मेरी दुविधा
मेरी दुविधा
कल मैं काम कर रही थी ,
आज मैं बिल्कुल खाली हूँ।
सोच रही हूँ ये कबसे ,
क्या मैं टूटी डाली हूँ।
सुखी डाली नहीं फिर भी ,
पेड़ से मैं क्यों टूट गई ।
किसी की काम की नहीं मैं ,
या किसी को मेरी कदर नहीं।
जब मैं काम के काबिल थी ,
तब सबने वाह वाही की ।
आज कुछ नहीं हूँ मैं तो ,
मैं क्या न काबिल हूँ ।
खोज रही हूँ इस सच को ,
जो छुपा इस बात के पीछे
जिस पर बीत रही हैं ,
वहीं जाने क्या उसको सुझे ।
मेरी दुविधा मेरी उलझन ,
मेरी दिल की वो बाते ।
कैसे मैं रोकूं उनको जो ,
बिना कहे ही दिल में आते।
एक बार फिर सोचती हूं ,
क्या ये एक सपना है।
आंख खुली तो टूट गया जो ,
जो छूट गया वो अपना है ।
कोई वो कह गया मुझसे की ,
कर भरोसा तू खुद पर ,
खो गया वो तेरा नहीं था ।
जो पास है उसको संभाले रखना है ।
तू भी एक दिन खो जाएगी ,
अभी बढ़ी न आगे जो ।
बात अधूरी रह जाएगी ,
अभी कही न जाए जो ।
