पानीघटा

पानीघटा

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पानीघटा नाम से आप सब लोगों को लग रहा होगा कि मैं आप सबको बारिश की बूंदो, मानसून, आषाढ़, सावन आदि के बारे में बता रही हूँ पर नहीं यहाँ पानीघटा मेरे बचपन की सुनहरी यादों से भरा हुआ एक छोटा सा कस्बा है। यह 'पश्चिम बंगाल' में सिलीगुड़ी से लगता हुआ एक छोटा सा चाय बागान है। हिमालय की तलहटी में बसा होने के कारण तराई क्षेत्र है। वर्षा अधिक होने के कारण यहाँ चाय की पैदावार अच्छी होती है। हो सकता है वर्षा की अधिकता के कारण ही यहाँ का नाम पानीघटा पड़ा हो। वर्षा की हर एक बूंद अपने आप में हरियाली ही तो बोती है। इसी कारण यहाँ प्रकृति ने चहुं ओर अपनी सुंदरता का खजाना लुटाने में कोई कमी नहीं छोड़ी है। यहाँ से कंचनजंघा की चोटियाँ स्पष्ट दिखती हैं। इसी कारण यहाँ से अरुणोदय को स्पष्ट देखा जा सकता है।

कुछ दिन पहले सिलीगुड़ी एक शादी में जाने का अवसर मिला मैंने तुरंत ही जाने की टिकट यह सोच कर करवा ली कि चलो इसी बहाने नानी का पुराना घर भी देख आउंगी। जैसे ही मैं फ्लाइट में बैठी लगा कि आज देश में यातायात के साधनों में विस्तार के कारण ही यह दूरी केवल 2 घंटे में पूरी हो जाएगी, जिसे नापने में हमें रेलगाड़ी में पूरे 3 दिन लग जाया करते थे और अब 3 दिन बाद मैं वापस देहरादून भी आ जाउंगी। नानी के घर जाने की हमारी तैयारी एक माह पहले ही शुरू हो जाती थी। वैसे भी उस समय के बच्चों में नानी के घर जाने का एक अलग ही उत्साह होता था। यह सब सोचते-सोचते "कृपया अपनी कुर्सी की पेटी बांध लें" यह अनाउंसमेंट भी हो गई। शादी के घर में पहुंच कर जैसे ही मुझे शादी के कार्यक्रमों से समय मिला। मैं पानीघटा घूमने के लिए निकल पड़ी।

वहाँ पहुंचकर मेरी स्मृतियों का गांव दूर-दूर तक नज़र ना आया। सोचा था बगैर किसी की मदद के घर तक पहुंच जाऊंगी मगर, यह संभव होता दिखाई न दिया। मिट्टी के घरों का स्थान पक्के घरों ने ले लिया था। सरकारी अस्पताल की स्वच्छता प्राइवेट अस्पतालों को मुंह चिढ़ा रही थी। उस समय का प्राइमरी स्कूल अब उच्च माध्यमिक विद्यालय बन चुका था। पहचानना मुश्किल हो रहा था कि यह गांव है अथवा कस्बा या मिनी शहर। रहन-सहन, पहनावे, बात-विचार, भाषा-बोली, गीत-संगीत सब में बदलाव दिखलाई पड़ रहा था। वहाँ के लोग शिक्षित होकर उच्च पदों को सुशोभित करने लगे थे। पहले लगा था कि घर तक अपने आप पहुँच जाउंगी पर वहाँ का परिवर्तन देख कर लगा नहीं कि मैं पहुँच पाऊंगी अतः एक व्यक्ति से पूछा कि "बड़ी कोठी का रास्ता कौन सा है?" उसका प्रत्युत्तर सुनकर मैं हैरान रह गई, उसने कहा "कौन सी बड़ी कोठी साहब थोड़ा आगे जाइए, आगे सब बड़ी बड़ी क्षण ही हैं।" थोड़ा आगे बढ़ने पर मैंने देखा कि वहाँ की भूमि अब धीरे-धीरे अपनी प्राकृतिक सुषमा खोने की पुरजोर कोशिश कर रही है। ऐसा लगा जैसे बरगद की उल्टी लटकती जड़ों ने उल्टे अशोक को बड़े शोक के साथ अपनी विरासत सौंप दी हो। नये बनते घरों के लॉन में अशोक वृक्ष शोभा पा रहे थे। जल्द ही पूरी तरह कंक्रीट के जंगल में बदल जाने की इनकी आतुरता देखते ही बन रही थी। वहाँ की चौड़ी होती सड़कों, अपार्टमेंटों ने ना जाने कितने ही पेड़ों की बली ले ली होगी जिसकी कोई गिनती नहीं। बड़े-बड़े अपार्टमेंट के बीच में नानी की बड़ी कोठी भी छोटी सी ही लग रही थी। किसी से पता चला कि कोई बगांली रहने आए हैं। कोठी के अंदर जामुन, लीची, आम, कटहल के पेड़ काटकर बैडमिंटन खेलने के लिए जगह समतल कर दी गई थी। दूर से ही पेड़ो को कटा देख कर अंदर जाने का मन नहीं हुआ पर मन में इसे देखने की बेचैनी भी थी। मैं घर के पिछली तरफ गई तो देखा गौशाला की जगह फैक्ट्री की लेबर के क्वाटर बन गए थे। इतने में गृह स्वामी ने शायद मुझे देख लिया था, वे पूछने लगे कि आपको किसी से मिलना है क्या तब मैने उन्हे पूरी बात बताई सुनते ही वे मुझे घर अंदर से दिखाने ले गए। भीतर पूजा के कमरे के स्थान पर पुस्तकालय बना दिया गया था। बाकी सभी कमरों का रख-रखाव भी बंगाली तरीके से किया गया था। रसोई घर में शायद मच्छी भात पक रहा था। उन्होने मुझ पर चाय पीने के लिए काफी दवाब डाला किन्तु मैं व्रत का बहाना करके वहाँ से निकलने लगी, इतने में मेरी नज़र तुलसी के पेड़ पर पड़ी मुझे तुलसी जी को इस तरह निहारते देख कर मकान मालिक बोले "यह बहुत पुरना है हम इस को कटाया नई है आपको मंगता तो आम (हम) इसका पौधा आपको देता।" तुलसी का वो पौधा मेरे लिए नानी का आशीर्वाद था।

इसके बाद मैं अपनी पसंदीदा जगह झूलापुल के लिए निकली वहाँ मैंने देखा कि झूलापुल का स्थान ओवरब्रिज ने ले लिया है झूलापुल दूधवा व मिरिक जाते समय रास्ते में बालासन नदी के किनारे की एक जगह थी। यहाँ मैं अक्सर आया करती थी। यहाँ घंटो तक पुल पर हम सभी मौसरे भाई बहन खेला करते थे। यहाँ पर नदी का पानी तो नाम मात्र को ही रह गया था। उसके स्थान पर प्लास्टिक का कचरा ज्यादा हो गया था। पर वहाँ एक काफी बड़ा वॉटर पार्क ज़रूर खुल गया था। जिसमें बहुत से सैलानी आकर छुट्टी मना रहे थे।


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