मैं हूँ ना ...!
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देवी असमय ही अपने पति को खो चुकी थी। फिर भी हिम्मत न हारते हुए अपने दो छोटे बच्चों के साथ वक्त के थपेड़ों से दो दो हाथ करने के लिए भवसागर में उतर पड़ी। समाज की तीखी नजरों का सामना करते हुए भी उसने अपना कर्तव्य बखूबी निभाया और दोनों बच्चों को ऊँची तालीम हासिल कराई। दोनों बच्चे अब विदेशों में जम चुके थे। उनकी शादी भी हो चुकी थी और दोनों अपनी घर गृहस्थी में रमे हुए थे। गाहेबगाहे दोनों ही माँ से अपने साथ रहने का निवेदन करते लेकिन वह विनम्रता से उन्हें मना कर देती। उसकी यादें उस घर से जुड़ी थीं जिसमें वह रहती थी और उसे किसी भी कीमत पर नहीं छोड़ना चाहती थी।
सुबह बगीचे में टहलते हुए एक दिन उसकी मुलाकात नज़दीक की कालोनी में रहने वाले शर्मा जी से हुई। औपचारिक बातों से शुरू बात का सिलसिला एक दूसरे के सुख दुःख व हालचाल तक जा पहुँचा। शर्मा जी की कहानी देवी को अपनी योजना और भी उचित जान पड़ी।
शर्माजी के भी दो बेटे थे जो नौकरी के सिलसिले में दूसरे शहरों में रहते थे। कुछ साल पहले उनकी पत्नी भगवान को प्यारी हो गयी थीं। एकाकी जीवन जीते हुए शर्माजी बेटों से तालमेल रखने की हरसंभव कोशिश करते लेकिन बेटे शहर में अपने परिवार में ही खुश थे। शहर में बड़ा घर लेने की अपनी जरूरत को बताकर बड़े बेटे ने उनसे अपना घर बेच देने की इच्छा जताई थी जिसे उन्होंने अस्वीकार कर दिया। अब बाप बेटों में मनमुटाव का पैदा हो जाना स्वाभाविक था। कड़वाहट इतनी बढ़ी कि शर्माजी ने वसीयत बनवा दी और अपने मरणोपरांत अपनी सारी जायदाद किसी संस्था के नाम लिख दी।
देवी ने अपनी सोच के अनुसार अपने ही बड़े से घर में वृद्धाश्रम खोलने की अपनी योजना को अमली जामा पहनाने की शुरुआत कर दी। कानूनी औपचारिकता पूरी करने के बाद देवी बेसहारा वृद्धों की सेवा व तीमारदारी में लग गयी। अब उसका नियमित बगीचे में जाना कम होने लगा। बहुत दिनों बाद अचानक शर्माजी से देवी की मुलाकात हो गयी। देवी ने उन्हें अब कम आ पाने की वजह बताते हुए कहा ” आप आखिर घर में अकेले ही रहते हैं। क्यों न आकर हमारे साथ ही रहें ? “
अगले दिन आने का वादा करके शर्मा जी वापस अपने घर चले गए।
अपने वादे के मुताबिक शर्माजी अगले दिन सुबह ही देवी के घर पहुंच गए जो अब वृद्धाश्रम में तब्दील हो गया था। शर्माजी वहां गए तो वहीं के होकर रह गए। दिन भर वृद्धाश्रम के लोगों की सेवा व उनकी देखभाल में देवी का वक्त बीत रहा था। शर्मा जी हर वक्त उसके साथ रहते व उसका हाथ बंटाते। अब वृद्धों की संख्या बढ़ने लगी थी। सबके लिए प्रबंध करना अब उसके लिए मुश्किल हो रहा था। दानदाताओं की संख्या भी अब आश्चर्यजनक रूप से कम हो गयी थी। आर्थिक तंगी झेलते हुए भी देवी ने खुद को टूटने नहीं दिया और अपने घर के पास ही अपनी खाली ज़मीन बेचने का इरादा कर लिया। शर्मा जी से सलाह ली। शर्मा जी ने देवी की सारी बात सुनने के बाद कहा ” अगर तुम बुरा न मानो तो एक बात कहूँ ? “
” कहो ! बुरा क्यों मानूँगी ? “
” तुम महिला होकर अकेले ही इतनी सारी जिम्मेदारियां उठाती हो। अगर तुम चाहो तो मैं तुम्हारा हाथ बंटाने को तैयार हूं। “
” नहीं ! आप कभी कभी मेरी मदद कर देते हैं इतना ही बहुत है। इससे आगे बढ़ने पर लोग क्या कहेंगे ? हमें समाज का भी तो ध्यान रखना है ! “
” लोगों का क्या है ? लोग तो कहते ही रहेंगे। हां समाज का मुंह बंद करने का एक उपाय है मेरे पास। अगर तुम चाहो तो मैं तुमसे शादी करने के लिए तैयार हूं। “
” ये आप क्या कह रहे हैं ? “
” मैं ठीक कह रहा हूँ देवी ! बच्चे अपनी दुनिया में मस्त हैं। न कोई हमारा है न कोई तुम्हारा। तो क्या हमारी कोई जिंदगी नहीं ? हमारे कोई अरमान नहीं ? क्या शादी का मतलब सिर्फ शारीरिक सुख ही होता है ? क्या भावनाओं की कोई कीमत नहीं ? हम आज उम्र के इस पड़ाव पर कम से कम अपनी भावनाएं तो एक दूसरे से साझा कर सकते हैं। फिर भी अगर तुम ना चाहो तो कोई बात नहीं। जैसी तुम्हारी मर्जी ! “
” अभी तो फिलहाल मैं अपने लिए नहीं इन बेसहारा बुड्ढों के लिए चिंतित हूँ जो मेरे सहारे ही यहां पड़े हुए हैं। स्टोर में दस दिन का ही राशन पड़ा हुआ है। “
” अरे तुम उसकी फिक्र छोड़ो और मेरे सवाल का जवाब दो। “
” तो उनकी फिक्र कौन करेगा ? ” कहते हुए देवी ने घूम कर शर्मा जी की तरफ देखा।
शर्माजी के चेहरे पर एक गहरी मुस्कान तैर रही थी। बड़े ही रोमांटिक अंदाज में शाहरुख खान की नकल करते हुए बोले ,” मैं हूँ ना .…..! “
और ” धत ! ” कहती हुई देवी उनके आगोश में समा गई। देवी की मौन स्वीकृति से अभिभूत शर्मा जी ने उसके माथे पर चुम्बन लेते हुए अपने प्यार की मोहर लगा दी।