नारी- शक्ति
नारी- शक्ति
स्त्री और पुरुष एक ही अंग के दो पहलू होते हैं। राधा ने ही कृष्ण की पूजा कराई सीता ने ही राम को यश दिया। सती के लोप हो जाने पर शिव जहाँ के तहाँ बैठे रह गए लक्ष्मी अगर विष्णु का साथ छोड़ दे तो सारा कार्य रुक जाए। यदि परब्रह्मा परमेश्वर को किसी प्रकार शक्तिहीन बना दिया जाए तो ऐसे जगदीश्वर को कौन पूछेगा ?शक्तिवान नहीं शक्ति ही सब कुछ है।
जीव चाहे नर हो या मादा दोनों में एक ही चैतन्य सत्ता स्थित है। तेज एक ही है -नारी और पुरुष उसकी दो ज्योतियाँ है। पर साथ ही एक दूसरे के पूरक हैं। दोनों को मिलाकर ही पूर्ण की संज्ञा दी गई है। पुरुष यदि धनुर्धर राम का रूप पकड़ रण क्षेत्र में राक्षस राज रावण से युद्ध करता है तो नारी सीता बन अपने पतिव्रत रूपी तप से सहयोग प्रदान करती है। यदि नारायण हो छीर सागर में सैया पर शयन करता है तो नारी लक्ष्मी बन शक्ति प्रदान करती है। नर अगर देवराज इंद्र होकर जल -वृष्टि करता है तो नारी बन उसे ग्रहण कर पृथ्वी समस्त जीवो को जीवनदान देती है। नर विश्वास रूप में शंकर है तो नारी शैल कुमारी रूप में श्रद्धा। एक ग्रह -पति है दूसरी ग्रह-लक्ष्मी। एक पुरुष है दूसरी प्रकृति।
पुरुष से भी अधिक गुणोत्तर भार नारी पर है। कुमारा- वस्था उनके जीवन की साधना अवस्था है। भार्यारुप में वह गृह -स्वामिनी है और मातृ रूप में सर्वोपरि। संसार का सारा दायित्व मातृत्व पद ग्रहण करने में है। पुरुष को उनके समक्ष कोई पूछ नहीं। माता का अहैतुकी स्नेह संतान पर सदा रहता है। मित्र -सखा भाई -बंधु सभी धोखा दे सकते हैं पर मां कदापि निष्ठुर नहीं बन सकती। वह निरंतर संतान की चतुर्मुखी प्रतिभा के विकास में संलग्न रहती है। माता विदुला ने अपने भीरू पुत्र संजय के हृदय में साहस का संचार किया था। पांडवों को प्रजा पालन का पाठ माता कुंती ने पढ़ाया था। दुर्योधन को शतपथ पर लाने के लिए माता गांधारी ने क्या नहीं किया ?हर प्रकार की शिक्षा देने के पश्चात मदालसा ने अपने पुत्र से गूढ़तम रहस्य प्रकट किया कि यदि तुम किसी प्रयास से आसक्ति त्याग न कर सको तो सत्पुरुष का संग करो। महारानी शतरूपा ने महामंत्र का पाठ अपने पुत्रों को पढ़ाया था। योग के आचार्य कपिल की माता देवहूति थी। कृष्ण राम बुद्ध महावीर आदि पुरुषों का प्रादुर्भाव माता के गर्भ से ही हुआ था। संतान दुराचारी हो कर्तव्य परायण हो धीर वीर गंभीर हो ईश्वर भक्त हो यही प्रयास प्रारंभ से माता का रहा है।
पुरुष से अति तीव्र ग्रहण करने की शक्ति नारी में होती है। श्रद्धा पूर्वक नारी यदि उत्तम -उन्नत में लग पड़ती है तो चंद माह में जो उपलब्धि उन्हें होती है पुरुष को उस स्थिति में पहुंचने के लिए वर्षों का समय लग जाता है। उन्हें तो घर बैठे ही बिना किसी कठिन क्रिया के सहज समाधि प्राप्त हो जाती है। इसका मूल कारण है कि उनका जीवन ही सेवामय है। महाप्रभु ने माताओं के लिए कहा -बच्चों के उठने से थोड़ी देर पहले उठो। यदि स्नान कर सको तो ठीक है नहीं तो कपड़े बदल कर बैठ जाओ। बस 10 मिनट भगवान का ध्यान कर लो। फिर भोजन बनाने बालकों को को खिलाने उनकी सेवा में लग जाओ। सिर्फ यही ख्याल रखो कि मैं प्रभु की सेवा कर रही हूँ।
इस देश को छोड़ संसार के किसी सभ्य देश ने नारी को ईश्वर रूप में देखने की कल्पना तक नहीं की। परमात्मा माता भी है और पिता भी। उनका मातृ रूप भी है और पितृ रूप भी। पिता से माता का पद ऊँचा है। हम उस सर्वेश्वरी मां की अबोध संतान हैं। वह सदैव अपनी संतान को गोद में लेने को तैयार रहती है। उनके हृदय में दया है करूणा है। अमृत रूपी दुग्ध अपने बालक को पान कराने में माता कभी पीछे नहीं रहती। मातृ- भाव से उसकी (परमात्मा) प्राप्ति अति सरल सुलभ और सहज है। अन्य भाव से पहुंचने में कठिनाई है। जिस प्रकार भी हो हम स्नेहमयी मां की गोद में बैठ कर निश्चिंत हो जाएं।