रोड्रिग्स हाउस की दिवाली
रोड्रिग्स हाउस की दिवाली
शादी के बाद ये हमारी पहली दिवाली थी।
"हम दूसरों के त्यौहार नहीं मनाते", मेरी मम्मी ने शादी के कुछ दिनों बाद ही सारिका से कहा था, जिसपर उसने ज्यादा प्रतिक्रिया नहीं दी थी। पर दिवाली सारिका का सबसे चहीता त्यौहार था और वह अपने परिवार और रिश्तेदारों को बहुत याद कर रही थी। दिवाली से जुडी हुई हर रस्म-रिवाज सारिका को बहुत ही पसंद थें - घर की सजावट करना, दिये खुद पेंट करके जलाना, रंगोली बनाना और शाम को अपनी माँ के साथ मिलकर लक्ष्मीजी जी पूजा-पाठ करना; ये सब सारिका को बहुत याद आ रहा था।
तीन महीने पहले ही हमारी शादी हुई, और कुछ दिनों से सारिका गोलगोल शब्दों में मुझसे यही पूछने की कोशिश कर रही थी की उसे यहाँ ससुराल में दिवाली मानाने की इजाज़त मिलेगी या नहीं। पर सीधे-साफ तरह से कुछ बोली नहीं। लेकिन मैं उसकी चुप्पी के पीछे छुपी भावनाओं को भाप गया था।
मेरा नाम डेनियल रोड्रिग्स है और प्यार से सब मुझे डैनी कहते हैं। हमारा परिवार मूल रूप से बंबई के ऐतिहासिक तटीय द्वीप-शहर से है, जिस पर कभी पुर्तगालियों का राज था। ‘रोड्रिग्स’ सदियों से हमारा पारिवारिक उपनाम रहा है और हम अपने विदेशी पूर्वजों द्वारा छोड़ी गई पारंपारिक विरासत के साथ जी रहे हैं।
यहाँ, दक्षिणी बॉम्बे में, जिसे अब मुंबई कहा जाता है, हम १५० साल पुराने एक चॉल में रहते हैं, जिसमें ज्यादातर मराठी और गुजराती परिवार हैं। अन्य समुदायों के मुट्ठी भर परिवारों का भी यहाँ निवास है; पर कुल मिलाकर, हम सब यहाँ एक बड़े ख़ुशी परिवार की तरह एक साथ, एकजुट होकर रहते हैं। हम सभी हर त्यौहार चॉल में एक-दूसरे के साथ बीच के आँगन में मिलकर मनाते हैं, चाहे वह होली हो, दिवाली हो, दशहरा हो, ईद हो या क्रिसमस। केवल एक व्यक्ति को छोड़कर चारों ओर एकता की भावना थी और वह व्यक्ति थे, मेरे दादाजी।
मेरे दादाजी पूरी तरह से धार्मिक थे और ईसाई धर्म के प्रति उनके मन में बहुत निष्ठा थी। उन्हें हमारा दूसरों में मिल-जुलकर रहना पसंद नहीं था, खासकर त्यौहारों के दौरान, लेकिन वे इसका जाहिर निषेध नहीं करते थे। मेरे बचपन में मुझे यह हमेशा अजीब लगता था और मैं अपने माता-पिता से हमेशा ही इसका कारण पूछता। मेरे मम्मी-पापा ने तो हम भाई-बहनों को हमेशा ही एकता की शिक्षा दी थी और मैं ऐसे समुदाय में पला-बड़ा जहाँ रिश्तों और मानवता के बंधन को सबसे ऊँचा माना जाता था। हमारी चॉल के हर परिवार के सदस्य हमारे अपने ही लगते थें। हम बच्चे, परिसर के चारों ओर खेलते और अक्सर एक-दूसरे के घरों में नाश्ता-पानी के लिए चले जाते। हमने तो कभी घरों के दरवाज़ों पर लगी नेम-प्लेटों पर लिखे विभिन्न उपनामों के आधार पर भेदभाव करना नहीं सीखा। लेकिन मेरे दादाजी पुराने खयालों वाले, रूढ़िवादी विचारों वाले थे। उनकी धार्मिक बाधाओं की गहरी जड़ें उन्हें आधुनिक युग में समाज की विविधता को स्वीकार करने से रोकती थीं। मेरे मम्मी-पापा ने हमेशा हमे उनकी रूढ़िवादी मानसिकता को नजरअंदाज करने को कहा और हर साल हमारे लिए ख़ुशी-ख़ुशी होली पर पिचकारी और दिवाली पर पटाखे खरीदते थें।
जब मैं सारिका से मिला और हमें प्यार हो गया, तब भी मेरे दादाजी अंतर-सांस्कृतिक विवाह के सख्त खिलाफ थे, लेकिन आखिरकार उन्होंने मेरी खातिर इसे स्वीकार कर ही लिया।
सारिका एक बहुत ही सुलझी हुई, शांत स्वाभाव की मराठी लड़की थी और उसने हमारे सांस्कृतिक मानदंडों को तुरंत स्वीकार कर लिया। वह मेरे माता-पिता और भाई-बहनों से बहुत प्यार करती है, जो उसे यहाँ ससुराल में भी हर समय घर जैसा महसूस कराते हैं। दादाजी से दोस्ती बनाने के लिए, वह हर रविवार को उनके साथ चर्च में आयोजित सामूहिक प्रार्थना के लिए जाती है और कुछ धार्मिक गीत भी सीख गयी है। दादाजी उसके साथ दुर्व्यवहार नहीं करते, लेकिन अपनी उदासीनता किसी न किसी तरह जताते रहते हैं।
आज दिवाली का त्यौहार है। सुबह से ही सारिका झाँक-झाँककर हमारे चॉल के बरामदों में चल रही तैयारियों को देख रही थी। हमारे बगल के घर वाली पड़ोसन, दुर्गा चाची, अपने प्रवेशद्वार पर एक सुंदर-सी रंगोली बना रही थी। “सारिका बेटी, आओ, मेरे साथ तुम भी कुछ रंग भरो”, चाची ने कहा, लेकिन सारिका झिझक रही थी। वह जानती थी कि ऐसा करने से वह दादाजी को नाराज़ कर देगी।
सारिका ने पूरा दिन शाम को होने वाली दिवाली की रस्मों की तैयारियों में व्यस्त हमारे पड़ोसियों को चॉल में दौड़ते-भागते हुए देख-देखकर बिताया। मेरी मम्मी बारबार उससे कोई न कोई बहाना बनाकर बातें कर रही थी ताकि सारिका अकेला न महसूस करे, उसका मन लगा रहे।
शाम होते ही सभी के घर छोटे-छोटे इलेक्ट्रिक दीयों की लड़ियों से जगमगा रहें थें। सभी के द्वार पर दीप जल रहें थें। चॉल के सभी लोग सजधजकर तैयार हो गए और बरामदों में इकट्ठा होकर एक-दूसरे को मिठाइयाँ बाँटने लगे। जोरजोर से एक-दूसरे को "दिवाली की शुभकामनाएं" देने लगे।
तभी मेरे दादाजी ने कुछ ऐसा किया जिसने हम सब को चौका दिया।
उन्होंने हमारे मेन दरवाज़े के दोनों किनारों पर दो छोटे दीये जलाकर रख दिये, जो शायद उन्होंने हम सब से छुपकर खरीदे थे। उन्होंने अपनी पुरानी खाकी झोली में से कुछ दीयों के डब्बे निकाले और सारिका को पास बुलाया। सारिका तो हैरान थी ही, पर हम सब भी चौक कर ये अद्भुत दृश्य देख रहें थें। दादाजी ने सारिका से कहा, "इन दीयों को जलाकर हमारे घर के हर कोने में रख दो। और भी कुछ सजावट का सामान लगा हूँ, उसे भी लगा दो। और ये लो, तुम्हारे लिए तोफा !", इतना कहकर दादाजी ने सारिका के हाथ में एक सुंदर-सी सुनहरे और बैंगनी रंग की रेशम की साड़ी दे दी।
“जाओ बहु, तैयार हो जाओ और बाहर जाकर सबके साथ दिवाली मनाओ।” दादाजी ने अपनी नम्र आवाज़ में कहा, “और डैनी, तुम भी जाओ उसके साथ। अब से तुम्हें भी वो सारे त्यौहार मनाने हैं जो वो मनाती है।” इतना कहकर दादाजी चुपचाप अपने छोटे से कमरे में चले गए |
हम सब परिवार वाले दादाजी में ये बदलाव देखकर स्तब्ध थें, लेकिन मन ही मन हमारी ख़ुशी का कोई ठिकाना नहीं था। आज वह हुआ जिसकी हम में से किसी को भी उम्मीद नहीं थी। सारिका का मुस्कुराता चेहरा देखकर हम सभी बेहद खुश थें और वह भी खुद को भाग्यशाली समझ रही थी कि आखिरकार, आज त्यौहार के शुभ दिन पर उसे दादाजी का आशीर्वाद और स्वीकृति मिल ही गयी । उसने जल्दी से दादाजी की उपहार-स्वरूप लायी साड़ी पहन ली और तैयार हो गयी। उसने आदरपूर्वक दादाजी के पैर छुए और उन्हें उसके साथ इस उत्सव में शामिल होने की बिनती की। हमें आश्चर्य हुआ जब दादाजी ने इस बिनती का स्वीकार किया और सारिका और हम सब के साथ दिवाली मनाई।
इस साल, हम, रोड्रिग्स हाउस के सभी निवासियों ने पहली बार दिवाली मनाई और नयी बहु के साथ-साथ नयी परंपराओं का खुले दिल से स्वागत किया। अब हमें उम्मीद है की इसी तरह हम सब हर साल सारे त्यौहार मनाते रहेंगे।
