन्हें अपनी बेटी से इतना ज्यादा स्नेह था कि छोटी अंशु की हर एक ज़िद पूरी की जाती थी। अंशु आठ बरस की नन्ही समझदार पापा की परी थी। अंशु अपने पिता की तरह ही गणित में अव्वल थी और गणितज्ञ बनना चाहती थी । ये तीनों जन एक तीन बेडरूम,अटैच्ड बाथरूम और किचन वाले फ्लैट मे रहते थे जिसमे एक अडिशनल डाइनिंगरूम भी था। अंशु ने एक छोटा क्यूट-सा पग (कुत्ते की एक नस्ल जो आकर में छोटे और जिनके शरीर पर झुर्रियों जैसी शिकन होती है जिनको आपने Hutch के ऐड में जरूर देखा होगा) पाल रखा था। जिसे अंशु Buddy कहकर बुलाती थी । Buddy और अंशु घण्टों काले सोफ़े पर लेटे रहते जब भी वीकेंड्स के दौरान अंशु घर पर रहती । तीनों में पापा और बेटी के बीच ही संवाद होता था। पिता ने जब अंशु को पहली बार देखा था तो उनके आँखों मे अनजानी नमी और चेहरे पर अनोखी मुस्कान थी ।
पच्चीस मिनट बीत जाने के बाद जब अभिमन्यु अपनी बिटिय की दुनियाँ से बाहर निकले तबतक जलेबियाँ कुछ ठंडी हो चली थी। शुक्र है ! मध्य जून में गर्मी इतनी होती है कि गर्म चीजें कुछ देर गर्म रहती हैं । उन्होंने जलेबी के लगभग सारे छत्ते लिए और Buddy को उसका डॉग फ़ूड देने के लिए पास के कबर्ड को हल्के हाथों से खोला । Buddy सुबह से उछल-कूद मचाए हुए था । अंशु की कमी उसे खल रही थी । पर उसे 10 दिनों का और इंतज़ार करना था अंशु और उसकी बातों के होने का जो वो बामुश्किल ही समझ पाता है।
अंशु और उसकी ममा आजकल इटावा में थी जहाँ अंशु का ननिहाल है वहां अंशु के ममेरे भाई की शादी होने को थी आज से 7वें दिन ।
गर्मियों में दिन की उमस से बेहाल लोग शाम के जल्दी होने की कामना करते हैं ।
अभिमन्यु भी मन-ही-मन यही मना रहे थे कि देखते ही देखते दिन का सूरज पश्चिम दिशा की ओर लौटते पंछियों के संघ अपने नीड़ में सो चुका था अगली सुबह के होने तक ।
अब सूरज की ग़ैरमौजूदगी में अभिमन्यु बालकनी में रखे आराम कुर्सी पर आ बैठे और अंग्रेजी अखबार के राष्ट्रीय समाचारों में कुछ देर तक खुद को उलझाए रहे । तभी उनकी नज़र एकाएक सामने वाले फ्लैट के बालकनी पर पड़ी ।
वही चेहरा,वही आँखे कुछ देर तक उन्हें लगा कि वो अपने किसी पुरानी याद में खोए हैं पर जब फीके-मलीन आसमाँ की ओर देखा तो उन्हें यकीं हो गया कि आज आसमाँ से चाँद नदारद है क्योंकि चाँद उनके सामने था और यह वही चाँद जो कभी अभिमन्यु के कलम की रोशनाई हुआ करता था । जिसके लिए उनका दिल धड़कता था । जिसे वो अपने वजूद का हिस्सा मानते थे ।
सामने कोई और नहीं उनकी आभा ही थी जो क्रिमसन-रेड साड़ी में कल्पना और मादकता की कोई अद्भुत समिश्रण लग रही थी । उसकी जुल्फें खुली हुईं थीं । आभा की हवा में लहराती उन जुल्फों ऐसी महक आ रही था जैसे रातरानी के फूल मध्य रात्रि से पहले खिल गए हों और सारा वातावरण उसके होने के एहसास से महक उठा हो। आभा ने अपनी शादी के पहले ही बरस में एक कार असिडेंट में अपने पति को खो दिया था फिर उसने दूसरी शादी नहीं की । आभा एक सेल्फ-डिपेंडेंट लड़की थी । उसने कभी अपने सपनों से समझौता नहीं किया। दो महीने पहले उसका ट्रान्सफर इलाहाबाद से इस शहर में हो गया। स्टेट बैंक ऑफ इंडिया के रतनपुरा ब्रांच में बतौर में कैशियर वो कार्यरत हुई ।
वो बैंक आती-जाती ,अधिकतर खाना बाहर से मंगा लेती और अकेले ही उसके तन्हा दिन-रात कट जाते । कभी-कभी शाम में अपनी माँ से बात कर लेती । अपने बेडरूम से कम ही बाहर निकलती थी । उसकी ज़िन्दगी बड़ी मकैनिकल हो गई थी । उसकी ज़िन्दगी में ज़िन्दगी का नाम-ओ- निशान तक नहीं बचा था ।
पर जब उसने अभिमन्यु को देखा तो उसकी बुझती ज़िंदगी का दीया फिर से रोशन हो गया।
दोनों ने जब एक-दूसरे वर्षों बाद ऐसे देखा तो ऐसा लगा कि अश्क दोनों के बस आंखों से छूट ही जाएंगे पर दोनों ने उन मोतियों को तब तक संभाले रखा जब तक वे दोनों अपने-अपने चाहर-दीवारी तक नही पहुँच गए। दोनों एक-दूसरे से बहुत कुछ पूछना चाहते थे , बहुत कुछ बताना चाहते थे पर कृष्ण पक्ष की निशा सामने आ खड़ी थी । रात के 8 बजने को थे । दोनों अपने भारी आँखों के साथ वहाँ से अपने-अपने बेडरूम्स में चले गए ।
दोनों की रात बहुत बड़ी हो गई थी ।बीते हुए कल में सोयी हुई वो सारी यादे एक-एक करके जाग्रत हो रही थीं। दोनों एक-दूसरे से मिलने को ऐसे बेचैन थे जैसे बाढ़ के पानी से उफनती नदी के किनारों पर फसें दो हंसों के जोड़े । दोनों की रात एक-दूसरे खाबों में बीते थे।
उसदिन सुबह नई मालूम होती थी । अभिमन्यु के चेहरे पर यह चमक 15 बरस से ग़ायब थी । अभिमन्यु दोपहर से पहले अपने सारे ऑफिसियल काम निपटाकर अपने विश्राम स्थान वापिस आ गए । उधर आभा बैंक के काम में तीन बजे तक बिज़ी रही । वहाँ से निकलकर वो बाज़ार की ओर बढ़ी ; सब्जीवाले से एक छोटे साइज़ का कटहल , टमाटर और मिर्च खरीद ही रही थी कि अभिमन्यु भी वहाँ पर आ गए । दोनों ने एक-दूसरे इग्नोर नहीं किया । पूरे आंखों से बीते सालों में एक-दूसरे के चेहरे पर आई तब्दीलियों को देखते रहे ।
"कैसी हो ?" , अभिमन्यु ने ऐसा पूछते वक्त अपने धड़कनों की गति में कुछ तेजी महसूस की।
"मैं तो अच्छी हूँ । और " तुम ?"
आभा ने हल्की मुस्कान के साथ जवाब दिया और अपेक्षा की कि प्रतिउत्तर भी वैसा ही आएगा ।
अभिमन्यु ने मुरझाए हुए चेहरे के साथ ,
" मैं भी ठीक ही हूँ " ऐसा अपने ज़ुबाँ से निकाला।
" मेरे हाथ से बनी कटहल की सब्जी खाओगे ?" मुझे अकेले डिनर करने का मन नहीं करता...
तुम रहोगे तो मुझे अच्छा लगेगा ।
"हाँ ! आ जाऊँगा" ...
दोनों ने एक-दूसरे से विदा लिया और अपने-अपने वाहनों से अपने अपार्टमेंट की ओर चल दिए ।
शाम होने ही को थी। रात के अंधेरे ने महकती शाम को अपने आग़ोश में लेने की कोशिशें शुरू कर दी थीं । आसमाँ पर बादल ना जाने कहाँ से आ गए थे। पुरवा के ठण्डे झोंके जिस्म को छूछूकर उन आसपास की बहुमंजिली इमारतों में छुप जाते थे और फिर अचानक बालकनी के मनीप्लांट की कुम्हलाते लताओं को छेड़ जाते थे।
अभिमन्यु अपनी फ़ेवरिट सफ़ेद शर्ट और ब्लैक ट्राउज़र्स पर हल्का कसा हुआ लेदर का बेल्ट पहनकर आभा के फ्लैट की ओर बढ़ चले ...
दरवाजे की दाईं ओर 'आभा वशिष्ट' लार्ज रोमन अल्फाबेट में एक लकड़ी के नेमप्लेट पर गुदा था जिसके नीचे 'कैशियर, रतनपुरा ब्रांच भी नाम के सफलता का स्टेटस बता रहा था।अभिमन्यु ने डोरबेल बजाई । दरवाजा थोड़ी ही देर में खुल गया ।
T.V. पर फाल्गुनी पाठक का वो हिट गाना , सावन में मोरनी बनके नाचूँ ...., चल रहा था जो आभा को बहुत ही अच्छा लगता था। अभिमन्यु बाहरी कमरे से ड्राइंगरूम में हल्के कदमों के साथ दाख़िल हुए । उसका रूम सफेद चमक रहा था । एक छोटी अलमारी जो के बाईं ओर स्तिथ थी उसमें कुछ किताबें और मैगज़ीन्स रखी हुई थीं । एक मरून रंग का बड़ा couch दरवाजे ठीक बगल में था और तीन सोफे भी उसके अगल-बगल रखे हुए थे । रूम की खिड़की जो खुली हुई थी अपनी दोनों बाहें पसारे पुरवा के थपेड़ों को चुपचाप सह रही थी । आभा ने अभिमन्यु को couch पर बैठने को कहा ।
और मैं बस अभी आई " ऐसा कहकर वो किचन की ओर भागी और उधर से एक ट्रे में लीची का जूस एक काँच के ग्लास में भरकर ले आई और अपने लिए शाम के ग्रीनटी का पारदर्शी कप वहीं टेबल से उठा लिया ।
दोनों सिप-बाई-सिप अपने-अपने जूस और चाय को फिनिश कर चुके थे । अभिमन्यु को लीची का जूस उन दिनों बहुत पसन्द था पर आभा से बिछड़ने के 15 बरस बाद पहली बार उसने लीची के जूस को लबों से लगाया था।
आभा के बाद उनकी ज़िन्दगी कितनी वीरान हो गई थी । वह मन ही मन ऐसा सोच रहे थे ।
"तो इतने बरस क्या किया तुमने ?"
आभा ने जिज्ञासा भरी नज़रो से पूछा जिससे उसके भौहें थोड़े ऊपर उठ गए ।
"मैं असिसटेंट प्रोफेसर हो गया और बस ज़िन्दगी कट रही है । आज 40 बरस का होने का हूँ ।"
"अब भी लिखते हो ?"
"कभी-कभी लिख लेता हूँ"
" वो इश्क़ करते रहते हैं बिछड़कर भी
नज़दियों भर से इश्क़ गहरा नहीं होता ..."
ये शेर बोल कर आभा ने एक गुमाँ से कहा तुम क्या लिखते थे तुम उन दिनों ! मैं इन्ही नज़्मों-ग़ज़लों के कारण तुम्हारे करीब आई थी ।
" अब तुम्हारी दाढ़ी तो सफेद हो रही है , तुम बूढ़े हो रहे हो !"
थोड़े मसखरे अंदाज में आभा ने हल्की हँसी के साथ ये बात कही।
"बूढ़ा तो जिस्म होता है रूह पर एक भी सिलवटे खोजकर दिखा दो । "
और दोनों खिलखिलाकर हँस दिए । ऐसा लगा वे दोनों पन्द्रह बरस पीछे चले गए हों। उन दिनों में जब वे दोनों एक साथ थे। ज़िन्दगी बड़ी हसीन हुआ करती थी उन दिनों । इश्क़ ने दोनों में उत्साह और कर्मठता का संचार कर दिया था । दोनों अपने-अपने विषयों में अव्वल आए थे । उन्हें कभी नहीं लगा था कि वे दोनों कभी जुदा भी होंगे। नियति में क्या लिखा है ये कोई ज्योतिष या बाबा नहीं बता सकता।
दोनों ने एक दूसरे के बीते पन्द्रह वर्षों को करीब से जाना । अभिमन्यु ने जब अंशु का ज़िक्र किया तो आभा के चेहरे एक अजीब से खुशी थी ।
उसे भी एक ऐसी बेटी चाहिए थी बिल्कुल अंशु की तरह ।
दोनों ने रात का डिनर किया लगभग साढ़े नौ बजे। मीठे में आभा ने खीर परोसा जिसमे केसर के रेशों ने खीर को थोड़ा गहरा रंग दे दिया था । खीर का सात्विक सुगन्ध पूरे कमरे में फैल रहा था । आभा सामने की कुर्सी से उठकर उसके करीब आ गई और उसके कटोरी को बचे हुए खीर से भरने लगी ।
"बस,बस रहने भी दो ; मेरा पेट भर गया है ।"
"उन दिनों तो खीर तुम्हें इतनी पसन्द थी कि मेरा हिस्सा भी छीनकर खा जाते थे आज कहीं तुम खाने में शर्मा तो नहीं रहे न?"
अभिमन्यु की नज़रें एकाएक आभा पर पड़ीं ।
आभा की दरया सरीखी ऑंखें भी अभिमन्यु की आँखों मे खो गईं ।
बाहर पुरवा हवा और भी तेज़ हो चली थी और बारिश की छोटी-छोटी बूंदे छत को चुम रही थीं और छत के दिन-भर के तपिश को मिटा रही थीं। अब दोनों के लब काँप रहे थे और उनके दिल में उमड़ती-गुनगुनाती इश्क़ की लहरें साहिल तलाश कर रही थीं । दोनों ने लबों के सहारे एक दूसरे के रूहों को चूम लिया। दोनों एक दूसरे में ऐसे लीन थे जैसे अलकनंदा के तट के करीब अर्धनग्न भगवे वसन में एक बूढा सन्यासी परमात्मा में लीन हो और परमात्मा उस बूढ़े सन्यासी में ।
तभी एकाएक अभिमन्यु की आंखे खुली और उसे लगा कि वन्दना उसके करीब हो। आभा का वो चेहरा , उससे रिसता वो प्रेमरस सब वन्दना के जैसा लग रहा था । उसकी आँखों ने नहीं उसके मन ने उसे धोखा दिया था ।
शादी के बाद अभिमन्यु ने वन्दना के प्रेम की सर्वदा उपेक्षा की । उसके बातों का कभी सीधे जवाब नहीं दिया । उससे प्रेम से दो बातें नहीं की । या कहे उसे कभी प्रेम ही नहीं किया ।
अभिमन्यु के मन में न जाने क्या आया ; वे उठे ; आभा को थैंक्स कहा और अपने फ़्लैट की ओर बढ़ चले । आभा अचम्भे से अभिमन्यु के इस बर्ताव को देख रही थी ।
गली में कुछ कुत्ते ऊ...ऊऊ और साथ ही साथ कुछ बौ,बौ कर रहे थे । झींगुरों ने अपना बैंकग्राउंड स्कोर शाम से ही धीमे स्वर में जारी रखा था । बेडरूम में घड़ी की टिक-टिक की आवाज़ उनके ज़हस से गायब हो गई थी ।
रात भर उन्हें नींद नहीं आई थी । वन्दना का ख़्याल उन्हें बार-बार आ रहा था । वन्दना की वो कम बोलने की आदत उन्हें ज़्यादा पसन्द तो नहीं थी फिर भी उससे फ़र्क क्या पड़ता था।
इश्क़ होने के लिए बस ये दो नैना ही काफ़ी हैं । एक लफ्ज़ भी ना निकले ज़ुबाँ से और सारी बातें भी हो जाए । ऐसा ही तो होता है इश्क़ ।
उन्होंने शायद नियति के इस फेरबदल को अब समझ लिया था । उन्हें तो बस इंतज़ार था अगले 10 दिनों के बीतने का और नई सुबह के होने का ...