मेरा स्कूल
मेरा स्कूल


मेरे गावं में कोई स्कूल नहीं था, सो मेरी प्रारम्भिक शिक्षा मेरे अन्य दोस्तों की तरह पास के ही गावं के स्कूल में शुरू हुई I हम लोगों को दो चीजें से जितना डर था, शायद उस समय और किसी से नहीं था, एक थी मटरू मास्टरजी की मार, और दूसरा था छतूरा के भयानक जंगल से होकर स्कूल और वापस घर आना I मटरू मास्टरजी के नाम से हम लोग उतना ही कापतें थे, जितना रामगढ़ वाले डाकू गब्बरसिंह से I वह कद -काठी, स्वभाव में किसी भी तरह गब्बरसिंह से कम नहीं थे, और उनका डंडा, जिसके लगने से पहले ही हम लोग चिल्लाने लगते थे I
वैसे तो छतूरा का जंगल आकार में छोटा था, लेकिन उस समय वह हमें अमेज़न जंगल से भी बड़ा मालूम पड़ता था, घनी झाडियां, पेड़ों की बजह से रास्ते में दिन के वक्त भी थोड़ा अंधेरा रहता था, वारिश के बाद कीट -पतंगों की डरावनी आवाजों से हालत और भी भयावह हो जाती थी, शाम को सोते समय जो चोर - डाकुओं, भेड़िया, भालू की कहानी सुनते थे, छतूरा का रास्ता शुरू होते ही हम लोगों के दिमाग में कौंधने लगतीं थीं, सामान्यता हम लोग साथ ही आते थे लेकिन अगर किसी से लड़ाई हो गयी तो हम उसे बिना बताये हुए घर से पहले निकल लेते थे, अब उसे अकेले जंगल से निकलना होता था, या फिर किसी राहगीर का इंतजार, यही केवल दो विकल्प होते थे, एक में अकेले जंगल से गुजरने का जोखिम था और दुसरे में लेट होने से मटरू मास्टरजी की मार I
हमारे स्कूल में तीन गावं के बच्चे पड़ने आते थे, उस समय आज-कल के पब्लिक स्कूल की तरह प्ले ग्रुप, नर्सरी इत्यादि नहीं होते थे I स्कूल में एक बरगद का विशाल पेड़ था, उसकी जड़ो में चीटिओं ने नौ -दस छेद बनाये हुए थे जिन पर गर्मी की छुट्टियों के बाद हमारा कब्ज़ा हो जाता था I इन छेदों की संरचना इतनी जटिल थी कि एक छेद से मिट्टी डालने से वह किसी दुसरे छेद से बाहर निकलती थी I
पहली साल के बच्चे उन छेदों से मिट्टी डालकर '' आटा -चक्की " खेला करते थे, उनके लिये यही खेल एक शिक्षा थी, जो उन्हें मास्टरजी से नहीं किसी सीनियर छात्र से मिलती थी, कभी -कभी जब बच्चों में मिट्टी डालने को विवाद होता था वह चिल्लाते थे, मास्टरजी के आने पर सब खामोश हो जाते थे चेहरे पर मिट्टी पुती होने से मास्टरजी भी शंसय में पड़ जाते थे कि कौन चिल्ला रहा था और वह अपनी आखें लाल -पीली करते और बिना कुछ बोले जैसे ही मुड़ते बच्चे अपने जंग वहीं से शुरू कर देते I
बरगद का पेड़ सही मायनों में हम लोगो के लिए ढाल का काम करता था, मार के डर से हम पेड़ की आड़ लेते थे और मास्टरजी अक -ऊआ का डंडा लेकर हमारे पीछे, और पिटने के बाद हमारी ही नहीं बाकी सब क्लासों के बच्चे खामोश हो जाते थे, तो सोचिये हमारी क्या हालत होती होगीI
इसी तरह से मेरी भी शुरुआत हुई, अब घर से अच्छा स्कूल लगने लगा, दो साल आटा -चक्की खेलने के बाद आखिर हम पहली कक्षा में आ ही गए I प्राइमरी स्कूलों की "अनुसरण पद्धति " के कारण हम पहली कक्षा में आते - आते हिंदी वर्णमाला, गिनती, पहाड़े जान चुके थे, लेकिन हम दो का पहाड़ा पड़ते -पड़ते तीन के पहाड़े में घुस जाते थे I हमारे स्कूल में भी अन्य प्राइमरी स्कूलों की तरह ही एक कक्षा को केवल एक ही अध्यापक पढाता था, पुरी साल सभी बिषय एक ही शिक्षक I वरीयता के हिसाब से शिक्षकों को कक्षाये आबंटित होती थीं I पहली साल में लटूरी लाल, दूसरी साल में मटरू मास्टरजी, तीसरी साल में भदोरिया जी, चौथी साल में चौरसियाजी, और पाचवीं साल में हेडमास्टर पंडीजी I
पहली कक्षा में खादी के बने थैले मे सेंटा की बनी दो - चार कलमें, लकड़ी की बनी आयताकार पट्टी और खड़िया रखने के लिए कांच की एक मजबूत बोतत जो लिखाई के साथ लड़ाई के समय सिर फोड़ने के भी काम आती थी I पहली साल हमें लटूरी लाल जी ने पढ़ाया, वह सबसे कम अनुभव के थे और साथी शिक्षक उनको समझाते, लताड़ते रहते थे, उन्होंने हमें अच्छे ढंग से पढ़ाया, लेकिन हम उनसे ज्यादा डरते नहीं थे उल्टा वह हम लोगो से डरते थे कि अगर पंडी जी से शिकायत कर दी तो डांट पड़ेगी, इस प्रकार लगाम ढीली होने से हम लोग थोड़ा उदंड हो चले थे कभी लड़ाई करते तो कभी शोरगुल, और मटरू मास्टरजी अपनी कुर्सी से देखकर खीजते रहते, और कहते चिल्ला लो बेटा अगली साल मेरी ही कक्षा में आओगे, यह सुन कर हम हॉरर मूवी के किसी सीन की तरह शांत हो जाते थे I
गर्मीं की छुट्टी खत्म होने के बाद हम दूसरी कक्षा में पहुँच गए, सभी शांत थे, जानते थे, मटरू मास्टरजी की बारी है, लेकिन यह क्या वह तीसरी कक्षा में पढ़ाने चले गए, पता चला पंडीजी रिटायर हो गए है, उस बालपन में यह जान इतनी खुशी हुई, शायद ओलंपिक पदक जीत कर भी न होती I अब यह तो तय था की कम से कम इस साल तो बच जायेगें पिटने से I इक बार मटरू मास्टर जी, चबूतरे जो के फर्श से दो - ढाई फुट ऊंचा था पर पड़ी हुई कुर्सी पर में सो रहे थे, मध्यावकाश ख़त्म होने को था, संयोग से जैसे ही हम लोग स्कूल में आये कि वह कुर्सी से गिर पड़े, लटूरी लाल ने उनको दौड़ कर उठाया, दूसरे अध्यापकों के साथ -साथ लटूरी लाल भी हंस रहे थे उठाते समय, सभी बच्चे भी हसने लगे ये देखकर, बस फिर क्या था मटरू मास्टरजी गब्बरसिंह के रोल में अवतरित हो गए, पहली बार उन्होंने अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर आकर हम लोगो की ऐसी धुनाई की जैसी राजपाल यादव ने फिल्म चुपके चुपके में कपड़ो की I
मरता क्या न करता आखिर हम तीसरी कक्षा में आ ही गए, पिछली बार की तरह भी कोई करिश्मा हो जाये, पर जो चाहते हैं वह कभी नहीं होता I आखिर हम गब्बरसिंह के आदमी बन ही गए, पर कोई जय और बीरू नहीं थे, हममें से ही कोई ठाकुर, जय बीरू बन जाता था गब्बरसिंह के डंडे के सामने I डंडे की चोट कम पड़े इसके लिए हम छतूरा से एक पेड़ की पत्तियों का रस यह सोच कर हाथों में लगाते थे, अब छतूरा कम डरावना लगता था बजाय मटरू मास्टरजी से I हरी हथेली देख कर एक बार सहपाठी की ज्यादा ही पिटाई हो गयी, तब से पत्तियों का रस भी लगाना छोड़ दियाI अक्सर पिटने बाले को ही डंडा लाने भेजा जाता था अगर वह कमजोर डंडा लेकर आया तो किसी और को मजबूत डंडा लाने के लिए कहा जाता था ऐसे में वह सबसे पहले भागता जिसकी हाल में ही पिटने बाले से लड़ाई हुई हो I
चौथी कक्षा में हमें भदोरिया जी ने पढ़ाया, वह होम वर्क न करके लाने पर या इमला, सबाल सही हल न कर पाने पर ही पीटते थे I एक बार उनकी अनुपस्थिति में हमारी कक्षा की जिम्मेदारी मटरू, मास्टरजी को मिल गयी, उन्होंने हमें बहुत कठिन सबाल हल करने को दिए, मैं यहाँ अपनी बढ़ाई नहीं करना चाहता लेकिन मैं उस समय गणित में बहुत होशियार था, मेरे जैसा होशियार मेरे चाचा का लड़का भी था जो मेरे साथ ही पढ़ता था I हम दो को छोड़ बाकी सब पिटे I
पाचवीं कक्षा में हम कमरे के अन्दर बैठते थे केवल उसी कमरे में किवाड़ थे, उस कमरे में रजिस्टर, किताबें इत्यादि जरूरीं चीजें रखीं जातीं थीं I हेड मास्टर चौरसिया जी बहुत शांत रहने बाले शिक्षक थे, मैंने उन्हें कभी चिल्लाते हुये नहीं देखा उनका समझाने, पढ़ाने का ढंग अलग था I
कमरा छोटा होने की बजह से बैठने की जगह को लेकर कई बार लड़ाई हुईं, जो हमारे लिये किसी कारगिल से कम न थी I कहते है जंग मे सब -कुछ जायज है हम लोगो का एक ही मकसद होता था सामने बाले को पीटो, असफल रहने पर टीचर से पिटवाई की जुगाड़ लगाना, जिसमे होम वर्क की कॉपी छुपाने से लेकर स्याही फैला देना आदि शामिल था I
उस समय '' डिप्टी साहब '' का खौफ हमारे सभी शिक्षकों मे रहता था हालाकि हमने उनको कभी-कभी ही देखा उनके आने की भनक शिक्षकों को पहले से ही हो जाती थी और उस दिन सारी कुर्सियां हटा दी जाती थी उस दिन खड़े होकर मास्टरजी हमें पढ़ाते थे I
आख़िरी कक्षा के छात्र होने के कारण हम लोग स्वतन्त्रता दिवस और गणतंत्र दिवस पर प्रभात फेरी के समय तिरंगे को थाम कर भारत माता की जय के नारे लगाते हुए गावं का चक्कर लगाते थे, उत्साह चरम पर होता था बास्तव मे वह गौरव के पल थे जो अब कम ही दिखाई देते है I
हमारी बार्षिक परीक्षाएं निकट थीं हम दी जाने बाली सभी शिक्षाओं मे पारंगत हो चुके थे साथ ही मे मास्टरजी के पढ़ाने के ढंग भी जान चुके थे जो क्रमशः इस प्रकार हैं समझाना, न समझने पर चिल्लाना, कुर्सी पर बैठे -बैठे डंडा लपलपाकर पीटने की धमकी देना, कान एंठना, हथेलिओं पर डंडे मारना और अंत मे सभी कोणों से डंडा चलाना, तय हमें करना होता था पीठ मजबूत है या टांगे I
इन सब के साथ हममें कुछ नैतिक और सामाजिक मूल्यों, भावनाओं का भी विकास होने लगा था, छत्रपति शिवाजी, महाराणा प्रताप, झांसी की रानी की वीर-गाथाये, उठो धरा के वीर सपूतों, "पन्ना धाय का त्याग" जैसी कालजयी रचनाये मन को उद्वेलित करने लगी थी, बहीं भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव की फांसी ने हमें झकझोर दिया था I
स्कूल मे हमारा आखिरी दिन था, रिजल्ट आने वाला था हम लोग बहुत उत्सुक थे, चौरसिया जी रजिस्टर खोलकर छात्र का नाम लेकर उसके नम्बर बताते और बोलते तुम पास हो गए, कोई मार्कशीट नहीं दी जाती थी, यह कहने मे मुझे कोई संकोच नहीं कि मैं उनका सबसे प्रिय शिष्य था, मैं भी अपनी बारी मे था लेकिन मेरा नाम अब तक न बोला गया था, मेरे दिल की धड़कन तेज होने लगी थी फेल होने के डर से गला सूखने लगा था मेरे सभी सहपाठी पास हो गए थे कि अचानक उन्होंने मेरा नाम लेकर मुझे अपने पास बुलाया, और मेरे सिर पर हाथ फिराया जैसे दिलासा दे रहे हों, मैं लगभग रोने लगा, वह बोले तुम भी कक्षा ६ की किताबें खरीद लेना, उनका गला रुधा हुआ था और मैं किसी बुझने बाले दीपक की तरह अपनी आखें डबडबा रहा था I
अंत मे हमनें अपने सभी शिक्षकों के चरण स्पर्श कर उनका आशीर्वाद लिया और नए स्कूल नए शिक्षकों नए दोस्तों से मिलने की उमंग मे अपने घर को दौड़े चले जा रहे थे I