मानसिक रोगी
मानसिक रोगी
आज भी मैंने उसे वहीं देखा उन मोटी लोहे की सलाखों के पीछे से झांकते हुए। और हर रोज की तरह आज भी उसके चेहरे पर वही सुकून, वही बेफिक्र मुस्कान और अपनी और खींच लेने बाला चमकते चाँद जैसा नूर, मानो जिंदगी की सारी सरलता ऊपरवाले ने उसी के नसीब में लिख दी हो!
मरीजों वाला यूनिफार्म कंधे तक खुले लहराते बाल और सारी दुनिया की मासूमियत आँखों में समेटे हुए हर रोज की तरह आज भी मुझे देखकर मुस्करा रही थी।
उसके चेहरे को देखकर ऐसा महसूस होता है मानो जिन्दगी को सिर्फ वो ही जी रही है,।
हम तो बस भागते जा रहे हैं ।
न मंजिल न का पता है न रास्तों का? बस यूँ ही सफर सी हो गयी है जिंदगी।
क्या पाना चाहते हैं ?
कहाँ जाना चाहते हैं ?
कुछ नहीं पता?? बस कभी जिम्मेदारियों के नाम पर ,
तो कभी रिश्तों के नाम पर
और जब ये बहाने भी खत्म हो जाते है तो ख्वाहिशें फिर भी बच जाती हैं ? कहाँ तक आज़ाद करेंगे खुद को ?? और किस किस से?
ये ऐसी कैद है जो न दिखती है न आज़ाद करती है बस घुटन का एहसास दिए जाती है।
सुबह सुबह जब भी पार्क क़े लिए निकलती थी! अनायास ही दिख जाने बाले इस चेहरे को देखकर कभी आश्चर्य होता था !कभी जलन , तो कभी हंसी आती थी। पर अगर आज कोई मुझसे पूछे तो मैं भी वो जिंदगी जीना चाहूंगी। जिस जिंदगी को वो जी रही है। उन्नीस वर्ष की उम्र में भी सोलह साल की छोटी सी बच्ची ही तो लगती है वो।
कुछ पल की लिए मुझे अजीब जरूर लगा था जब डॉक्टर ने मुझे उसके बारे में बताया था कि कैसे गरीबी और लाचारी के हाथों मजबूर उसके माँ बाप ने सत्रह साल की नाजुक सी उम्र में ही उसे पैंतीस साल की उम्र के उम्रदराज इंसान के साथ सात फेरों की कैद में बांध दिया था। ऐसे हालातों में हर रोज के होते जुल्म को वो ज्यादा दिन तक बर्दाश्त नहीं कर पायी। और एक दिन उसने उस चारदीवारी में कैद घुट -घुट कर दम तोड़ती जिंदगी को आजाद कर दिया। और काले अँधेरे में हिम्मत की चादर से खुद को लपेट कर घर से भाग निकली। पर कहते हैं न दर्द के साए और कैद की बेड़ियों से आज़ाद होना इतना आसान नहीं होता। उस दिन भी कुछ ऐसा ही हुआ, उसी के अपनों ने अपनी झूठी शानो -शौकत और इज्जत बचाने के लिए उसे पागल साबित कर मानसिक रोगियों के अस्पताल में भर्ती करा दिया। पूरे पांच महीने हुयी ज्यादती और मानसिक प्रताड़ना झेलने के बाद वो सबको ये समझा पायी थी की वो पागल नहीं है।
कितनी तकलीफ हुयी थी मुझे ये सुनकर लगा मानो सब कुछ सामने होकर गुजर गया ,इतना दर्दनाक अतीत और इतना मासूम चेहरा। जिंदगी के उन्हीं मुसीबत के पलों को झेलकर आज वो जीना सीखी है। यहाँ पहला कदम उसने अपनी मर्जी के खिलाफ और दूसरों की साजिश का शिकार होकर रखा था, तब से अब तक वो यहीं रह रही है।
पर आज उसके कदमों में कोई बेड़ियां नहीं है कोई कैद नहीं है, वो अपनी मर्जी अपनी ख्वाहिश और अपनी खुशी से रह रही है, हॉस्पिटल के डाक्टर ने उसे एक एक अलग कमरा दे दिया है, जहाँ उसकी सारी दुनिया बसती है, मरीजों का कहना तैयार होने के वक्त रसोई में हाथ बंटाती है! मरीजों का ध्यान रखती है! शायद कुछ में जीने की उम्मीद भी जगाती है।
कितनी अजीब बात है यहाँ से बहार नहीं जाना चाहती।
अक्सर इस खिड़की के पास बैठी आते जाते लोगों को देखती रहती है। पर खिड़की के इस पार की दुनिया में आने की उसकी कोई चाहत नहीं है। वो खुद को शायद वही सुरक्षित महसूस करती है हर खौफ, हर उम्मीद, हर परवाह, से बेपरवाह, आज़ाद ।
यूँ तो कुछ सलाखों का फर्क है उसके और मेरे बीच पर उसके चेहरे से झलकते नूर को देख के ऐसा प्रतीत होता है मानो वो किसी खूबसूरत सी दुनिया में जी रही है जहाँ मेरे लिए कोई जगह नहीं ।
उसे देखती हूँ तो यूँ ही मन में ख्याल सा आता है कि उन सलाखों के इस पार की दुनिया क्या इतनी खतरनाक है, मानसिक रोगी उस तरफ हैं या इस
तरफ ????????
