STORYMIRROR

हरि शंकर गोयल "श्री हरि"

Tragedy Classics Inspirational

4  

हरि शंकर गोयल "श्री हरि"

Tragedy Classics Inspirational

नारी तू नारायणी : भाग 3

नारी तू नारायणी : भाग 3

8 mins
383

मोहन भाईसाहब की बीमारी की खबर जंगल में आग की तरह फैल गई। उनका कुशल क्षेम जानने के लिए सब नाते रिश्तेदार आने लगे। वह समय बहुत कठिन था। एक एक पल भारी पड़ रहा था। हम भी उन्हें देखने के लिए अस्पताल पहुंचे थे। वह बड़ा हृदय विदारक दृश्य था। मोहन भाईसाहब कोमा में थे और उनके बचने की रत्ती भर भी उम्मीद नहीं थी। डॉक्टर भी नाउम्मीद हो गये थे। वे लोग अपना किताबी ज्ञान और अनुभव दोनों काम में ले चुके थे पर मोहन भाईसाहब की हालत पर कोई असर नहीं हो रहा था। डॉक्टर बता रहे थे कि कोई दवाई "रिएक्शन" कर गई है। उस दिन पहली बार पता चला कि दवाई किसी की जान बचाती ही नहीं है बल्कि जान लेती भी है। एक गलत निर्णय जिस तरह जीवन बदल सकता है उसी तरह एक गलत दवाई जान लेवा भी हो सकती है। कमी चाहे डॉक्टर के ज्ञान की हो या दवाई बनाने वाली कंपनी की, भुगतना तो मरीज और उसके परिजनों को ही पड़ता है।

सब लोगों के चेहरे उतरे हुए थे। निराशा का अंधकार फैला हुआ था और दूर दूर तक आशा की कोई किरण नजर नहीं आ रही थी। अस्पताल के सारे समाचार गांव में नहीं बताये गये थे। उन्हें बस इतना ही बताया गया था कि हालत में दिनों दिन सुधार हो रहा है। वसुधा भाभी ने "महामृत्युंजय मंत्र जाप" शुरू कर दिया था। यह जाप पूरे तीन दिन तक चला था। तीन दिन तक उन्होंने अन्न जल ग्रहण किये बिना यह जाप किया था। नारी की शक्ति का अनुमान कौन लगा सकता है। उसे केवल महसूस किया जा सकता है। हमने कभी बचपन में "सत्यवान और सावित्री" की कहानी सुनी थी जिसमें सावित्री अपने पति सत्यवान की मृत्यु होने पर यमराज के पीछे पीछे चल दी थी और अपने पति को जीवित करा कर ही वापिस लौटी थी। वसुधा भाभी के महामृत्युंजय मंत्र का ही असर होगा शायद कि मोहन भाईसाहब ने आठवें दिन आंखें खोल दी थीं। सबके चेहरों पर जैसे जान आ गयी थी। गर्ग खानदान का इकलौता बेटा था इसलिए सबने उसके लिए भरपूर दुआऐं की थीं। कहते हैं कि जब दवा काम नहीं करे तो दुआ काम करती है। शायद सभी की दुआऐं काम कर गईं और वसुधा भाभी फिर से सावित्री की तरह मोहन भाईसाहब को यमराज जी से छीन लाईं थीं।

जयपुर के सवाई मानसिंह अस्पताल के डॉक्टरों ने हमें सलाह दी कि अब इन्हें ऐम्स दिल्ली ले जाओ, वहीं इलाज हो सकता है अन्य कहीं नहीं। मरता क्या न करता। कोई विकल्प था ही नहीं। उन्हें लेकर दिल्ली आ गये। महीनों तक उनका इलाज ऐम्स में हुआ तब जाकर वे हिलने डुलने लगे थे। पैरेलेसिस के कारण उनका बायां भाग सुन्न पड़ गया था। बांया हाथ और पैर बेकार हो गये थे और मुंह टेढा हो गया था। दिमाग भी आधा ही रह गया था। धन दौलत पानी की तरह बहाकर, महीनों अस्पताल के चक्कर काट कर भी आधा अधूरा आदमी ही वापस लेकर लौटे थे।

यह घटना सन 1997 की है। उस समय उनके इलाज पर करीब 50 लाख रुपए खर्च हो गये थे। घर पर चौतरफा मार पड़ी थी। महीनों तक दुकान बंद रही थी इससे लाखों रुपए का घाटा हुआ। इलाज के लिए हर रिश्तेदार की मदद ली गई और करीब 25-30 लाख रुपए का कर्ज हो गया था। सबसे बड़ी बात यह थी कि मोहन भाईसाहब हमेशा के लिए अपंग हो गये थे। अब वे काम करने योग्य नहीं रह गये थे। यह बात सबसे दुखद थी।

एक फीजियोथेरेपिस्ट को पास के शहर से बुलाकर गांव में रखा गया था। वह दिन रात मेहनत करता था और पूरी ईमानदारी से अपना काम करता था। वसुधा भाभी पूरे घर , बच्चों और मोहन भाईसाहब की देखभाल करती थीं। उनका एक नया अवतार देखने को मिल रहा था। उनमें इतनी ऊर्जा न जाने कहां से आ गई थी। दिन रात काम करने के बाद भी वे कभी थकती नहीं थी। उनमें सहन शक्ति का जैसे अथाह भंडार भरा हुआ था। कभी कभी सास उन्हें ऐसी जली कटी सुना देती थी कि वे जल बिन मछली की तरह तड़पती रह जाती थीं "हमारे तो करम ही फूट गये। जबसे तू आई है अपने संग में दिलद्दर ही लाई है। एक बेटा जन्यो है वो भी नकटा बूचा। और मेरे छोरा पे न जाने क्या कर दीतो है जो या भी आधो अधूरो हो गयो है। अभी तो और न जाने क्या क्या करैगी"। भाभी को काटो तो खून नहीं। ऐसे ताने सुन सुनकर फूल सी महीने वाली भाभी कांटों की झाड़ सी दिखने लगी थी।

चौतरफा मार पड़ने से घर की आर्थिक स्थिति दयनीय हो गई थी। धंधा खत्म हो गया था और वे लोग कर्ज में आकण्ठ डूबे हुए थे। मोहन भाईसाहब कुछ करने की स्थिति में नहीं थे। उनके पिताजी भी तब तक 70 वर्ष के हो गये थे। उनसे इस उम्र में काम की उम्मीद करना अत्याचार की श्रेणी में आता था। ऐसे माहौल में वसुधा भाभी ने एक बहू के बजाय एक बेटे की भूमिका निभाना शुरू कर दिया था। वसुधा भाभी ने दुकान संभाल ली और घर दोनों सास ननद ने संभाल लिया। जैसे तैसे दिन निकलने लगे। अब वसुधा भाभी को दुनियादारी की समझ होने लगी। धीरे धीरे पुराने दिन वापिस लौटने लगे। कर्जा चुकता कर दिया गया और घर में भी संपन्नता आने लगी थी।

इधर मोहन भाईसाहब के स्वभाव में आमूलचूल परिवर्तन हो गया था। मोहन भाईसाहब पहले बड़े हंसमुख और मिलनसार थे। हौंसला और जोश हिमालय से भी ऊंचा हुआ करता था उनका और वे पूरी दुनिया को अपनी मुठ्ठी में करने का ख्वाब अपनी आंखों में सजाया करते थे। मगर अब वे एक असफल , पराजित, निराश , अपंग और कंठित व्यक्ति थे जो स्वयं को पत्नी पर आश्रित पाते थे। पुरुष में इतना अहंकार होता है कि उसे सब कुछ मंजूर होता है पर पत्नी पर आश्रित होना कतई मंजूर नहीं होता है। उसके अहं को बहुत ठेस लगती है जब वह इस बारे में सोचता है। यद्यपि पत्नियां इतनी समझदार होती हैं कि वे कभी भी भूले से भी ऐसा ना तो कुछ कहती हैं और ना ही कुछ इशारों से जताती हैं मगर पुरुष फिर भी मन ही मन आहत होते रहते हैं। मोहन भाईसाहब की मम्मी जरूर जनाती रहती थीं कि अब घर की मालिक वसुधा बन गई है।

मोहन भाईसाहब का स्वभाव अजीब सा हो गया था। अभी भी साफ साफ बोल नहीं पाते थे। बड़ी मुश्किल से अपनी बात कह पाते थे। उनका एक हाथ और एक पैर काम नहीं करते थे इसलिए चलने फिरने में भी उन्हें तकलीफ होती थी। इसके अतिरिक्त उन्हें नहाने, धोने, खाने में भी तकलीफ होती थी। वे चाहते थे कि वसुधा भाभी सदैव उनके पास रहें मगर यह संभव नहीं था। अगर वसुधा भाभी ऐसा करतीं तो फिर दुकान कौन संभालता ? वसुधा भाभी उन्हें नहलाने, खाना खिलाने का काम करती थीं और साथ साथ में दुकान भी संभालती थीं। मगर मोहन भाईसाहब इससे संतुष्ट नहीं थे और वे अपनी नाराजगी का इजहार कभी कभार अपने लात घूंसों से कर दिया करते थे। भगवान ने उन्हें अभी भी एक हाथ और एक पैर तो दे रखा था न। बस, वे इनका उपयोग अधिकांशत : भाभी पर ही किया करते थे। इतना सब कुछ होने के बावजूद वसुधा भाभी लात घूंसे खाती रहती थीं और इसी भोजन से वे अपना पेट भरती रहती थीं। अकेले में बैठकर घंटों रोती रहती थीं। शायद धरती माता ने अपना संपूर्ण स्वभाव उनमें भर दिया था इसीलिए घरवालों ने शायद उनका नाम "वसुधा" रख दिया था। दोनों में गजब की प्रतियोगिता थी। धरती माता कहती कि मैं अधिक सहनशील हूं मगर वसुधा भाभी कभी कुछ कहती नहीं थी बस सहन करती रहती थी। आखिर धरती माता ने अपनी हार मान ली थी।

समय गुजरता रहा। वसु और वल्लभ स्कूल जाने लगे थे। वसु को बच्चे "बूचा बूचा" कहकर चिढाते थे। वह रोता हुआ घर आता था। वसु को रोता देखकर भाभी अंदर तक टूट जाती थी मगर अपने नैनों में एक भी आंसू आने नहीं देती थी। बड़ी मुश्किल से वे वसु को समझा पाती थी। वल्लभ स्वस्थ था और हृष्ट-पुष्ट भी था इसलिए वह अपने बड़े भाई के अपमान का बदला लेने के लिए हर किसी से भिड़ जाता था। स्कूल में वल्लभ की धाक एक गुंडे के रूप में हो गई थी। वसुधा भाभी के पास उसकी शिकायतें आनी शुरू हो गईं। वे वल्लभ को बहुत समझातीं कि वह लड़ाई झगड़ा नहीं किया करे मगर वल्लभ कहता "मुझसे भैया का अपमान सहन नहीं होता है। मैं किसी से लड़ने नहीं जाता हूं। मगर मैं यह सहन नहीं कर सकता हूं कि कोई भैया को "बूचा" कहकर बुलाये। जो भी कोई ऐसा करेगा, उसकी हड्डी पसली एक कर दूंगा मैं"। वसु के लिए वल्लभ के मन में इतना सम्मान देखकर वसुधा भाभी भाव विभोर हो जाती थीं और अपने दोनों लालों को सीने से लगाकर खूब लाड़ प्यार करती थीं।

एक दिन मोहन भाईसाहब वसुधा भाभी से बोले "वसुधा , तुमने मुझे दो पुत्र दिये। मैं निहाल हो गया। मुझे एक बच्चे की तरह पाल पोष रही हो , कितना महान काम कर रही हो। बस, एक उपकार और कर दो। एक बेटी और दे दो। मैं तुम्हारे आगे हाथ जोड़ता हूं"। वसुधा भाभी आंसुओं में डूब गईं। एक पति इस तरह झोली फैलाकर इतनी कातरता से यदि कुछ याचना करता है तो वह पत्नी स्वयं को कितना धिक्कारती होगी, यह बात वसुधा भाभी के अतिरिक्त और कोई नहीं जान सकता है। दोनों बच्चों, पति के साथ साथ दुकान संभालना कोई मामूली काम नहीं था। और अब एक और बच्चे की फरमाइश ? वह भी एक प्यारी प्यारी गुड़िया की। मगर जैसे ही उनका ध्यान खुद की ओर जाता , वे सिर से लेकर पैर तक कांप जाती थीं। स्त्री का जीवन कितना कठिन है यह उनसे बेहतर और कौन जान सकता था। भगवान ना करे उनकी बेटी को यदि ये सब सहन करना पड़े तो वे कैसे जिंदा रह पायेंगी ? अपने मम्मी पापा को चुपके चुपके रोते देखा है उन्होंने। मगर भाग्य पर किसका जोर चलता है ? 

मोहन भाईसाहब ने हठ पकड़ ली थी। अपनी भावना जताने के लिए वे एक टूटा फूटा गाना गाते थे "कुछी कुछी रुकमा पास आओ ना , एक प्यारी प्यारी गुड़िया दे दो ना"। और वसुधा भाभी शरमा कर मुंह फेर लेती थीं। आखिर मोहन भाईसाहब की जिद की जीत हुई और एकदिन भाभी मान गई। वे तीसरी बार "उम्मीद" से हो गईं थीं।

क्रमशः 


Rate this content
Log in

Similar hindi story from Tragedy