Kaushal Jangid

Drama Others

2.3  

Kaushal Jangid

Drama Others

मानस और उसके वो ख़त

मानस और उसके वो ख़त

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ठंड की दोपहर। कॉलेज कैंपस का वो आखिरी कोना। दूर तक परेशान करने वाला कोई भी नहीं और कुछ पन्नों में डूबा हुआ मानस।

अभिनव: “ये लो ! हर जगह ढूंढ लिया और तुम आज भी यहीं, तुम यहाँ आकर अकेले बैठे कौन से राज़ लिखा करते हो ?”

मानस: “कुछ खास नही, बस यूं ही।”

अभिनव: भाई इस "बस यूंही" का कुछ नाम तो होगा ?

मानस: “हम्म, ‘ख़त’ लिखता हूँ”

अभिनव: “किसे ?”

मानस: “हैं कुछ, जिनसे मुलाक़ात नही होती”

अभिनव: “तो मिल आओ, मिल नही सकते तो टेलीफोन लगा लो। आज के जमाने मे ख़त कौन लिखता है भला !”

मानस: “मेरे जैसे लोग !”

( मन ही मन: “थोड़े अलग-थलग से रहने वाले, भीड़-शोर से दूर, सही-गलत से आगे, किसी से छिपते, किसी से भागते, किसी को ढूंढते, उसी एक जैसी घिसीपिटी दुनिया के ढकोसलों में उलझे हुए लोगो दूर !” )

अभिनव: “कुछ समझ नही आया !! तू चल साथ बाद में लिखना ये सब अजीब चीज़ें मानस मन ही मन सोचते हुए ( कोई नही समझेगा ): “अच्छा ठीक है, मुझे ये कुछ बिखरे कागज़ समेंटने अभिनव ने चुपके से कुछ पन्ने अपने पास रख लिए.. और दोनो चल कुछ दिन बाद, खुद को लाख समझाने के बावजूद भी उन चुराए हुए खतों को पढ़ने से रोक नहीं लेकिन ये क्या ये खत नही थे, ये तो किस्से थे, वो सब लिखा था, जो अब तक बीता था कुछ दिन पहले सब कुछ उसकी नज़र से, उसके हिसाब से, जो शायद हमने कभी नही सोचा ! आखिर मानस ऐसा क्यों करता है, वो खुल कर सबकुछ क्यों नही कहता, ख़ुद को लिखने से क्या हो जाएगा ! मुझे उससे बात करनी चाहिए इस बारे में शायद वो अपनी और दूसरों के हिस्सों की सारी बातें खुद से ही कर लेता है, अपने हिसाब से अपनी दुनिया में ! इसीलिए दूसरों से कोई गिला-शिक़वा नही, न ही किसी आशा निराशा और किसी मुआवज़े का इंतज़ार, अज़ीब है न उसकी दुनिया ?

गलत नही है…बस थोड़ी सी अलग है मानस और उसके वो ख़त !”


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