मुहब्बत की दुकान
मुहब्बत की दुकान
इस रचना में "नाच न जाने आंगन टेढ़ा" मुहावरे का प्रयोग किया गया है।
पण्डित जनेऊ राम के खानदान में हर्षोल्लास की बहार आई हुई थी। लोग इस कदर खुश थे कि खुशी उनके चेहरों से टपक रही थी। अगर किसी घर में कोई बच्चा पैदा ना हो और अगर उस घर की पालतू कुतिया के अगर कोई पिल्ला पैदा हो जाये तो जैसी खुशी उस घर के लोगों को होती है वैसी ही खुशी पण्डित जनेऊ राम के खानदान को हो रही थी। महिलाऐं मंगल गान गा रही थीं और नृत्य कर रही थीं। पुरुष उछल कूद और हो हल्ला कर रहे थे। बड़ा अद्भुत समां बंध रहा था। कुछ भाट चारण इस खानदान की बिरदावलियां पूरे मनोयोग से गा रहे थे। हालांकि यह काम सदियों से करते आ रहे हैं ये लोग। आंखों में आशा की उम्मीद दिखाई दे रही थी। पण्डित जनेऊ राम की दुकान जब से "पिटी" है तब से इन भाट चारणों के दिन बड़े बुरे चल रहे हैं। फाकों की नौबत आ गई है पर ये बेचारे क्या कर सकते हैं ? जब मालिक ही "घाटे" में चल रहा है तो वह "नौकरों" को क्या तोहफा दे सकता है ?
सुना है कि इस खानदान ने "नफरती मौहल्ले" में कोई "मुहब्बत की दुकान" खोल ली है। सबसे पहली बात तो यह है कि इस मौहल्ले का नाम "नफरती मौहल्ला" किसने दिया ? पर मेरा कहना है कि क्या ये बताने की अब भी आवश्यकता है ? विगत 9 वर्षों से नफरत का बाजार किसने गर्म कर रखा है ?
पण्डित जनेऊ राम के खानदान की एक "पुश्तैनी" दुकान थी जो किसी जमाने में बड़े धड़ल्ले से चलती थी। लोग तो यहां तक कहते हैं कि एक जमाने में इस दुकान की "मोनोपॉली" चला करती थी। "नफरती मौहल्ले" में किसी जमाने में बस एक ही दुकान पण्डित जनेऊ राम की हुआ करती थी जिस पर इसी जनेऊ राम के खानदान का एकाधिकार था। तब इस दुकान का नाम "खानदानी मॉल" हुआ करता था। लोगों के पास इस दुकान से सामान खरीदने के अलावा और कोई विकल्प नहीं था इसलिए इस दुकान पर खूब भीड़ लगी रहती थी। माल हाथोंहाथ बिक जाता था। लोग समझ ही नहीं पाते थे कि माल "असली" है या "नकली"। बस "खानदान" का सिक्का चलता था और कुछ नहीं।
समय बदला और मौसम भी बदल गया। खानदानी मॉल में नकली माल धड़ल्ले से बिकने लगा। या यों कहें कि अब लोगों ने नकली माल की शिकायतें करनी शुरू कर दी थी। इसके अतिरिक्त मौहल्ले में छोटी मोटी अनेक दुकानें भी खुल गईं थीं। उन नई दुकानों के खुलने का यह असर हुआ कि "खानदानी मॉल" फीका लगने लगा। धीरे धीरे लोगों ने "खानदानी मॉल" से सामान खरीदना कम कर दिया और वह "खानदानी मॉल" बंद होने के कगार पर आ गया। पण्डित जनेऊ राम और उसके खानदान में मातम छा गया। मर्ज बढता गया ज्यों ज्यों दवा की।
पण्डित जनेऊ राम के खानदान में अब एक नया वारिस आ गया था। धूमधाम से उसके राजतिलक की तैयारी की गई मगर हर बार कोई न कोई मंथरा आकर टंगड़ी मार जाती थी। अपने वारिस "प्रिंस" की मार्केटिंग करने में खानदान ने कोई कोर कसर नहीं छोड़ी थी मगर इस सबके बावजूद "प्रिंस" बाजार में कोई छाप नहीं छोड़ पाया। "खानदानी मॉल" की ख्याति, व्यवसाय और दबदबा धीरे धीरे कमतर होता चला गया। जनता न तो खानदानी मॉल से सामान खरीदना चाहती थी और न ही इसके वारिस "प्रिंस" में उसकी कोई रुचि थी।
इधर बाजार में एक नई दुकान "गुजराती भण्डार" खुल चुकी थी। इसका माल लोगों को बहुत पसंद आया। जनता ने दूसरी दुकान "गुजराती भण्डार" से सामान खरीदना शुरू कर दिया था। नफरती मौहल्ले में "गुजराती भंडार" बहुत प्रसिद्ध हो गया था। लोग टूटकर पड़ते थे इस दुकान पर। उसका माल हाथोंहाथ बिक जाता था। भाट चारण लोग कहते थे कि "गुजराती भण्डार" का माल तो बहुत बेकार है मगर इसकी मार्केटिंग बड़ी शानदार है। इनका कहना है कि इसके "दोनों सेल्समैन" गजब के खिलाड़ी हैं। वे गंजे को भी कंघी बेच देते हैं। पर भाट चारणों का क्या है ? आजकल सोशल मीडिया ने इन भाट चारणों की "चंपी" को औकात दिखा दी थी।
जब सामने ऐसे ऐसे चतुर खिलाड़ी हों तो प्रिंस जैसे अनाड़ी सेल्समैन कैसे "खानदानी मॉल" को चला सकते हैं ? प्रिंस न तो मॉल टाइम पर खोलता था , न उसे सामान के बारे में पता था , न उसे मार्केटिंग आती थी और न ही वह किसी ग्राहक की इज्ज़त करता था। सबसे बड़ी बात यह थी कि वह बीच बीच में विदेश भी भाग जाया करता था और उसके बारे में किसी को कुछ बताकर भी नहीं जाता था। उसके विदेश दौरे के समय नौकर चाकर ही मॉल चलाया करते थे। ऐसे में कोई ग्राहक उसके मॉल पर कैसे आता ? प्रिंस अपनी कमियों की तरफ ध्यान देने के बजाय दूसरों को कोसने में ही लगा रहता था। लोग सच ही कहते हैं "नाच न जाने आंगन टेढा"। मगर प्रिंस को यह बात कहने की हिम्मत किसी नौकर , भाट या चारण में नहीं थी। उसे "गुजराती भण्डार" से बहुत नफरत थी। वह "गुजराती भण्डार" को बंद कराना चाहता था मगर गुजराती भण्डार ने "खानदानी मॉल" का पैक अप लगभग तय ही कर दिया था।
खानदानी मॉल बंद होने की कगार पर आ गया था। इससे समस्त चाटुकारों, भाट, चारणों, लिबरलों, सेकुलर्स और बुद्धिजीवियों में भय का माहौल बन गया था। यदि खानदानी मॉल बंद हो गया तो इनका क्या होगा ? ये लोग तो इस खानदानी मॉल पर ही पल रहे थे। इनके भूखों मरने की नौबत आ गई थी। इन्होंने एक योजना तैयार की और इस योजना के तहत प्रिंस की इमेज बदलने का और उसे गुजराती भण्डार का सबसे बड़ा प्रतिद्वंद्वी घोषित करने का एक टूल किट तैयार किया। इस टूल किट के अनुसार प्रिंस को "जोकर" से "तपस्वी" बनाना था। यह बड़ा विकट कार्य था लेकिन महीनों की मेहनत करने , रिहर्सल करने और खैराती मीडिया को साथ लेने से यह संभव हो गया था।
52 वर्षीय प्रिंस की इमेज बदलने के लिए उसका मेकअप किया जाना जरूरी था। आखिर उसे "आइंस्टीन" जो दिखाना था। एक "युवा" को "मैच्योर" दिखाने के लिए सफेद दाढी का सहारा लिया गया। बेचारी दाढी भी बहुत रोई थी जब उसने एक चिकने चिपुड़े चेहरे पर जबरन कब्जा जमा लिया था। तपस्वी और आइंस्टीन बनने के लिए "चिकने" चेहरे का बलिदान आवश्यक था।
अब बारी आई एक नई दुकान खोलने की। सभी बुद्धिजीवी दिमाग लगाने लगे कि दुकान किस चीज की खोली जाये ? कला क्षेत्र से बहुत से "चाटुकारों" ने "मुहब्बत की दुकान" खोलने का आइडिया दिया मगर पण्डित जनेऊ राम के खानदान वालों का कहना था कि हम तो अब तक "नफरत के सौदागर" रहे हैं। हमारी यू एस पी ही "नफरत की जमीन पर लहू की खेती करना" रही है तो ऐसे में मुहब्बत की दुकान कैसे खोली जा सकती है ? बात सोलह आने सच थी मगर बुद्धिजीवियों ने "तपस्वी" को आश्वस्त कर दिया कि वे चाहे उस दुकान में केवल नफरत का सामान पहले की तरह बेचते रहें, इससे उन्हें कोई आपत्ति नहीं है मगर नाम तो "मुहब्बत की दुकान" रखना पड़ेगा। यह नाम सबको आकर्षित करता है और इस नाम से मार्केटिंग की जा सकती है। बुद्धिजीवियों ने उन्हें यह भी समझाया कि सीता जी का अपहरण करने के लिए रावण को एक साधु का वेश बनाना पड़ा था। इसका मतलब यह तो नहीं हुआ कि रावण सचमुच का साधु बन गया हो। तपस्वी को बात जम गई और इस तरह मुहब्बत की दुकान खोलने की घोषणा कर दी गई।
अब बारी थी "माल" लेने की तो खानदानी मॉल का पुराना सामान "नयी पैकिंग" में भरकर इस मुहब्बत की दुकान में रख दिया गया और सारे "खैरातियों" को मार्केटिंग पर लगा दिया। मुहब्बत की दुकान का प्रचार प्रसार जोर शोर से होने लगा। तपस्वी को गली मौहल्ले में होकर घुमाया गया। देश विरोधी , टुकड़े टुकड़े गैंग, बुद्धिजीवी, लिबरल, सेकुलर्स सब लोगों को "गुजराती भण्डार" के खिलाफ एकजुट होने का संदेश दिया गया। नफरती मौहल्ले में "गुजराती भण्डार" के खिलाफ खुली हुई समस्त छोटी बड़ी दुकानों को "मुहब्बत की दुकान" पर उद्घाटन के अवसर पर आने का न्यौता दे दिया गया। सुनते हैं कि ऐसे 23 दुकानदार थे जिन्हें "ओपनिंग सेरेमनी" में बुलाया गया। इस अवसर पर "जोकर" को महान "जुझारू , विद्वान और निडर" तपस्वी घोषित करना था। उन्हें आइंस्टीन से भी अधिक बुद्धिमान दिखाना था। मगर हाय रे दैव ! 23 दुकानदारों में से एक भी महत्वपूर्ण दुकान दार इस कार्यक्रम में नहीं आया। मुहब्बत की दुकान खुलने से पहले ही बंद हो गई। पता नहीं अब इस नफरती मौहल्ले का क्या होगा ?