मृगतृष्णा के पीछे

मृगतृष्णा के पीछे

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परिमल की कार ने जब आलीशान बंगले के आहते में प्रवेश किया तो दरबान ने दौडकर सलामी देते हुए दरवाजा खोला। पल्लवी को न देखकर वह थोड़ा चौंका क्योंकि वह सदैव ही कार की आवाज सुनकर अपनी मधुर मोहनी मुस्कान के साथ वह बाहर आ जाती थी।   

शयनकक्ष में पल्लवी को चादर ओढ़े सोते देख अजीब आशंका से त्रस्त उसने पूछा,‘क्या बात है मैडम, तबियत तो ठीक है।’ प्यार से वह उसे मैडम कहकर ही पुकारता रहा है।

‘तबियत तो ठीक है किन्तु मन अच्छा नहीं है, सुबह क्या वायदा करके गये थेे याद नहीं है ?’ मुँह फुुलाकर पल्लवी ने उत्तर दिया।

‘ओह ! आई एम वेरी सारी, माई डियर,सच आफिस के काम में इतना व्यस्त हो गया था कि याद ही नहीं रहा। कोई बात नहीं है, कल हम मैडम को पिक्चर दिखाने अवश्य ले जायेंगे।’

‘ पिछले पाँच दिनों से यही बात सुन रही हूँ ,न जाने तुम्हारा कल कब आयेगा ?’ तनिक क्रोध में पल्लवी ने कहा।

‘तुम तो जानती ही हो, तुम्हारा यह गुलाम इस जिले का जिलाधिकारी है, कानून और व्यवस्था की सारी जिम्मेदारी मुझ पर है, पल में कहीं भी कोई भी घटना घटने पर मेरा कार्यक्रम भी बनता बिगड़ता रहता है। इस बार होली और बकरा ईद पास-पास होने से व्यस्तता थोड़ी ज्यादा ही बढ़ गई है।’

‘ पर मैं अकेली बैठी-बैठी क्या करूँ ?’

‘क्या कमी है तुम्हें ? प्रत्येक सुख-सुविधा तो है तुम्हारे पास,सिर्फ आदेश देने की देर है आखिर तुम एक जिलाधिकारी की पत्नी हो....एक छोटी रियासत के राजा की रानी।’ प्यार से उसे अंक में समेटते हुए परिमल ने कहा।

‘परन्तु मुझे तुम्हारा साथ चाहिये....। ये सुख-सुविधायें भी तुम्हारे सामीप्य के बिना अधूरी हैं। क्यों न हम कहीं घूमने चले ? प्रकृति की हसीन वादियों में हाथ में हाथ डालकर घूमेंगे या समुद्र की अठखेलियाँ करती लहरों के मध्य तपती रेत में अपने भविष्य के सपने चुनेंगे...।’ उल्हासित पल्लवी ने उसके सीने के बालों से खेलते हुए कहा।

‘साहब, एस.पी. साहब आये है। ’ अर्दली ने कमरे से बाहर से ही कहा।

‘ उन्हें बिठाओ, मैं अभी आता हूँ।’ कहते हुए परिमल ने धीरे से पल्लवी को हटाया तथा बाहर चले गये...।  

पल्लवी को नैनीताल में बिताये हनीमून के दिन याद आयेे जब जीवन में सिर्फ प्यार ही प्यार था न दिन थेे और न रात...। कब सुबह होती थी और कब शाम, पता ही नहीं चलता था। कभी नैनी झील में बोटिंग करते, कभी माल रोड पर हाथ में हाथ डाले निरूउद्देश्य घूमते तो कभी प्रकृति के मनोहारी सौन्दर्य को कैमरे में कैद करने का प्रयास करते....वे सुनहरे दिन न जाने कहाँ खो गये ? समय की अबाध गति को क्या कोई रोक पाया है ?

‘पल्लवी, अराजक तत्वों ने लूट-मार प्रारंभ कर दी है अतः मैं जा रहा हूँ। कब तक लौटूँगा कह नहीं सकता अतः इंतजार मत करना...डर की कोई बात नहीं है।’ 

परिमल की आवाज ने अतीत के सुनहरे स्वप्नों को भंग कर दिया था तथा वर्तमान के कठोर धरातल पर परिस्थतियों से जूझने के लिये छोडकर तुरन्त ही चला गया।

पल्लवी की आँखों से अश्रुधारा बह निकली। क्या इसीलिये पापा ने उसका विवाह किया था ? परिमल की चौबीस घंटे की ड्यूटी और वह पिंजडे में कैद एक पंक्षी की तरह जीवन व्यतीत कर रही थी। पिंजडा चाहे कितना ही खूबसूरत क्यों न हो, कैद तो कैद ही है। कई बार लेडीज क्लब जाकर मन बहलाने का प्रयत्न किया किन्तु वहाँ सास पुराण एवं ननद पुराण सुनकर मन घबराने लगता...। हाउजी से उसे प्रारंभ से ही नफरत थी।

कॉलेज से पढ़कर निकली ही थी कि पापा ने योग्य लड़का देखकर विवाह कर दिया। परिमल माता-पिता की इकलौती संतान थे। उनकी माताश्री का देहावसान जन्म के पश्चात् ही हो गया था। पिताश्री काॅलेज में प्रिसीपल थे। पिता के व्यक्तित्व के प्रभाव के कारण परिमल भी उन्हीं की तरह अनुशासन प्रिय एवं मेधावी थे। प्रथम प्रयास में आई.ए.एस. की प्रावीण्य तालिका में नाम अंकित होना गौरव की बात थी और शायद इसी योग्यता के कारण उसके करोड़पति पिता ने अनेकों युवकों में से उसे चुना था। अपनी योग्यता, मेहनत एवं कुशलता के कारण चार वर्षो के अंदर ही जिले का स्वतंत्र भार उसे सौंप दिया गया था। जिलाधिकारी के रूप में यहाँ उनकी पहली पोस्टिग थी अतः कार्य के प्रति अत्यन्त उत्साह एवं लगन से पूर्णरूप से समर्पित थे।

समस्त नाते-रिश्तेदार,सखी सहेलियाँ उसके भाग्य से ईर्ष्या करती....आई.ए. एस. वर भाग्यशालियों को ही मिलता है। सम्पूर्ण भारत में यही एक ऐसी नौकरी है जो शाही सुख-सम्मान प्रदान करने वाली होती है। वह स्वयं भी परिमल की वाकपटुता एवं व्यक्तित्व से अत्यंत प्रभावित हुई थी किन्तु मालूम नहीं था कि गुलाब काँटों में ही पलता है, वाली कहावत यहाँ चरितार्थ होने वाली है। 

उसके पिता व्यवसायी हैं। व्यवसाय के सिलसिले में उन्हें अक्सर बाहर जाना पड़ता था अतः उसकी माँ की जिद थी कि वह अपनी पुत्री का विवाह एक नौकरी वाले से ही करेगी चाहे वह क्लर्क ही क्यों न हो....? कम से कम बेटी को वह सुख....सामीप्य तो मिले जिसके लिये वह जीवन भर तरसती रह गई....काश ! माँ देख पाती उनकी बेटी कितनी सुखी है ? पिछले वर्ष ही वाइरल फीवर ने उन्हें मौत के आगोश में सुला दिया था....अंतिम समय में भी पापा बिजनिस टूर पर सिंगापुर गये हुए थे।    

घड़ी ने बारह बजाकर दूसरे दिन के आगमन की सूचना दी, पता नहीं कब तक आयेंगे परिमल ? सोचते-सोचते न जाने कब आँख लग गई। चिड़ियों की चहचहाहट तथा खिडकी से झांकती सूरज की पहली किरण ने सुबह होने की सूचना दी।

परिमल को फोन लगाया...नाॅट रीचेबिल बता रहा था। टेलीफोन अटेन्डेंट को बुलाकर पूछा कि क्या साहब का कोई संदेश आया ? नकारात्मक उत्तर प्राप्त कर मन खिन्न हो उठा किन्तु साथ ही में अजीब आशंकायें मन को घेरने लगी....माना सुरक्षा गार्ड साथ में रहते हैं किन्तु जिन व्यक्तियों के मन में ममता, मोह, प्रेम जैसी भावनाओं का अभाव हो वह कुछ भी कर सकते हैं।

मन में उहापोह मची हुई थी कि टेलीफोन अटेन्डेट ने फोन का रिसीवर उसे पकड़ाते हुये कहा, ‘साहब का फोन है।’

‘ पल्लवी, तुम्हारा फोन स्विच आफ आ रहा है... मैं शाम तक ही आ पाऊँंगा, काफी दंगा फसाद हुआ है लगभग दस लोग मारे जा चुके हैं, कुछ जख्मी हैं, उन्हें अस्पताल पहुँचाने तथा स्थिति को सामान्य बनने में थोड़ा समय लगेगा अतः दोपहर के खाने पर मेरा इंतजार मत करना।’

पल्लवी ने फोन उठाया तो वह डिस्चार्ज था...वह शायद उसे चार्जिग में लगाना भूल गई थी। पल्लवी जो कुछ क्षण पूर्व अनेक दुश्चिंताओं से घिरी हुई थी अचानक क्रूर हो उठी। वह यह भी भूल गई कि किन परिस्थितियों एवं कि कारणों ने परिमल को रूकने के लिये मजबूर किया है ? क्रोध में बिना कुछ कहे ही रिसीवर क्रेडिल पर रख दिया।

‘ इंतजार मत करना....’ परिमल के कहे शब्द बार-बार उसके मनमस्तिष्क पर प्रहार करने लगे....कितना सहन करूँ ? जब परिमल को मेरी चिंता नहीं है तो मैं उनकी चिंता क्यों करूँ ? अब मैं यहाँ नहीं रहूँगी, उसे अपनी चचेरी बहन चित्रा एवं महेश जीजू याद आये....वह उनसे से परिमल की तुलना करने लगी यद्यपि परिमल महेश से बीस ही थे किन्तु वह महेश की जिंदादिली की कायल थी। वह ऐसे इंसान थे जो मुर्दो में जान फूँकने की क्षमता रखते हैं। एक समय उसके आदर्श पुरूष रहे थे....उनके जैसे ही पुरूष की कल्पना उसने अपने जीवन साथी के लिये की थी।

उसे याद है वह दिन जब वह अपनी प्रिय सखी की आसामयिक मृत्यु के कारण दुखी थी। जीवन की क्षणभंगुरता उसे व्यथित किये जा रही थी। हम एक निर्जीव वस्तु खरीदते हैं तब भी हमें मालुम होता है कि वह कितने वर्ष हमारा साथ देगी लेकिन हमारे अपने जिनसे कुछ क्षण पूर्व हम हँसते खेलते भविष्य के ताने बाने बुन रहे होते है अचानक बिखर जायेंगे, कल्पना भी असंभव लगती है लेकिन ही जीवन का शाश्वत सत्य बन जाता है। उसी समय महेश जीजू एवं दीदी आ गये, उसे उदास देखकर उन्होंने जीवन का रहस्य समझाते हुए चुटकुले सुनाने प्रारंभ कर दिये....कुछ ही देर में सब दुख भुलाकर हँसने लगी थी यहाँ तक कि आँखों से आँसू निकल आये।

‘ जितना रोना है आज ही रो ले किन्तु आज के बाद तुझे कभी रोते हुए नहीं देखना चाहता....इंसान को प्रत्येक स्थिति में सदा प्रसन्न रहना चाहिए।’ अपना रूमाल निकालकर आँसू पोंछते हुए उन्होंने कहा था।

आज की स्थिति में वह चाहकर भी समझौता नहीं कर पा रही है, एकांत उसे काटने दौडता है....दुख और क्षोभ के कारण आँखों में आँसू तैरने लगे थे किन्तु कोई पोंछने वाला नहीं था।

तभी बाहर कार के हार्न की आवाज सुनाई पड़ी। उत्सुकता से बाहर झांका तो उसके पापा कृष्णकांतजी उतरते दिखाई दिये। उनके अंदर आते ही वह बच्चों की तरह फूट-फूट कर रो पड़ी, तथा बोली, ‘पापा मेरा यहाँ दम घुटता है, मैं यहाँ नहीं रहूँगी, कुछ दिन और रहना पड़ा तो मैं पागल हो जाऊँगी।’

‘क्या हुआ बेटा,परिमल ने कुछ कहा क्या ?’

उसकी मनोव्यथा सुनने के पश्चात् अनुभवी कृष्णकांतजी समझ गये कि परिमल की कोई गलती नहीं है। अपनी माँ की तरह ही नादान बेटी भी परिस्थतियों से समझौता नहीं कर पा रही है। काम छोड़कर कोई घर तो बैठ नहीं सकता....। इस समय उसे समझाना व्यर्थ है , सोचकर वह बोले, ‘मैं कुछ काम से आया था, सोचा तुझसे और परिमल से मिलता चलूँ... उससे तो मिल नहीं पाया, तेरे लिये कुछ सामान है रख ले, मुझे अभी लौटना है। ’ सामान पल्लवी के हाथ में पकड़ाते हुए बोले।

‘ पापा, अब मैं यहाँ नहीं रहूँगी, आपके साथ ही घर चलूँगी।’

कृष्णकांतजी ने पल्लवी को समझाने की काफी चेष्टा की किन्तु असफल होने पर इतना ही बोले,‘ ठीक है बेटा , तेरी जैसी मर्जी परन्तु परिमल की अनुपस्थिति में बिना उसे बताये चला जाना उचित नहीं होगा।’

पल्लवी ने तो आँखों पर पट्टी बाँध ली थी....वह कुछ समझने के लिये तैयार नहीं थी एक पत्र परिमल के नाम छोड़कर अपने पापा के साथ चली गई।

परिमल शाम को थका-हारा घर लौटा....पल्लवी के बारे में पूछने पर नौकर ने पल्लवी द्वारा लिखित पत्र उसे दिया तथा बोला,‘ मेमसाहब अपने पिताजी के साथ चली गई है।’

अचानक पल्लवी के जाने से आश्चर्यचकित परिमल ने पत्र खोलकर पढ़ना प्रारंभ किया....बहुत समझौता करने का प्रयत्न किया किन्तु तुम्हारा कार्य के सिलसिले में कई-कई दिनों तक घर से बाहर रहना अब असहनीय हो चला है, एकाकीपन का दुख अब सहा नहीं जाता....जा रही हूँ शायद कभी न आने के लिये...।

दुख....कभी दुख देखा है तुमने....जो सहा नहीं जा रहा....!! महलों में पलने वाले दुख क्या जाने.....एक गरीब मजदूर से पूछो दुख क्या होता है ? दिनभर मेहनत, खून पसीना बहाकर भी जो न स्वयं भरपेट खा सकता है और न बच्चों को खिला सकता है....। एक अनाथ बच्चे से पूछो जिसके सिर पर कोई प्यार से हाथ फेरने वाला भी नहीं होता....। गर्मी सर्दी बरसात में फुटपाथ पर रहने वालों से पूछो जिसके पास खुला आसमान है....। तुमने दुख देखा होता तो जाती ही नहीं....। तुम्हारे जैसे लोग कहीं सुख से न स्वयं रह पाते है और न ही दूसरों को रहने देते हैं। आज तुम यहाँ से दुखी होकर वहाँ गई हो....कल वहाँ से दुखी होकर यहाँ आओगी। जिनके जीवन का कोई उद्देश्य नहीं, अर्थ नहीं उन्हें कहीं भी सुख नहीं मिल सकता....। सार्थक जीवन जीने वाले हर हाल में प्रसन्न रह लेते हैं, चाहे कितनी भी परेशानियाँ क्यों न आयें। निराश पल्लव बिना खाये ही आराम में विध्न न डालने का आदेश देकर लेट गया।

टेलीफोन की घंटी की आवाज सुनकर वह उठा। सुबह हो चुकी थी मानसिक तनाव एवं थकान से नींद के बावजूद भी सिर भारी-भारी था। फोन उठाया उधर से श्री कृष्णकांत की आवाज सुनकर वह चौंक गया किन्तु मुँह से कोई आवाज नहीं निकली। विवशता भरी आवाज में वह पुनः बोले,‘बेटा, इस नादान लड़की को माफ कर देना। माँ होती तो कुछ समझाती भी, शुरू से जिद्दी रही है कुछ दिन यहाँ रहकर शायद अपनी भूल को समझ सके।’

कुछ कहना चाहकर भी पल्लव कुछ भी बोल न सका एवं फोन रख दिया। वह जानता था पल्लवी आयेगी अवश्य आयेगी लेकिन ऐसा कब तक चलेगा....? व्यर्थ के तनाव से उसकी कार्य क्षमता भी प्रभावित होने लगी थी। अंदर बाहर के तनाव ने उसे तोड़कर रख दिया था। कहते है दुख बाँट लेने से दिल का बोझ हल्का हो जाता है किन्तु कहता भी तो किससे ? जिसे उसने जी जान से चाहा जब वही उसकी मजबूरी को नहीं समझ पाया तो किसे दोष दे ? बुझे मन से उसने स्वयं को काम में डुबो लिया....जिससे न कोई विचार मन में उठे और न ही किसी की याद आये।

पल्लवी भावावेश में अपने पापा के साथ आ तो गई थी किन्तु मन ही मन खिन्न एवं उदास थी। वास्तव में मन वहीं रह गया था, समझ नहीं पा रही थी कि उसने ठीक किया या गलत। परिमल का काम ही ऐसा था कि वह चाहकर भी उसे समय नहीं दे पाता था किन्तु उसे चाहता बहुत था, इस बात का उसे अहसास था। उसे याद आये मधुर मिलन के वह क्षण जब परिमल ने उसका हाथ अपने हाथ में लेकर कहा था,‘पल्लवी, माँ को मैंने नहीं देखा, प्यार क्या होता है नहीं जानता....पिताजी ने स्नेह की छाया अवश्य प्रदान की किन्तु प्यार से महरूम रखा, बराबर कर्तव्य का एहसास कराते रहे किन्तु उसके मन के मरूस्थल में कभी झाँकने का प्रयास नहीं किया। मुझसे यदि कभी असंयत व्यवहार हो जाये तो भले कान पकडकर समझाना किन्तु मेरे दिल में खिल आये प्यार के अनगिनत फूलों को कभी मुरझाने मत देना। उम्र में तुम मुझसे छोटी हो किन्तु पति-पत्नी का स्थान बराबर का है अतः मेरी गल्तियों, कमजोरियों पर अंगुली उठाने का तुम्हें भी पूरा अधिकार है।’

सचमुच परिमल ने पिछले छह सालों में उसे कभी शिकायत का अवसर नहीं दिया। विवाह के तीन वर्ष पश्चात् जब वह गर्भवती हुई थी तो उसने खुशी से उछलकर उसे गोद में उठा लिया था किन्तु वह खुशी भी क्षणिक ही रही.....तीसरे महीने में पैर फिसल जाने के कारण गर्भपात हो गया था तथा उसी समय गर्भाशय में आये संक्रमण के कारण डाक्टर ने उन्हें वर्ष भर तक सावधानी से रहने की सलाह दी थी, ऐसे नाजुक क्षणों में भी परिमल ने न केवल शारीरिक वरन् मानसिक बल भी प्रदान किया था। कभी-कभी भावुक होकर कहता... तुम्हें मेरे कारण इतनी परेशानी उठानी पड़ी अब जब तक तुम नहीं चाहोगी हम बच्चे के बारे में सोचेँगे भी नहीं किन्तु जिलाधीश के पद पर पदारूढ़़ होने के पश्चात् वह बदलता जा रहा था या उसकी अत्यधिक व्यस्तता के कारण उसे ही महसूस हो रहा था....। वह समझ नहीं पा रही थी कि क्या करे ? वह तो अपने महेश जीजू पर आज भी मोहित थी जिन्होंने उसकी सीधी-सादी दीदी को बदल डाला था....रोज क्लब,डांस पार्टियों में उन्हें लेकर जाते थे। गोरी और सुदंर तो वह पहले ही थी किन्तु विवाह के पश्चात् उनके व्यक्तित्व में निरंतर निखार आता जा रहा था और वह घर में बैठे-बैठे लावण्य एवं कमनीयता असमय ही खोती जा रही थी। अपनी मानसिक स्तिथि के कारण उसका यहाँ भी मन नहीं लग रहा था।  

माँ की मृत्यु के पश्चात् पिताजी ने स्वयं को व्यवसाय में और भी व्यस्त कर लिया था। व्यवसाय को उत्तरोत्तर विकसित करने के उद्देश्य से एक शाखा इंग्लैड में खोल दी थी जिसका भार उन्होंने अपने पुत्र नरेन्द्र को सौंपा था। भाभी भी कुछ दिन पूर्व भाई के पास चली गई जिस एकांत को छोडकर आई थी, वही एकांत यहाँ भी था शायद उससे भी भयावह रूप में। एक बार मन हुआ चित्रा दीदी को फोन कर आने की सूचना दे दे किन्तु दूसरे क्षण उसने सोचा वह उनसे क्या कहेगी जब वे पूछेंगी कि कितने दिनों की छुट्टी लेकर आई है मेरी प्यारी बहना ? कभी उसे लगता कि वह स्वयं से ही नजरें चुराने लगी है।         

उसके आने का समाचार सुनकर दीदी स्वयं उससे मिलने आई तथा अपनी चिरपरिचित मुस्कान एवं अंदाज के साथ उसे अपने आगोश में लेते हुए कुशलक्षेम पूछने लगीं। पल्लवी के मुख से उसकी व्यथा सुनकर बोली,‘तू कितनी नादान है मेरी बहन, तूने महेश का ऊपरी रूप देखा है आन्तरिक नहीं....यह ठीक है वह मुझे चाहता है शायद पागलपन की हद तक किन्तु उसका प्यार सतही है तभी तो शिप्रा के शीघ्र गर्भ में आने से वह अप्रसन्न हो उठा था तथा आदेशात्मक स्वर में बोला था....गर्भपात करा लो....। 

एक माँ होकर भला मैं कैसे उसकी बात मान लेती....उसका तर्क था अभी तो हमारे घूमने फिरने और आनंद मनाने के दिन है, अभी से संतान हो जायेगी तो तुम्हारा शरीर बेडौल हो जायेगा तथा बच्चे के कारण हमे मनवांछित एकांत भी नहीं मिल पायेगा। वह यह नहीं समझता कि प्यार शारीरिक न होकर आत्मिक होता है। गर्भावस्था के वह दिन जिन दिनों पति से दूर रहना आवश्यक होते है, मैंने कैसे....तथा कितनी मजबूरी में व्यतीत किये किये , बता नहीं सकती।  

मुझे चिढ़ाने या सताने के लिये उसने अकेले मित्रों के साथ घूमना, शराब पीना और ताश खेलना प्रारंभ कर दिया था....। शिप्रा हुई तो उसे देखने भी नहीं आया। सास-ससुर आये तो उसकी बेरूखी देखकर उन्हें लगा कि पुत्री हुई है शायद इसीलिये उसका मन खराब हो गया है....। 

‘ पुत्री तो घर की लक्ष्मी होती है....। ’ कहकर सासू माँ ने महेश को सांत्वना देने का प्रयत्न भी किया किन्तु उसकी मनःस्थिति को मैं उन्हें कैसे बताती ?

थोड़ा रूककर वह पुनः बोली,‘इतना सुंदर घर महेश की मानसिक स्थिति के कारण बिखरने लगा है हँसती हूँ किन्तु दिखावटी। एक बेटी की देखभाल के लिये पूरे समय के लिये नौकरानी रख ली है,ज्यादा से ज्यादा समय उसके साथ व्यतीत करने का प्रयत्न करती हूँ किन्तु फिर भी संतुष्ट नहीं कर पाती....। ’सदैव खिले रहने वाले चित्रा दीदी के चेहरे पर चिन्ता की लकीरें झिलमिलाने लगी थीं। 

चित्रा दीदी चली गई किन्तु उसके लिये एक प्रश्न छोड़ गई थी....जिनकी ऊपरी चमक-दमक से प्रभावित होकर वह अपने छोटे से आशियाने में आग लगाने का दुस्साहस करने जा रही थी, वहाँ भी असंतोष की चिंगारी विराजमान थी। वास्तव में विवाह का बंधन समझौता ही तो है दो विपरीत लिगियों के मध्य.... विभिन्न परिवेश  में पले दो व्यक्तियों के विचार एक जैसे कैसे हो सकते हैं ? दोनों पक्षों को एक दूसरे की आवश्यकताओं एवं मजबूरियों के साथ समझौता करना ही पड़ेगा....यही सामाजिक दायित्व भी है और संबधों में स्थायित्व का तकाजा भी। 

परिमल तो एक सीधा-सादा कर्तव्यनिष्ठ इंसान है। औरों की तरह न उसमें न कोई बुरी आदत है और न ही कोई शौक , उसका अत्याधिक ख्याल भी रखता है किन्तु अपने अत्यावश्यक कार्यो को छोडकर उसके साथ बैठ भी तो नहीं सकता। एक पत्नी का कर्तव्य पति के कार्य में सहायक बनना है न कि बाधा खड़ी करना....कहा भी गया है कि सफल पुरूष के पीछे स्त्री का हाथ होता है।   

मायके और ससुराल में उसे जो मानसम्मान मिला है वह परिमल के कारण ही तो... माना आज की नारी सर्वगुणसम्पन्न,सबल एवं आत्मनिर्भर है किन्तु अपनी इन विशेषताओं को सकारात्मक कार्य में लगाये न कि नकारात्मक। एक छोटी सी दरार एक विशाल इमारत को पल भर में खंडहर में बदल सकती है इसका उसे अहसास होने लगा था।   

पहले यहाँ आती थी तो माँ , भाई और भाभी उसे हाथों हाथ लेते थे तुरन्त उसका मनपसन्द ढेरों सामान आ जाता, खाने में मनपसन्द व्यजंन बनते, एक बार उसने मजाक में कह दिया था,‘लगता है माँ, ससुराल में मुझे कुछ खाने,पहनने, ओढ़ने को नहीं मिलता तभी....। ’

‘ शुभ-शुभ बोल बेटी, तू सदा सुखी रहे किन्तु कभी-कभी मुझे भी अपने मन की करने दिया कर। माँ ने उसकी बात काटते हुए पनियाली आँखों से उसके मुख पर हाथ रखते हुए कहा था।  

अब न माँ रही और न ही भाई भाभी, एकदम सूना हो गया है घर और पापा वह तो सदा से व्यस्त ही रहे हैं...। जिस स्थिति की भयंकरता से मुख मोडकर आई थी, वही स्थिति यहाँ भी विराजमान है। पिछली बार जब यहाँ आई थी तो परिमल रोज सुबह शाम फोन पर उससे बातें कर लेते थे किन्तु इस बार बिना मिले आने से शायद वह भी आहत हुए होंगें तभी उन्होंने उसे फोन तक नहीं किया और वह अपने अहम के कारण उन्हें फोन नहीं कर पाई।

एकाएक उसे परिमल के साथ बिताये क्षण याद आने लगे …

 पिछली बार जब एक हफ्ते पश्चात् लौटी थी तो अस्तव्यस्त कमरा देखकर बोली थी,‘ तुम तो अभी बच्चे ही हो जब अपना काम ढ़ंग से नहीं कर पाते तो पूरे जिले की देखभाल कैसे करते होंगे ?’

‘मेरी देखभाल के लिये तो तुम हो ही फिर मुझे क्या चिंता....? ’ कंटीली मुस्कान के साथ आगोश में लेते हुए उत्तर दिया था। 

‘पल्लवी कहाँ हो तुम बेटा ?’ कमरे में आते हुए पापा की आवाज सुनकर वह चौंकी....उसकी अस्तव्यस्त हालत देखकर उसके नजदीक बैठते हुए उन्होंने चिंतायुक्त स्वर में पुनः पूछा, ‘क्या बात है बेटा ? तबियत तो ठीक है न ? डाक्टर को बुलाऊँ ? दीनू कह रहा था कि तुमने आज खाना भी नहीं खाया। ’

‘पापा, मैं ठीक हूँ, मुझे कुछ नहीं हुआ है। मेरा सितार नीचे उतरवा दीजिए, मैं कल ही लौट रही हूँ। ’

सितार उसकी हाँबी रही है। सितार के सुरों में वह अपने सुख-दुख भूल जाया करती थी। उसने सोच लिया था कि वह निज एकांत को सितार के स्वरों में बांधने का प्रयास करेगी, इसके साथ ही अपनी इन्टीरियर डेकोरेशन की अधूरी पढ़ाई को पूरा करने का प्रयत्न करेगी। जीवन में अगर कोई लक्ष्य हो तो समय की भी कमी पड़ने लगती है। वह तो जिलाधीश कि पत्नी है...उसका भी समाज के प्रति कुछ उत्तर दायित्व है...। वह परिमल से बात कर उसके सहयोग से समाज सुधार के काम...जैसे प्रौढ़ शिक्षा या गरीब बच्चों की शिक्षा के साथ गरीब बच्चों में होने वाले कुपोषण को दूर करने के लिए प्रयास कर सकती है।   

‘इतनी जल्दी क्या है बेटा...अब जब आ गई हो तो कुछ दिन और रह लेतीं। ’

‘ पापा अब जाने दीजिये। परिमल के साथ शीघ्र आऊँगी। ’ उसने नजरें झुकाते हुए कहा। यद्यपि वह जानती थी कि पापा का रूकने का आग्रह औपचारिक है, ऐसी स्थिति में वह भी नहीं चाहते हैं कि वह ज्यादा दिन रुके।   

‘ठीक है बेटा, जैसी तेरी इच्छा.... ड्राइवर को कह दूँगा कि वह तुझे छोड़ आये। ’ पापा ने प्यार से सिर पर हाथ फेरते हुए कहा। उनके स्वर और मुख पर संतोष के चिन्ह स्पष्ट दिखाई देने लगे। 

अत्यंत उत्कंठा से वह दूसरे दिन का इंतजार करने लगी....उसने निश्चय कर लिया था कि वह आगत भविष्य में मृगतृष्णा के पीछे अब और नहीं भागेगी....यथार्थ के कठोर धरातल पर ही अपने स्वप्नों को तराशेगी  ....संवारेगी।


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