नाव का धर्म

नाव का धर्म

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रात के सारे काम जल्दी-जल्दी निबटा कर, बच्चों को उनके कमरे में सुला दीदी मेरे साथ ही बिस्तर में लेट गयी।

“तेरे जीजू दो दिन के लिए बाहर गए हैं।” फोन पर दीदी, ऐसे ही मुझे रुकने के लिए बुलाती थी।

हल्की सी रजाई ओढ़े, हम दोनों अपने-अपने मोबाइल में गुम थे। दीदी के मोबाइल की रोशनी में मेरी नज़र उनके चेहरे पर गयी। कितनी बदल सी गयी हैं !

“दी, तुम्हें याद है ! छोटे पर, एक बार ,जब मम्मी और हम दोनों मार्किट गए थे। ऑटो वाले ने तुम्हें लड़का समझ, पीछे लटक जाने को कहा था।” बोलते-बोलते मैं जोश में उठ के बैठ गयी थी। आज दी को देख अचानक ही मुझे याद आ गया था।

हाँ, और फिर मैंने उसकी जमकर क्लास ली थी।” इतनी देर बाद, दी के चेहरे पर पहले जैसी चमक दिखी थी।

“और एक दिन जब मेरे स्कूल के लड़के…याद है ना तुम्हें ? स्कूटी पर तुम्हारे पीछे बैठी थी मैं ! वे लोग, तुम्हें मेरा बॉयफ्रेंड समझ तुम्हें ही परेशान करने आ रहे थे तब ..” मेरी टॉम बॉय टाइप दी के साथ अक्सर लोग ऐसी गलतियाँ कर बैठते थे। “ अच्छा ! तेरी क्लास का वो गैंग ...हा हा..अभी भी मुझे याद करता होगा अपने गालों को सहलाता हुआ।” दी के चेहरे की मुस्कराहट , मैंने जल्दी से अपने मन के कैमरे में क़ैद कर ली। ऐसे मौके यूँ ही नहीं ज़ाया किया करते।

“दी, तुम क्यों हो गयी हो ऐसी ?” मेरे इस प्रश्न ने उनकी हँसी उड़ा दी। “जीजू के रवैए को क्यों सहती हो ? कब तक चलेगा ऐसे ?” प्रश्नों की बौछार सी बरस गयी।

“नीमू, तुझे मम्मी की एक बात याद है ? वह अक्सर कहती थी जब कोई व्यक्ति अंदर से परेशान और बीमार होता है तब वह इस तरह गुस्सा और चीखने चिल्लाने जैसा व्यवहार करता है। दूसरों को नीचा दिखाता है।”

“तेरे जीजू भी शायद अंदर से बीमार और परेशान हैं। मैं बस उनके ठीक होने का इंतजार कर रही हूँ। और बस यही सोच ,उनकी सेवा में जी जान से लगी हूँ।” दीदी ,अपनी ही रौ में बोले जा रही थीं।

मोबाइल की कम रोशनी में भी, माँ की झलक, दीदी में साफ दिख रही थी।

हमेशा की तरह, समस्याओं से जूझती, मज़बूत सी दीवार बनी अपनी दीदी की पुरानी सूरत आज कुछ जानी पहचानी सी लगी।


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