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Prachi Raje

Drama Romance Inspirational

3  

Prachi Raje

Drama Romance Inspirational

मेरी प्रेरणा

मेरी प्रेरणा

12 mins
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      उसपर ! सिर्फ उसपर नजर थी आज मेरी। वो जहाँ भी जा रही थी, मैं उसी को देख रहा था, कभी सॉफ्ट ड्रिंक का ग्लास उठाते हुए, कभी हमारे पुराने प्रोफेसर साहब से हाथ मिलाते हुए, तो कभी उसकी पुरानी सहेलियों से मिलते हुए। ओह माय गॉड! क्या दिखती है वो आज भी, कितनी कशिश है उसमें! "समिधा सहानी" ..... कॉलेज में मेरे बैच की सबसे आकर्षक लड़की । और केवल आकर्षक ही नहीं, हर परीक्षा में अव्वल आने वाली, कॉलेज के हर प्रोफेसर की सबसे प्रिय छात्रा; सभ्य और समझदार। पहले साल से ही कॉलेज की स्टूडेंट्स कमिटी में अपना पूर्ण योगदान देने के बाद चौथे वर्ष तक उसी स्टूडेंट कमिटी की अध्यक्ष नियुक्त हुई थी वो। ये तो रही उसके दिमाग और गुणों की श्रेष्ठता की बातें। इन सब के टक्कर की थी उसकी खूबसूरती। उसका ड्रेसिंग सेन्स कमाल का था। फैशन की पूरी जानकार थी वो और हर तरह के कपड़ों में बेहद्द आकर्षक दिखती थी। क्लास की कई लड़कियां जलती थी उससे, पर सारी लड़कियां उसकी सहेली भी बनाना चाहती थीं। अर्थात, समिधा का व्यक्तित्व और उसका स्वाभाव ही कुछ ऐसा था, वो सब को अपनी प्यारी बातों से मोहित कर लेती थी। उसे गाने का बहुत शौक था। आवाज़ भी काफी अच्छी थी उसकी। कॉलेज के वार्षिक महोत्सव में उसके गानों का एक विशेष सत्र आयोजित हुआ करता था. सब उसे जानते थे और न जाने कितने लडके उसे पसंद करते थें। ऐसी थी समिधा सहानी, सब की चहिती। पर एक बात थी उसमे; फ़िजूल के लडकों को करारा जवाब देना और खुद की सुरक्षा करना भी उसे अच्छे से आता था। कई बार तो अगर कोई लडका किसी दूसरी लड़की पर बेवजह कोई कमेंट मरे तो उसे भी सबसे पहले समिधा की करारी बातें सुननी पडती थीं। इन्हीं सब यादों में खोया हुआ मैं आज उसे देख रहा था। आज कॉलेज ख़त्म हुए दस साल हो गए। इसी उपलक्ष में हमारे कॉलेज कैंपस में ही हमारे बैच के री-यूनियन की पार्टी रखी गयी है। सभी विद्यार्थी आये हैं, सब दस सालों के बाद अपने-अपने पुराने दोस्तों से हँसी-खुशी मिल रहे हैं और पार्टी के मज़े ले रहे हैं।

और मैं !

      मैं यहाँ एक कोने में चुपचाप खड़ा समिधा को देख रहा हूँ। उसने बहुत सुंदर-सा काले रंग का गाउन पहना है। बहुत ही सादगी से हलका मेकअप किया है जो उसकी प्राकृतिक सुंदरता को और भी निखार रहा है। उसके खुले घने काले बाल बार-बार उसके चेहरे पर गिर रहे हैं और वो बड़े प्यार से उन्हें सवार रही है। "आज भी कितना प्यार करता हूँ उससे यही तो है ... मेरा पहला प्यार, मेरा आख़री प्यार" यहीं सब मैं कोने में अकेला खड़ा मन ही मन सोच रहा था। तभी मेरे काँधे पर एक जोर का हाथ पड़ा।

      "और भाई मनोज, क्या हाल हैं तेरे?" मैं जनता था ये कौन हो सकता है। सच बताऊँ, कॉलेज के दिनों में मेरा कोई भी दोस्त नहीं था। होता भी कैसे, मैं क्लास में हूँ ये भी लोगों को पता नहीं होगा। ‘रोल नंबर २३’ के नाम से २-४ लड़के जानते थे मुझे। मेरा पूरा नाम "मनोज कुमार सिंह"। नाम में भी कोई दम नहीं ! पढ़ाई में साधारण से नंबर लाने वाला, सीधा-साधा, या फिर यूँ कहूँ .... एवरेज सा दिखने वाला, क्लास के ७०-८० छात्रों की भीड़ का एक मामूली हिस्सा। पर एक भाई साहब थे जिन्हे मुझमें बहुत दिलचस्पी थी - और वो थे क्लास के गुंडे, सारे बैक-बेंचर छात्रों के गुरु, हर लेक्चर में प्रोफेसरों को परेशान करने वाले और न जाने कितने सालों से फ़ाइनल वर्ष तक पहुँचने का प्रयास कर रहे - बबलू भैया। अपने चेलों की गैंग के साथ मिलकर रोज मुझे सताते थे। मेरे कपड़ों पर, मेरे चश्मे पर, मेरे तेल लगे हुए बालों पर, मेरे झिझक के बात करने के अंदाज़ पर निम्न दर्जे के चुटकुले मारकर उन्हे और उनके गैंग को जो आनंद मिलता था, बस वही मुझे अपने इस क्लास में मौजूद होने पर विश्वास दिलाता था, क्योंकि बाकियों के लिए तो जैसे मैं था ही नहीं। धीरे-धीरे बबलू भैया के मजाक का आदि हो गया था मैं। मैं भी हँस कर उनका मजाक झेल लिया करता था। पर एक दिन भैयाजी को न जाने कैसे ये पता चल गया की मुझे समिधा बहुत पसंद है। फिर क्या था, सारे जोक इसी बात को लेकर होने लगे। खूब टाँग-खिचाई होती थी मेरी। रोज यही कहते थे मुझसे "अबे तुझ जैसे गधे को तो वो मुडकर भी न देखे।" खैर ! ठीक ही तो कहते थे। इतनी अच्छी लड़की भला क्यों देखती मेरी तरफ? किस विषय पर बात करती मुझसे? बिलकुल विपरीत थे हम। वो तो जैसे कॉलेज ही हेरोइन .... और मैं …. एक एक्स्ट्रा !

      बबलू भैया की तरफ मुड़कर मैंने “हेलो” कहा। मैंने बहुत मेहेंगा सूट और टाय पहनी थी।ब्रैंडेड कंपनी की मेहेंगी घड़ी, मेहेंगा परफ्यूम, बाल-दाढ़ी .. सबकुछ बिलकुल सटीक, सुलझा हुआ। बबलू भैया ने हँसते हुए कहा, "भाई मनोज, तू तो बड़ा आदमी बन गया है! सूट-बूट में हीरो लग रहा है"। मैंने अपनी धीमी आवाज़ में, पर पूरे आत्मविश्वास से उन्हें जवाब दिया, "जी भैया, बहुत बड़ी और प्रतिष्ठित सॉफ्टवेयर कंपनी में काफी अच्छी पोस्ट पर नौकरी करता हूँ।" बबलू भैया ने फिर छेड़ते हुए कहा, "क्या बात है ! दिन पलट गए तेरे तो! याद है कैसा बेवकूफों जैसा कॉलेज आया करता था ये, ढंग से बात करना भी नहीं आता था इस गधे को।" बबलू भैया का एक दोस्त बोला, "गधा नहीं भैयाजी, शायद लंगूर कहते थे हम इसे।"और सब जोर से हँस पड़े।

      मैंने उसकी बातों का बिलकुल बुरा नहीं माना। अब गधा कहें या लंगूर; मुझे तो जो मिलना था इस जीवन में वो मिल ही गया। उनसे हाथ मिला कर मैं फिर थोड़ी दूर जाकर खड़ा हो गया।हॉल के इस हिस्से से मुझे खिड़की के बहार कॉलेज की वही बिल्डिंग दिख रही थी जिसमे हमारी क्लास हुआ करती थी। किसी से बोले बिना, चुपचाप मैं उस क्लास की तरफ चला गया। शाम का समय था और रविवार का दिन, तो क्लास तो खाली ही थी। पहले तो उस बेंच को देखा जहा समिधा बैठा करती थी, सबसे पहली लाइन में, और फिर पीछे कही अपनी बेंच को ढूँढ़ने लगा।आखों से आँसू आने लगे। याद आ गया वो एक दिन, जब मुझे चिढ़ाते-चिढ़ाते, बबलू भैया ने काँच की एक खिड़की पर "मनोज+समिधा" एक बड़े से दिल के अंदर कंपास से कुरेद दिया था। मैंने बहुत रोका उन्हें, मिन्नतें की, हाथ जोड़ के भीख मांगी की भैयाजी ऐसा मत कीजिये। समिधा देखेगी तो क्या सोचेगी। और मेरा डर सच निकला। उसकी किसी दोस्त ने उसे वो बड़ा-सा दिल दिखाया। मैं रोनी-सी शकल लेकर दूर खड़ा था। वो गुस्से में मेरे तरफ देखकर जोर से चिल्लाई, "यू ईडियट, बेशरम कहीं के. ऐसी हरकतें करने कॉलेज आते हो? सो चीप।" मुझे बहुत कुछ सुनाकर गुस्से में वहाँ से चली गयी थी वो उस दिन। और दूर बैठे बबलू भैया और गैंग हसहस कर लोटपोट हो रहे थें। उस दिन बहुत रोया था मैं। पहली बार समिधा ने मुझसे बात की और वो भी इस तरह से। दिल ही टूट गया था मेरा। दूसरे दिन कॉलेज आने की न हिम्मत हो रही थी और न इच्छा थी। पर क्या करता ? यही सोचा की वो तो वैसे भी कभी दोबारा मुझसे बात नहीं करेगी, क्या फरक पड़ता है उसे की मैं क्या सोचता हूँ उसके बारे में .... मन-ही-मन कितना प्यार करता हूँ उससे। कितनी बातें करने का दिल करता है उससे।

      और फिर, १४ फेब्रुअरी का दिन आया - "वैलेंटाइन्स डे।" समिधा के निर्देश अनुसार स्टूडेंट कमिटी हर जगह लाल गुलाबों की सजावट कर रही थी। कमिटी ने ड्रेस-कोड रखा था - "लाल और सफ़ेद कपड़ें।"समिधा ने खुद एक लाल शर्ट और नीली जींस पहनी थी और अपने लम्बे बाल ऊपर ऊंची पोनीटेल में बाँध लिए थे। वो अपनी कमिटी के लोगों को शाम को होने वाली छोटीसी पार्टी के बारे में समझा रही थी। इसे के साथ साथ उसने बहुत ही कड़े शब्दों में जाहिर किया था, "सब ध्यान रखना, वैलेंटाइन्स डे के नाम पर कही भी कोई भी लड़का किसी लड़की को छेड़ता या बद्त्तमीज़ी करता दिखे तो उसे तुरंत प्रिंसिपल सर के ऑफिस ले जाओ। सब कुछ यहाँ एक दायरे में होना चाहिए, समझ गए?"। इसी बात का आश्वासन लेकर समिधा खुद बाकी की तैयारियों में जुट गयी। उतने में मैं बबलू भैया से टकराया। "क्यों रोमियो, आज समिधा को एक गुलाब नहीं दोगे?" भैया ने बहुत ही अश्लील तरीके से कहा। मुझे तो गुस्सा ही आ गया था, पर क्या कहता उनसे? बस मैं नहीं-नहीं कहने लगा। लेकिन भैया नहीं माने; पास के सजावट से ३-४ गुलाब तोड़े और मुझे पकड़ाकर समिधा के पास भेजने लगे। मैंने खुद को छुड़ाने की बहुत कोशिश की, पर उनकी गैंग के सामने मेरा क्या जोर? मेरी आँखों से तो आँसू ही आने लगे थे। फिर भैया ने मुझे कड़ी आवाज़ में हुकुम दिया, "अबे गधे, मैं बोल रहा हूँ ना, जा और जाकर समिधा को ये गुलाब दे. जरा हम भी तो देखे आज मैडम क्या तमाशा करती है।" इतना कह कर सब मुझपर हँसने लगे।

      मैं भारी क़दमों से उनका हुकुम मान कर समिधा के पास गया। वो पीछे मुड़ी; जैसा मुझे कहने को बोला गया था बिलकुल वैसे ही मैंने "आय लव यू" कहा। मेरे हाथों में गुलाब का गुच्छा देख कर वो आग-बबुला हो गयी। उसने वो गुच्छा जोर से जमीन पर फेंका और मुझे एक जोरदार थप्पड़ मारा। चाँटे की आवाज़ दूर-दूर तक पहुँची। बबलू भैया और गैंग की हसरत पूरी हो गयी। मैं पूरे कॉलेज के सामने "समिधा सहानी" को प्रपोस करने वाला जोकर बन गया था। मेरी आँखों में जो पानी सिरहाने तक आकर रुका हुआ था, वो अब झलक पड़ा। दिल में जैसे किसी ने छूरी ही मार दी हो ऐसा दर्द उठा, पर मुँह से एक शब्द भी नहीं बोला गया मुझसे। समिधा मुड़कर जाने लगी और उसका पैर उन्हीं गुलाबों पर पड़ा, मानो मेरे दिल पर पैर रख दिया हो उसने। किसी तरह से मैं खुद को संभाल कर अपने आँसू पोंछने लगा। मेरी हलकी सिसकियों की आवाज़ दूर से आ रहे बबलू भैया और गैंग की हँसी की आवाज़ के बीच खो सी गयी थी। पर शायद समिधा ने वो सुनी …..

      वो पीछे मुड़ी। उसने मेरी रोती हुई सूरत देखी और मेरी आँखों से निकलते मोटे-मोटे आँसू भी देखे। पता नहीं क्या हुआ उसे, पर वो मुड़कर मेरे पास आयी। मैं हमेशा से जनता था, वो दिल से कितनी अच्छी और साफ है। मेरे पास आकर बोली, "अब जितनी हिम्मत करके उन लोगों के कहने पर मुझे गुलाब देने आये थे, उतनी ही हिम्मत करके उसी “बबलू भैया” से जाकर कहो की आज के बाद अगर उन्होंने तुम्हे परेशान किया तो अच्छा नहीं होगा ! ऐसा समिधा सहानी ने कहा है ! जाओ कहो उनसे"!

      अचानक सब बदल गया। दूर से आने वाली हँसी रुक गयी। समिधा की हिम्मत और उसके स्पष्ट स्वभाव से तो गलतियाँ करने वाले प्रोफेसर भी डरते थे। फिर बबलू भैया क्या चीज़ थे। उस दिन से बबलू भैया ने मुझे परेशान करना बंद तो नहीं, पर काफी हद तक कम कर दिया। कॉलेज में अब लोग मुझे "वो गुलाबों वाला लडका" इस अजीब से नाम से जानने लगे; चलो इस अंजाने को कोई हस्ती तो मिली। सच में समिधा सहानी के तो थप्पड़ में भी दम था। मेरी कहानी ही बदल गयी उस दिन से। लोग मुझसे सहज तरीकों से बातें करने लगे।धीरे-धीरे मेरा भी आत्मविश्वास बढ़ने लगा। क्लास में हाथ उठा कर प्रोफेसर से एक-आधा सवाल पूछने तक मेरी हस्ती में बदलाव आने लगा। कुछ नए दोस्त बने। परीक्षा के नंबरों में भी तबदीली नजर आने लगी। इन सब दोस्तों में एक दोस्त था ... नहीं.... थी – समिधा !

      वो मुझसे अच्छे से बातें करने लगी। कभी कभी पढ़ाई में मेरी मदद भी करने लगी। कॉलेज कैंटीन में अगर मैं अकेला बैठता, तो मुझे बुलाकर अपने ग्रुप में बैठा लेती। वो मुझे आत्मनिर्भर बनाने का हौसला देती, मेरी कमजोरियों के बारे में पूछती और उनका उपाय निकलती। धीरे-धीरे उसने मेरे व्यक्तित्व को निखार दिया। क्या सुहाना था वो "रोल नंबर २३" से लेकर " इंजीनियर मिस्टर मनोज कुमार सिंह" बनाने तक का सफर ! समिधा सही अर्थ में मेरी प्रेरणा बनी।

      आज उसी क्लास की उसी दिल बनी हुई कांच के सामने खड़े होकर मैं उन सुनहरे पलों को याद कर रहा था। कांच तो बहुत बार साफ हुई होगी, पर उसपर कंपास से कुरेदा हुआ दिल और उसमें लिखा हुआ "मनोज+समिधा" जैसे का तैसा था। उन अक्षरों पर अपनी उँगलियाँ फेरकर मैं जोर से हँस पड़ा।

इतनी में, पीछे से मेरे हाथ पर एक हाथ आकर ठहर गया। उस नाजुक से बाएं हाथ की चौथी उँगली में शादी की अंगूठी थी। मैं पीछे नहीं मुड़ा, बस अपने हाथ से उस हाथ को पकड़ लिया और उन्हीं अक्षरों को देखने लगा। वो समिधा थी।

"तुम यहाँ क्या कर रहे हो? पार्टी में गेम्स शुरू होने वाले हैं, चलो !", समिधा बोली।

मैंने उसका हाथ पकड़ कर उसे पास खींचा और वो खिड़की वाला दिल दिखाया। "ये याद है तुम्हें? कितना गुस्सा हो गयी थी तुम उस दिन", मैंने हँसते हुए कहा।

"ओ हाँ, याद है। ये अभी भी ऐसा ही है !", समिधा भी मेरे साथ हँसने लगी।

"जानती हो, उस दिन तुमने पहली बार मुझसे बात की थी। इसी दिल के बहाने मेरे पहले प्यार की सही रूप से शुरुआत हुई थी", मैंने वो प्यारे लम्हे याद करते हुए बोला। "समिधा, इतना समय गुजरा तुम्हारे साथ, लेकिन वो दिन और सबसे बढ़कर वो वैलेंटाइन्स दे मुझसे कभी नहीं भूला जाता, तुम्हारे साथ के सबसे यादगार पल है वो मेरे लिए"।

समिधा ने मुझे हाथ पे हलके से मारा और बोली, "अच्छा, ये यादगार है, और जो हमारी शादी वाले दिन की यादें है, हमारे हनीमून की यादें है, वो यादगार नहीं ?" मैंने भी हँसते हुए कहा, "हाँ, वो तो सबसे स्पेशल है"। हम दोनों हँसते-मुस्कुराते हुए वहाँ से पार्टी हॉल में वापस आ गए।

      जी हाँ ! आज समिधा मेरी पत्नी है। खुशनसीब हूँ मैं जो अपने पहले प्यार से शादी कर पाया, उसे ही अपना जीवनसाथी बनाने का भाग्य मुझे मिला। पर ये सब कुछ मेरी समिधा की वजह से। कॉलेज के उस दिन से लेकर आगे तक उसने मुझे खूब हिम्मत दी, हर पल, हर मुसीबत में मेरे साथ खड़ी रही। मेरी काबिलियत को मुझसे पहले उसने पहचाना और मुझे हर मोड़ पर सही सलाह दे कर मेरा करियर ही नहीं, मेरी किस्मत सवार दी। आज मैं प्रतिष्ठित कंपनी में उच्च पद पर कार्यरत हूँ सिर्फ उसके प्रोत्साहन की वजह से, उसका मेरी काबिलीयत पर अटूट विश्वास होने की वजह से। और वो भी अपनी नौकरी, अपने करियर में अग्रगण्य होने के साथ-साथ एक कुशल गृहिणी, एक आदर्श बहू और एक बेहतरीन पत्नी है। गर्व होता है मुझे जब "समिधा सहानी" अपने आप को "समिधा मनोज सिंह" कहती है।

      पार्टी में वापस आकर मैं समिधा का हाथ पकड़ कर उसे बबलू भैया के पास ले गया और उन्हें भी पूरे अभिमान के साथ सौभाग्यवती समिधा मनोज सिंह से परिचित करवाया। उनके चेहरे के हाव-भाव देखने लायक थे। पर फिर भी अपने देसी अंदाज़ में वे बोले, "यार, तू तो लंगूर निकला; "लंगूर के मुंह में अंगूर" यह कहावत सच कर दी तुमने।" मैंने भी हँसते हुए, विनोद भरे अंदाज़ में कहा, "भैयाजी, बिलकुल नहीं बदले आप ! चलिए, आप जैसों को मात देने के लिए तो ये लंगूर भी काफी है"।

मैं और समिधा फिर एक-दूसरे का हाथ पकड़ कर वहाँ से हँसते हुए पार्टी एन्जॉय करने चले गए। 

#पहला #प्यार #प्रेरणा


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