मेरी आदत
मेरी आदत
मुझे हमेशा से ही बिना सोचे समझने, बोलने की आदत थी। मेरी इस आदत से, घर वाले हमेशा परेशान रहते थे।
कोई भी आता, तो मुझे वहां से हटा दिया जाता था। मेरी इस आदत की वजह से, मुझे बहुत डांट भी पड़ी है।
मम्मी हमेशा से ही कहती, अपनी आदत सुधारो अब तुम बड़ी हो रही हो, कल को तुम्हें ससुराल जाना होगा, ऐसे रहा तो तुम्हारा क्या होगा।
मैं हमेशा यह कह कर टाल देती, अरे मम्मी ससुराल में कुछ नहीं होगा।
तब तक तो मेरी आदत छूट जाएगी। मम्मी हमेशा कहती ! सामने वाला जो कह रहा है, अगर वह गलत भी है तो !" एक कान से सुनो, दूसरे कान से निकाल दो, उसमें तुम्हें टांग अड़ाने की कोई जरूरत नहीं है।"
और मुझसे गलत बर्दाश्त बिल्कुल भी नहीं होता था।" इसीलिए मैं बीच में बोल देती थी, इसी तरह मेरी आदत पड़ गई थी बोलने वाली, और मैं ! बिना सोचे समझे ही, बोल देती थी कभी-कभी।
कुछ दिनों बाद मेरी शादी तय हो गई, अब तो मम्मी बात बात पर टोकती थी, कि सोच समझकर बोला करो, अब तुम्हें कुछ ही दिनों में ससुराल जाना है।
लेकिन मैं ठहरी ढीठ, इतना समझाने के बाद भी मेरी आदत ना गई।
कुछ ही दिनों में मैं ! बेटी से बहू बनकर, ससुराल पहुंच गई।
रस्मों रिवाज में ही दस दिन बीत गए, अब तो पति देव की छुट्टियां भी, खत्म हो गई थीं। सुबह उन्हें ऑफिस जाना था, उन्होंने मुझसे कहा देखो मेरे जूते कहां है ?"
मिल नहीं रहे !" मैं मुंहफट थी ही, मैंने कहा गेट पर खड़े होकर, पड़ोसन को देखकर, सिटी बजाओ ! अभी तमाम जूते मिलेंगे।
मेरे इतना कहते ही, सब लोग मुझे ही देखने लगे, जैसे मैंने कितनी बड़ी गलती कर दी हो। बात को समझते ही, मैंने सोचा! मैंने यह क्या कह दिया?
काश मां की बात सुनी होती ! अब ये लोग पता नहीं क्या सोच रहे होंगे मेरे बारे में।
तब तक सासु मां ने बात संभालते हुए कहा, कोई बात नहीं बेटा, जा आज तो पड़ोसन के ही जूते पहन कर चला जा।
एक बार पूरा घर फिर से ठहाके से गूंज उठा।