नानी की कहानी
नानी की कहानी
नानी की पसंद की कहानी या कविता तो मुझे पता नहीं। मेरे होश में आने से पहले नानी जी दुनिया छोड़ चुके थे। एक क़िस्सा सुनाने जा रही हूँ जो माँ से सुना था। नानी की शादी बहुत छोटी उम्र में हो गई थी। शायद खेलने कूदने की उम्र में। उन दिनों गाँव में बारात आकर कई- कई दिन रूकती थी। नानी जी के पिता जी गाँव के वैध थे। बारात गाँव के मंदिर में ठहरी हुई थीं। बारात का आना मतलब सबकी एक ही चाह होती थी कि दूल्हा देखा जाए।
हमारी नानी भी सखियों के साथ पहुँच गई मंदिर में ,दूल्हा जो देखना था। पूछ पूछा कर जब उन्होंने दूल्हा देखा तो कोई ख़ास ख़ुशी नहीं हुई। घर की तरफ़ वापिस जाते हुई दुल्हे में नुक़्स गिना आपस में हँसती रहीं सखियाँ। घर पहुँची तो देखा माँ दरवाज़े पर इंतज़ार कर रही है। माँ को देखते ही ज़ोर से बोली , ’ माता !
माता ! मंदर विच बरात है। ’ माता ने जल्दी से कहा , ‘तुम तो नहीं गई वहाँ ?’ भोला बचपन ,जल्दी से जवाब दे दिया, ‘ गई थी ,पर माता जैड़ा लाड़ा (दुल्हा) उदे बुल (होंठ )बड़े काले। ’ मम्मी बताती है कि नानी जी ने माँ का चेहरा देखे बिना दूल्हे का पूरा नक़्शा उतार दिया था। उनकी माँ ने प्यार से डाँटते हुए कहा था , चुप कर ! बड़ी हो गई हो ! किसी को मत बताना कि तुम वहाँ गई थी।
बात बचपन की और सुनने में छोटी सी है। आज अगर सोचती हूँ तो हैरानी होती है। एक वो समय था जब बिन देखे रिश्ते हो जाते थे और आज सब कुछ देख परख कर भी तलाक़ होते देर नहीं लगती। जिस दूल्हे के रंग रूप पर नानी नाक भौं चढ़ा रही थी वही उनके सरताज़ बने। क्या संस्कार थे कि बिना किसी शर्त सब क़बूल। मुझे गर्व है मैं ऐसे ख़ानदान से जुड़ी हूँ जहाँ आज भी संस्कार पलते हैं और अपनी धरती से जुड़े हैं।
