पहली याद

पहली याद

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अनजान शहर में एक अनजान मिला। मिला भी तो कुछ यूं मिला के अब अनजान राहें अनजान न रही। न अनजान रही वो बरसात जिसमें दो अजनबी सर से पैरों तक तर हो चुके थे। अजब ही था कुछ के तरबदर खड़ी मैं अपने बस्ते को सीने से लगाए 'यूनिवर्सटी' की बालकनी में बस उसे देखती रही और इतनी मशरुफ हो गई के उसने जब हाथ दिखाकर 'हाय' कहा तो मैनें नज़र फेर ली।

वो मेरे नज़दीक आकर खड़ा हुआ और अपना दायां हाथ से बारिश की बूदें महसूस करने लगा। चाहकर भी मेरी नज़र उससे हट नही रही थी। कुछ बूदें उसकी हथेली से होकर उसकी बाजुओं पर सरक जाती। नये शहर की हवा पुरानी सहेली की तरह मुझसे यूं लिपटी, के दातं किडकिडाने लगे। उसकी नज़र मुझ पर थमी और थमकर कई सवाल करने लगी और मेरी डगमगाती मुस्कुराहट उनके जबाव।

सवाल-जवाब चल ही रहे थे के बारिश धीमी पड़ने लगी और सड़क के उस तरफ लगा चाय के ठेले की खुशबू मेरे मन को उन्मुक्त। टूटे हुए किसी दरवाजे़ के पल्ले से बना बैंच जिसे ईंट सहारा देकर टिकाए हुए थी, हमारी राह देख रहा था। महज़ कुछ सिक्कों की वो चाय मुझे अनजान शहर में मेरी अपनी लगी। चाय की चुसकी के साथ कुछ सवाल जवाब फिर हुए मानों आज़ लफ़ज खुद अनजान हो इस एहसास से। ठेले के पीछे टंगे गत्ते पर गहरे नीले रंग से लिखे "लवरस्-पॉंंइटं" से मुझे शहर की पहली याद मिल गई।


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