जंजीर
जंजीर
पाव में बंधी पायल जंजीरे लगती है
हाथों में चूड़ियां हथकड़ियां लगती है
तन पे चूनर ओढ़ के भी इज्जत नहीं ढकती है
आजादी के बाद भी घर से बाहर जाने की शक्ति नहीं है
कैसे तोडूं ये जंजीरे , कैसे खोलूँ ये हथकड़ियां
कितनी ही बीत चुकी है सदियां
फिर भी न बदली क्यों मेरी दुनिया
कल अज्ञानी थी मैं तब भी अहम तले रौंधी जाती थी
आज ज्ञानी हो के भी अहम तले रौंधी जाती हूँ
फर्क बस है इतना की कल नासमझ थी मैं
आज समझ के भी नासमझ हूँ मैं
सहना ताकत थी मेरी अब आदत बन गई है
खाली पन्ने पे पड़ी स्याही बन गई है
एक ओर देवी कह पूजते है मुझे
दूजी ओर हैवान बन नोचते है मुझे
पूछती हूँ आज उनसे क्या मैं इंसान नहीं
दर्द होता है मुझको भी मैं बेजान नहीं
कब तुम समझोगे मुझको
कब मेरे दर्द को जानोगे
जिस दिन जानोगे तुम
सच में इंसान कहलाओगे
