प्रेम में हार
प्रेम में हार
"ऐसा कैसे हो सकता है कि तुम्हारे सामने इतनी बातें हों, खुलकर अपनी भावनाओं को रखूँ और तुम्हें कोई असर ही न हो ?"थोड़ी खीझ के साथ रमण ने माया को झकझोरते हुए कहा। माया ने पहले स्वयं को सम्भाला, अपने कपड़ो को सहेजा, सरक आये आँचल को ढंग से व्यवस्थित की और मुस्करा कर बोली, "मि.रमण सक्सेना, यह तुम्हारी समझ से परे की बातें हैं। तुम इसमें अपना दिमाग ना ही लगाओ तो अच्छा है। "रमण को माया का ऐसे चुनौती देना अच्छा नहीं लगा, परन्तु उसकी मुस्कान की नजाकत को बनाये रखने के लिए हँस पड़ा। माया की मुस्कान में थोड़ी कुटिलता है और उसने प्यार से रमण को देखा, "यह क्या कम है रमण कि जब बुलाते हो, चली आती हूँ, जो बोलते हो, सुनती रहती हूँ और तुम्हारी सारी हरकतें झेलती रहती हूँ। "हरकतें, "कहते हुए माया का मन हल्का सा तिक्त हुआ जिसे उसने शीघ्र ही नियन्त्रित कर लिया। दरअसल उम्र में कई साल बड़ा होने के बावजूद रमण में बचपना और अधीरता है। माया को छेड़ता रहता है। माया इसके लिए खुले तौर पर हमेशा विरोध करती है, अपनी नाखुशी जाहिर करती है और उलाहना के दो-चार तीर जरुर छोड़ती है। साथ ही रमण को उसका मनचाहा बोलने भी देती है और मुस्कराती रहती है। वह समझ चुकी है कि रमण दिल का बुरा नहीं है।
रमण कभी खूब खुश होता है और जोश में आकर बोलने लगता है। माया चुपचाप निहारती रहती है। जब रमण के शब्द, वाक्य चुकने लगते हैं तो वह माया की प्रतिक्रिया के लिए देखता है। उसे निराशा हाथ लगती है और खीझ उठता है। माया मुस्कराती है, "क्यों अपनी उर्जा ऐसे जाया करते रहते हो ?"
रमण उठना चाहता है और भाग जाना चाहता है वहाँ, जहाँ कोई शोर ना हो। उसे यहाँ कोलाहल महसूस होता है और मन में बेचैनी। माया उसे बैठा लेती है, "बाहर के कोलाहल से तुम भाग सकते हो परन्तु भीतर के कोलाहल से कैसे भाग सकोगे ?"
रमण धीरे से कहता है, "तुम ठीक कहती हो। "
माया याद करती है कि कैसे वह रमण को पसन्द करने लगी, कैसे उसने इसका लाभ उठाया और सारा सन्दर्भ ही बदलता गया। माया ने मन ही मन कहा, "मुझे शुरु में ही रोकना चाहिए था। "उसे हँसी आयी, "कैसे रोकती ?उसका बोलना, बातें करना अच्छा लगता था। उसका चीजों को प्रस्तुत करने का अलग अंदाज है जिसकी वह कायल होती गयी। ऐसे में उसने शातिराना तरीके से मेरा सबकुछ जान लिया। मैं बताती चली गयी। सच कहूँ तो मैंने अपना सबकुछ खोल कर रख दिया। शायद इसी तरह उसे प्रोत्साहन मिला और उसने अन्तरंग होकर वह सब पूछ लिया जो नहीं पूछना चाहिए था। मैंने क्यों नहीं रोका उसे ऐसा पूछने से, ऐसी बातें करने से और मैंने स्वयं को क्यों नहीं रोका उसका उत्तर देने से ?"
अब वह मेरा कहा मानता नहीं है। उसे विश्वास नहीं होता और मेरी हर बात को असम्भव कहता है। मुझे गुस्सा आता है उसपर, फिर अपने आप पर। मैं कहती हूँ, "मैं वैसी नहीं हूँ कि तुम जो कहो, मान लूँगी। "
वह ठहाका मारकर हँसता है। मेरा मन दुखी हो उठता है। तत्काल पूछ लेता है."तुम नाराज हो क्या माया ?"
"नहीं, " सच्चाई बोल देती हूं। "हो भी सकती हूँ, "थोड़ा रुककर कहती हूँ। इस कथन में वह जोर नहीं दिखता मानो मैं अपने आप से भी झूठ बोल रही हूँ।
"हो भी कैसे सकती हो ?"पूरे अधिकार से मुस्कराता है और फिर अपनी हरकतों पर उतर आता है।
अक्सर उसके स्वभाव में खिलंदड़ापन दिखता है, वही बालसुलभ चंचलता और जोश। हमेशा उम्मीद करती हूँ कि हम गम्भीरता से बातें करें। हँस देता है, "मुझमें वह है ही नहीं। "किसी दिन मैं बहुत उत्तेजित होने लगी तो उसने साफ कह दिया, "धैर्य तुम्हें ही रखना पड़ेगा और साथ देना होगा। "उसने मेरी आँखों में झाँक कर कहा, "सच्चा प्रेमी हूँ, छोड़ दोगी तो तुम्हें ही पछताना पड़ेगा। "
पता नहीं क्यों, तब से मैंने अपनी सहनशक्ति बढ़ा ली है और उसकी हरकतों को खुश होकर झेलना सीख लिया है। मुझे पूरा भरोसा है कि शादी के बाद कभी भी मुझे चैन से सोने नहीं देगा। मैंने बारहा उससे कहा है कि मुझे यह सब पसन्द नहीं है। मानने को तैयार ही नहीं। बहुतों की यह समस्या है-जो उन्हें पसन्द है, समझते हैं कि सबको वही पसन्द है।
माया खीझ उठती है, "तुम कोई और बात नहीं कर सकते ? या इसके अलावा कोई विषय नहीं है जिसमें तुमने थेसिस लिख डाली हो ?"
"तुम्हारे सिस्टम में ही कोई गड़बड़ी है वरना इससे अच्छा विषय कोई हो ही नहीं सकता। प्यार करना, प्यार पाना और प्यार में रहना सभी चाहते हैं। इसके लिए पढ़ना या ना पढ़ना, सब बराबर है। "
माया की समझ में नहीं आता तो रमण हँसता है, "तुम्हें तब समझ में आयेगा जब ये दिन हाथ से निकल चुके होंगे और कोई भी प्यार की नजर नहीं उठेगी। "
"फिर भी, "माया विरोध करना चाहती है।
रमण गम्भीर होता है, "तुम कहती हो चौबीसों घण्टे। कितनी देर मिलती हो मुझसे ?घण्टे दो घण्टे की मुलाकात में क्या बातें करूँ ?खाना-पीना, सोना-जागना होता रहता है। तुम्हारी जिम्मेदारियाँ, मेरी जिम्मेदारियाँ सब चलती रहेंगी। मैं चाहता हूँ कि इस समय में दिल की बातें हों, वो बातें हों जो तुम चाहती हो, मैं चाहता हूँ। वो बातें जो हम किसी दूसरे से नहीं कर सकते। "
"मैं ऐसा नहीं कर सकती, "माया भी गम्भीर हो उठती है, "तुम सबकुछ खेल समझते हो और हास्यास्पद बना देते हो। कभी तो गम्भीरता समझो। "
रमण चुप है। माया भी चुप है। बरसात होने के पहले वाली उमस है। दोनो तेजी से सोच रहे हैं। कोई निर्णय लेना चाहते हैं। ले नहीं पा रहे हैं।
माया जाने को तैयार है। हर बार की तरह रमण रोकता नहीं। उसे जाने देता है और कहता है, "खुश रहना। "माया उसकी भावुकता समझती है।
माया कई बार कह चुकी है, " रमण तुम हमेशा भावनात्मक रुप से प्रभावित करते हो और मैं कुछ भी कह नहीं पाती। "
हर बार की तरह माया पीछे मुड़कर नहीं देखती। आगे बढ़ती जाती है। उसके कदम आत्म-विश्वास से भरे हैं।
सबसे पहले उसने फेसबुक में रमण के खाते को बंद कर दिया और मोबाईल से भी उसका नम्बर मिटा दिया। उसकी आँखें भर आयीं। मन हल्का हुआ मानो दिल पर पड़ा बोझ उतर गया है। खुश हुई माया, "प्यार में हारी नहीं है वह, वल्कि उसकी जीत हुई है। यादें तो रहेंगी, यादों का क्या ? संतोष हुआ कि खूबसूरत मोड़ पर अलग हुई है।
